मित्रों, चार-पांच दिनों के बाद फिर से अपनी कहानी का एक टुकड़ा यहां पेश कर रहा हूं. पिछली किस्तों में आपने जवाहर और आदर्श की बातचीत सुनी और देखा जवाहर के ठीहे का नज़ारा. लीजिए अब देखिए सुबह-सुबह बाज़ार पहुंच कर आदर्श बाबू क्या कर रहे हैं ...
सुबह के क़रीब छह बज रहे हैं. सड़कें अपेक्षाकृत खाली है. अभी-अभी लाल किले के स्टॉप पर एक बस आकर रूकी है.
....और इस तरह सागर नाहर भारत के महानतम ब्लॉगरों में गिने जाने लगे। :)
आइटीओ, चिडियाघर, निजामुद्दीन, ओखला, बदरपुर बोर्डर चिल्लाता हुआ पीछे वाला कंडक्टर हाथ निकालकर खिड़की के नीचे थपथपा रहा है. पीछे जो 26 नंबर रुकी है उसका कंडक्टर ‘लोदी कोलोनी, सेवानगर’ चिल्लाता हुआ बस को वैसे ही थपिया रहा है. इस बीच पता ही नहीं चला कि डीटीसी की चार-पांच बसें कब आयीं, रुकीं और आगे बढ़ गयीं. जैन मंदिर के सामने लाजपतराय बाज़ार के साथ वाली सड़क के किनारे छोटी-छोटी टोलियों में लोग बैठे हैं. किसी के सामने करनी फट्टा है तो किसी के सामने लकड़ी का बक्सा जिसके अंदर से आरी की नोंक झांक रही है. बहुत से लोग खाली हाथ ही अंडाकार घेरे में बैठे हैं. अभी-अभी एक मारूति ज़ेन आकर रुकी है एक झूंड के पास. आसपास के झूंड वाले भी दौड़ कर पहुंच गए हैं उसके पास. ड्राइविंग सीट पर बैठे आदमी ने अभी अपनी बायीं ओर की खिड़की का शीशा पूरी तरह नीचे कि किया भी नहीं कि बाहर अफरातफरी शुरू हो गयी. एक-दूसरे का कुर्ता और अंगोछा खींचकर खिड़की के नजदीक पहुंचने की उनकी कोशिश अभी थमी भी नहीं थी कि पिछली सीट पर दो लोगों को बिठाकर कार यू टर्न ले कर ज़ू...... हो गयी.साथ वाली सीढ़ी की दायीं ओर वाली उस पीपल के दरख़्त के नीचे सफ़ेद दाढ़ी में चेहरा छिपाए सत्तर पार के मुल्लाजी बैठे हैं जहां दिन में हज़्जाम उंची टांगों वाली कुर्सी पर लोगों की हजामत बनाता है. मोटे शीशे वाली मुल्लाजी की ऐनक बार-बार उनके इशारे की अवहेलना करके उनके नाक के बीचोबीच खिसक आती है और वे बार-बार उसको उपर चढ़ाते हुए फटे-पुराने रिजेक्टेड पतलुनों और कमीज़ों को एक बार फिर उनकी प्रतीष्ठा वापस दिलाने की जिद्द में उन पर मशीन चलाए जा रहे हैं. वे लोग भी उनके सामने खड़े हैं जो सुइयों से बिंधे कपड़ों से ख़ुद को ढंकना चाह रहे हैं. साथ वाले दिल्ली विद्युत बोर्ड के ट्रांसफ़र्मर के नजदीक हहा रहे स्टोव पर पतीले में चाय अपनी पूरी उबाल पर है. छोटू पतीले और गिलास के बीच छन्नी लगा चुका है. आसपास खड़े कुछ लोग गिलास को मुंह में सटाकर सुउउ... भी करने लगे हैं.
अभी-अभी कपड़ों का गट्ठर लादे एक ठेला वहां आकर रुका है. कंधे से अंगोछा उतारते के साथ ठेलेवाला ‘एक ठो चाय दे छोटू’ कहकर बेंच पर पसर गया है. आसपास खड़े लोग अपना-अपना कपड़ा पहचानकर ठेले पर रखे गट्ठर में से खींचने लगते हैं. बग़ल में दो-तीन लोग लंबे-से सुए में बहुत लंबी सुतली डाले गेंदे के फूल और अशोक के पत्ते को बारी-बारी से गूंथ रहे हैं. सामने शिवालय मंदिर का घंटा टनटाने लगा है. बग़ल की दुकान से प्रसाद और फूल लेकर औरत-मर्दों की टोली उस ओर बढ़ रही है. चांदनी चौक की तरफ़ जाने वाली सड़क पर वीरानी-सी छायी हुई है. भीड़-भाड़ और अफ़रातफ़री में डूबा रहने वाला बाज़ार नि:शब्द पड़ा है. दुकानों के शटर बंद हैं. बाहर फ़र्श पर पिछली रात ढेर हुई जिंदा लाशों की टोली अब भी क़तारबद्ध है. आंखों में लाली संजोए बहादुर डंडा पटकता बाज़ार से बाहर निकल रहा है. उसकी सीटियां थक चुकी हैं लेकिन लगता है उसके डंडे में अब भी दम बाक़ी है. कुछ दुकानों के आगे लगे नल पर कुछ लोग नहा रहे हैं जबकि कुछ फ़र्श पर अपने कुर्तों में बड़ी तल्लीनता से साबून की घिसाई में व्यस्त हैं. जिया बैंड वाली लेन में एक उम्रदराज़ महिला इस्त्री कर रही हैं. कोने वाले मंदिर में कानी आंख वाले पंडिजी भगवानों को पाइप से स्नान करवा रहे हैं. अख़बार वाले ने अभी-अभी सामने वाली शटर के नीचे से ‘पंजाब केसरी’ अंदर खिसका दिया है. पीछे शौचालय के बाहर बीड़ी की कश लगाते हाथ में डिब्बा लिए नौजवान का धैर्य जवाब दे चुका है. बेल्ट की बकल खोलता हुआ वो अब एक तरफ़ से सभी दरवाज़ों को खटखटा रहा है.
लगभग आठ बज रहे हैं. आदर्श बाबू इस समय एक स्टॉल के पास खड़ा होकर सुस्ता रहे हैं. साथ में सहकर्मी समर्पिता भी हैं. असल में, आदर्श बाबू पिछले पांच दशकों में बाज़ार में हुए भौगोलिक और भौतिक परिवर्तनों को समझने के लिए बाज़ार के एक अदद नक़्शे की तलाश में थे. बहुत छान मारी उन्होंने अभिलेखागारों और सरकारी दफ़्तरों की. कहीं बात
....और इस तरह सागर नाहर भारत के महानतम ब्लॉगरों में गिने जाने लगे। :)
नहीं बनी लिहाज़ा थक-हार कर ख़ुद ही नक़्शानबीसी करने पहुंचे हैं आज. समर्पिता दिल्ली विश्वविद्यालय में भूगोल की शोधार्थी हैं, थोड़ा-बहुत सउर हैं उन्हें नक़्शे का. इसीलिए समर्पिता मदद करने आयीं हैं आदर्श बाबू की. ‘थैंक्यू यार, बहुत मेहनत की आज तुमने मेरे साथ. चलो, अब तो मैं भी कर सकता हूं ये काम. वैसे भी एक दिन में तो होगा नहीं. कई राउंड लगाने पड़ेंगे बाज़ार के.’ आदर्श बाबू ने समर्पिता का धन्यवाद ज्ञापन किया. ‘अच्छा तो आप रुकेंगे अभी यहां ?’ समर्पिता ने आदर्श बाबू से पूछा. ‘हां’ कहा आदर्श बाबू ने. ‘तो मैं चलती हूं, मुझे डिपार्टमेंट जाना आज. मेरे सुपर्वाइज़र ने बुलाया है.’ कहकर समर्पिता ने चश्मे पर चढ़ आयी धूल को अपने दुपट्टे से साफ़ किया और ‘बाय’ कहती हुई आगे बढ़ गयीं.आदर्श बाबू टहलते हुए बाज़ार के सामने आ चुके थे. लाल बत्ती से लेकर प्रेज़ेन्टेशन कॉन्वेंट के गेट तक सड़क पर लोग क़तारबद्ध बैठे थे. आदर्श ने ऐसा पहली बार देखा था लिहाज़ा वे इसकी वजह जानने के लिए पीछे से किसी के कंधे पर हाथ रखते हुए पूछा, ‘क्या बात है, क्यों बैठे हैं आपलोग यहां ?’ ’ये मत पूछ कि क्यों बैठे हैं. तूझे भी रोटी खानी है? आज जा लाइन में.’ जवाब मिला. स्पष्ट हो गया कि सामूहिक भोजन का प्रबंध है. आदर्श बाबू ने अपने सिर पर हाथ रखा ही था कि लाल बत्ती की ओर से कुछ पगड़ीधारी सिख नौजवान और सिर पर दुपट्टा डाले महिलाएं ट्रॉली के साथ-साथ आगे की ओर आती दिखीं. पहले महिलाएं पांत में बैठे लोगों की हथेलियों पर रोटी रखतीं और फिर बाद में नौजवान उन रोटियों पर सब्ज़ी या दाल रखते. यह सिलसिला बिना किसी अफ़रातफ़री के क़तार में बैठे अंतिम व्यक्ति को भोजन मिलने तक चलता रहा. ठिठुरन भरी ठंड हो या मुसलाधार बरसात, शीशगंज गुरुद्वारे की लंगड़ की ये ट्रॉली हर रोज़ यहां पहुंचती है. आसपास के ग़रीब-गुर्बे और फुटपाथ पर गुज़र-बसर करने वाले लोग सुबह की रोटी यहां खाकर रात की रोटी कमाने शहर में निकल जाते हैं. इस वक़्त आदर्श बाबू के लिए ये व्यवस्था दुनिया के आठवें आश्चर्य से कम नहीं है. उन्होंने तो नवरात्रों और हनुमान जयंती जैसे अवसरों पर सड़कों या मंदिरों के किनारे तीन-चार घंटे तक चलने वाले विशाल भंडारे में आलू की सब्ज़ी के साथ चार कचौडियां ही बंटते देखी थी. आदर्श आज भोजन-वितरण कार्यक्रम देखकर सिक्खों के सेवा भाव का कायल हुआ जा रहे थे. आज अनायास उन्हें पिछली जुलाई का वो दिन याद आ रहा है जब सिक्खों का एक झूंड ऑल इंडिया मेडिकल इंस्टीट्यूट के मेन गेट के दुसरी तरफ़ शरबत बांट रहा था, रूहआफ़जा की तीसरी गिलास गटकने के बाद गर्दन उचका कर अंदर से आती डकार को धीरे-से बाहर छोड़ते हुए उन्होंने बड़े हल्केपन से पूछा था, ‘आज कौन से गुरुजी का जन्मदिन है?’ ‘जन्मदिन नहीं तेज़ गर्मी है’ सुनकर ऐसा झेंपे थे कि ज़मीन मे सिर गाड़कर वहां से सरकते हुए भी उन्हें जलालत महसूस हो रही थी.
bahut badhiya kahani hai . dhanyawad.
ReplyDeletebahut badhiya kahani hai . dhanyawad.
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