8.7.08

विनायक सेन को रिहा करो

विनायक सेन को रिहा करो
विरोध के अधिकार की रक्षा करो

दिसम्बर 2007 को अन्तर्राष्ट्रीय मानवाधिकार दिवस 10 दिसम्बर के रोज़ उच्चतम न्यायालय ने डॉक्टर विनायक सेन को, जो एक डॉक्टर और मानवाधिकार कार्यकर्ता हैं, जमानत देने से इनकार कर दिया। राज्य का आरोप यह है कि वे अलग-अलग राज्यों के माओवादी समूहों के बीच एक महत्वपूर्ण कड़ी हैं। छतीसगढ़ के पुलिस प्रमुख ने भी यह कहा है कि वे ख़ुद माओवादी नहीं हैं पर वे माओवादियों की मदद कर रहे थे और वे उन्हें छूटने नहीं देंगे...अदालत ने बिना वजह बताओ उनकी जमानत की अर्ज़ी नामंजूर कर दी।
इसके कोई आठ महीना पहले डॉक्टर सेन कोलकाता में अपनी माँ से मिल कर छतीसगढ़ तब लौटे थे जब उनके कोलकाता में होते हुए छतीसगढ़ की पुलिस यह अफ़वाह उड़ा रही थी कि वह उनकी खोज़ कर रही है और वे लापता हो गए हैं। यह जानते हुए कि पुलिस उन्हें तलाश रही है और उनके भाई के यह सार्वजनिक रूप से लिख देने के बाद भी कि पुलिस उन्हें गिरफ़्तार कर सकती है, डॉक्टर सेन छतीसगढ़ वापस आए, भागे नहीं और पुलिस के पास यह जानने को गए कि उनकी खोज़ क्यों की जा रही है। वह उनकी आज़ादी का आख़िरी दिन था। मज़ेदार यह है कि पुलिस ने दावा किया कि उसने उन्हे बिलासपुर की किसी सड़क पर धर पकड़ा है। पुलिस और राज्य के झूठ के प्रचार का सिलसिला अभी भी ज़ारी है।
डॉक्टर सेन एक डॉक्टर हैं जिन्होंने जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय की अपने अध्यापन की नौकरी छोड़ कर छतीसगढ़ में आदिवासियों और गाँव वालों के बीच जा कर काम करने का फिसला किया। उनकी बीमारी की जड़ें डॉक्टर सेन को उनकी भयानक गरीबी और उनके शोषण में नज़र आईं। स्वास्थ्य को आम जन का हक बनाने और रोटी को बुनियादी हक की लड़ाई में भी वे लगे। वे राज्य समर्थित स्वास्थ्य कार्यक्रम मितानिन के सलाहकार भी थे। वे पीपुल्स यूनियन ऑफ़ सिविल लिबर्टीज़ के राज्य स्तर के महामंत्री और राष्ट्रीय स्तर के उपाध्यक्ष थे। इस रूप में उन्होंने राज्य के अलग-अलग अंगों के द्वारा किए जाने वाले मानवाधिकार के हनन का अध्ययन किया और उसके ख़िलाफ़ आवाज़ उठाई। मुठभेड़ों की असलियत पर से उन्होंने परदा उठाया। जो बात लेकिन छतीसगढ़ सरकार को सबसे बुरी लगी, वह थी उनके द्वारा सलवा जुड़ूम का विरोध। उन्होंने अपनी रिर्पोटों में बताया कि किस तरह राज्य लोगों को खुले आम हिंसा में प्रशिक्षित कर रहा है और आदिवासियों के बीच गृह युद्ध की स्थिति को लगातार बनाए रखना चाहता है। बहुराष्ट्रीय कंपनियों और देसी पूंजीपतियों के लिए छतीसगढ़ की ज़मीन और उसके भीतर छिपी अपार ख़निज संपदा को लूटने के लिए सरकार ने सलवा जुड़ूम का सहारा लिया है। इसके लिए राज्य जिस तरह से राजकीय रिकॉर्ड को तोड़-मरोड़ रहा था, डॉक्टर सेन उसका भी पर्दाफा़श कर रहे थे। पीपुल्स यूनियन ऑफ़ सिविल लिबर्टीज़ के नेता के रूप में डॉक्टर सेन की ये गतिविधियाँ सरकार के लिए ख़तरनाक थीं और उसके लिए यह ज़रूरी हो गया था कि किसी तरह वह उन्हें निष्क्रिय कर दे।
सरकार की मदद के लिए छतीसगढ़ विशेष जन सुरक्षा क़ानून काफ़ी उपयोगी साबित हुआ। बल्कि इस क़ानून के तहत उनकी गिरफ़्तारी एक तरह से इस क़ानून की प्रभावकारिता की जांच भी है, इसलिए राज्य और पुलिस हर तरह से डॉक्टर सेन को आरोपों से लाद देना चाहते हैं। इस क़ानून के मुताबिक किसी व्यक्ति पर इसका संदेह होना काफ़ी है कि वह राज्य विरोधी विचार रखता है भले ही वह सक्रिय रूप से उसके लिए प्रचार भी न कर रहा हो। राज्य किसे राष्ट्रीय हित माने यह उसका अधिकार बन जाता है। इस हिसाब से अगर आप बहुराष्ट्रीय कंपनियों के लिए सरकार के ज़मीन लेने के क़दम के ख़िलाफ़ कहीं कुछ लिखें या बोलें, या ऐसा कोई साहित्य आपके पास से मिले तो आप ग़ैरक़ानूनी या आपराधिक गतिविधियों में संलग्न माने जाएँगे और आप गिरफ़्तार किए जा सकते हैं। डॉक्टर सेन को यह कह कर गिरफ़्तार किया गया की वे माओवादियों से सहानुभूति रखते हैं, माओवादियों की तरह सलवा जुड़ूम के विरोधी है और वे नारायण सान्याल जैसे नक्सलवादी नेताओं की मदद कर रहे थे। सच यह है कि एक मानवाधिकार कार्यकर्ता के रूप में डॉक्टर सेन को हर तरह के व्यक्ति से मिलना ही होता। वे अधिकारियों की इजाज़त से नारायण सान्याल से मिलने जेल जाते रहे क्योंकि सान्याल काफ़ी बीमार और बुजुर्ग हैं। यह डॉक्टर सेन के कर्तव्य के दायरे में आता है। सरकारें मानवाधिकार कार्यकर्ता समूहों की मद से अतिवादी, हिंसक आंदोलनों से बातचीत करती रही हैं। अगर वे यह कहती है कि मानवाधिकार समूह सिर्फ़ उनकी मदद के लिए काम करें और उन्के अत्याचारों पर कुछ न बोलें तो क्या इसे कबूल किया जा सकता है?
छतीसगढ़ की संपदा पर देसी विदेशी पूँजी की आँख गड़ी है। जन आंदोलनों को हर तरह से कुचल देने और निष्क्रिय कर देने में राज्य उनके लठैत की तरह काम कर रहा है। यह हो रहा है छतीसगढ़ में, बंगाल में, उड़ीसा में, महाराष्ट्र में, हरियाणा में... लगभग हर दल इसमें एक साथ हैं। इस हिसाब से भी मानवाधिकार समूहों की अहमियत बढ़ जाती है क्योंकि वे ही बच जाते है आम आदिवासी, साधारण ग्रामीण, छोटे किसीन या छोटे व्यापारियों, खोमचे वालों, रेड़ीवालों की और से बोलने वाले। इसलिए अब सरकारें डॉक्टर सेन, हिमांशु भाई, शमीम, जानू, रोमा जैसे मानवाधिकार कार्यकर्ताओं को माओवादी कह कर ठंड़ा कर देना चाहती हैं। क्या हम जनता की इन आख़िरी आवाजों को भी खमोश हो जाने देंगे? डॉक्टर सेन कि रिहाई की लड़ाई इसी बात का इम्तहान है। उनकी रिहाई का मतलब है छतीसगढ़ जन सुरक्षा क़ानून जैसे क़ानून का विरोध। क्या हम इस काम में ढिलाई बारात सकते हैं? यह सवाल सिर्फ़ डॉक्टर सेन कि आज़ादी का नहीं, हिन्दुस्तान की जनता के अपने ढंग से जीने का रास्ता चुनने, अपने सोचने का तरीका तय करने कि आज़ादी का भी है।

डॉ. विनायक सेन की रिहाई के लिए नागरिक समिति, 125, शाहपुर जाट, नई दिल्ली-110049 की ओर से प्रकाशित

3 comments:

  1. kya kahen bhai?

    office me hun aur bahut nind aa rahi hai.. :(

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  2. राकेश जी,

    बहुत सा सच है जो आपके लिखे शब्दों से इतर भी है...मैं बस्तर अंचल में एसी दखलंदालियों के भी खिलाफ हूँ जो हाई-प्रोफाईल एक्टिविजम के नाम पर आदिमों के साथ खिलवाड है और उनका शोषण है। एक दबी कुचली आवाज है कि बस्तर को नक्सलियों और माओवादियों से रिहा करो...है कोई कलमकार जिसमे इतना पानी हो कि यह आवाज बुलंद करे? खैर आदिमों के मानवअधिकार हैं क्या?

    ***राजीव रंजन प्रसाद

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  3. Dear Rakesh,
    yeah, went through your article and rajiv's comment, also.
    every movent has some ideology and that is spreaded by intellectual and elites, only. moreover, to save ecology, traditional wisdom, protect the right of peoples, voices are raising against the regime in developing society. so, it ois ovious to find vinayaks, vandanas, meghas and sandips in the flamong fields . since media and civil liberty groups do watch and give space to their concerns, they are ought to be high profile activist.
    but, we must take a side which is for their genuine cause and should express our solidarity..

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