9.7.08

योर ऑनर, दिज़ आर माई आर्ग्‍यूमेंट्स

चन्द्रा निगम पेशे से वकील हैं. दिल्ली में वकालत करती हैं और विभिन्न सामाजिक मसलों पर सक्रिय भी रहती हैं. उनके ब्लॉग से साभार ये पोस्ट साझा कर रहा हूं. कोर्ट-कचहरी की रोज़मर्रा को समझने में शायद ये मददगार हो.


20 अक्टूबर को तीस हज़ारी स्थित मेरे दफ़्तर में एक नोटिस आया. पता चला मुझे आईपीसी 376 यानी बलात्कार के एक मामले में एमिकस क्यूरे नियुक्त किया गया है. आरोपी रामकुमार 13 मई 2007 से तिहाड़ में बंद हैं. 22 अक्टूबर 2007 तक उन्हें कोई वकील नहीं मिला था.
22 अक्टूबर 2007. समय तक़रीबन 11 बजे. रोहिणी जिला अदालत. पहली बार रामकुमार से मिलना था. सेशन जज एस अग्रवाल की अदालत (कमरा नं. 308) पहुंची. एक दुबला-पतला सांवला-सा व्यक्ति, देखकर लगा था जैसे पचपन पार का हो. बाद में पता चला पचास के आसपास का है. डीएपी का एक जवान अपनी दायीं हाथ से रामकुमार की बायीं हाथ पकड़े अदालत में लगी कुर्सियों की आखिरी क़तार में कोने पड़ी एक कुर्सी पर बैठा था और रामकुमार फर्श पर. पीछे गयी और उनसे कहा, ‘रामकुमार घटना के बारे में थोड़ी जानकारी दो’. इतना सुनते ही उनकी आंखें छलक उठी. फफकते रहे, बोले कुछ नहीं. कुछ देर तक बिल्कुल नहीं बोले. बार-बार पूछने पर उन्होंने बस इतना ही कहा, ‘मेरी पत्नी और साढू ने मिलकर मुझे फंसाया है’.
20 अक्टूबर को तीस हज़ारी स्थित मेरे दफ़्तर में एक नोटिस आया. पता चला मुझे आईपीसी 376 यानी बलात्कार के एक मामले में एमिकस क्यूरे नियुक्त किया गया है. आरोपी रामकुमार 13 मई 2007 से तिहाड़ में बंद हैं. 22 अक्टूबर 2007 तक उन्हें कोई वकील नहीं मिला था.
22 अक्टूबर 2007. समय तक़रीबन 11 बजे. रोहिणी जिला अदालत. पहली बार रामकुमार से मिलना था. सेशन जज एस अग्रवाल की अदालत (कमरा नं. 308) पहुंची. एक दुबला-पतला सांवला-सा व्यक्ति, देखकर लगा था जैसे पचपन पार का हो. बाद में पता चला पचास के आसपास का है. डीएपी का एक जवान अपनी दायीं हाथ से रामकुमार की बायीं हाथ पकड़े अदालत में लगी कुर्सियों की आखिरी क़तार में कोने पड़ी एक कुर्सी पर बैठा था और रामकुमार फर्श पर. पीछे गयी और उनसे कहा, ‘रामकुमार घटना के बारे में थोड़ी जानकारी दो’. इतना सुनते ही उनकी आंखें छलक उठी. फफकते रहे, बोले कुछ नहीं. कुछ देर तक बिल्कुल नहीं बोले. बार-बार पूछने पर उन्होंने बस इतना ही कहा, ‘मेरी पत्नी और साढू ने मिलकर मुझे फंसाया है’.
मैंने उनसे पूछा कि अगर मैंने उनकी जमानत की अर्जी लगाई तो कोई उनकी जमानत लेने आ जाएगा? उन्होंने कहा, ‘13 मई से तिहाड़ में हूं, कोई मिलने तक नहीं आया, कैसे कहूं कि कोई जमानत लेने आ जाएगा! मुझे अपनी पत्नी और बेटों से तो कोई उम्मीद नहीं है, पर शायद मेरे बेटी दामाद कुछ कर सकें. लेकिन उन्हें तो पता भी नहीं कि मैं जेल में बंद हूं. लेकिन चलो, मैं चिट्ठी डालूंगा उनके पास.’
रामकुमार की बेटी नीलम और उनकी पत्नी पहली बार 6 नवंबर को मेरे तीस हज़ारी वाले चैंबर में आयीं. मैंने उनसे पूछा कि वे रामकुमार से मिलने क्यों नहीं जाते हैं? नीलम ने कहा, ‘आज हम जेल गए थे और सीधा वहीं से आ रहे हैं. मुझे तो पता ही नहीं था कि मेरे पापा जेल में हैं. मुझे तो तीन-चार दिन पहले ही ये बात मालूम हुई.’ नीलम की मां ने बताया कि वो काम में व्यस्त होने के कारण अपने घरवाले से मिलने नहीं जा सकी. मैंने मुकदमे से संबंधित ज़रूरी दरियाफ़्त के बाद उन लोगों को जाने के लिए कहा. तीन-चार मिनट बाद ही नीलम वापस आयी और रोते हुए बोली, ‘बस मैडम, आप मेरे पापा की जमानत करवा दीजिए. मुझे पता है कि मेरे पापा बेकसूर हैं. मेरी मां, मौसा और संजीरा (जिसने रामकुमार पर बलात्कार का आरोप मढा था) ने मिलकर उन्हें फंसाया है.

तीन-चार मिनट बाद ही नीलम वापस आयी और रोते हुए बोली, ‘बस मैडम, आप मेरे पापा की जमानत करवा दीजिए. मुझे पता है कि मेरे पापा बेकसूर हैं. मेरी मां, मौसा और संजीरा (जिसने रामकुमार पर बलात्कार का आरोप मढा था) ने मिलकर उन्हें फंसाया है. उसने आगे बताया, ‘जब से मैंने होश संभाला है मेरी मम्मी हमेशा मौसा के पास ही रहती रही है, हमारे घर तो कभी-कभार ही आती है. तकरीबन आठ-दस मिनट तक उसने मुझसे बातचीत की. पूरी बातचीत के दौरान उसके गालों पर आंसू ढलकते रहे. उसने बताया कि वो जान-बूझकर अपनी मम्मी को छोड़कर वापस आयी है. मम्मी के सामने वो ये बातें नहीं कर सकती थी.’
मैंन उसे ढाढस बंधाया और कहा, ‘चलो, मैं रामकुमार की जमानत की अर्जी कल ही लगा दूंगी’. वो चली गयी. चूंकि ये 376 आइपीसी (बलात्कार) के मामले में मेरी पहली जमानत थी, सो मैंने रामकुमार की फाइल को दो मर्तबा पूरी तरह पढ़ा और अपने सहकर्मी और फौजदारी मामलों के जानकार जतीनजी से भी रायशुमारी की. अगले दिन मैंने रामकुमार की जमानत की अर्जी दाखिल कर दी. बहस के लिए ता‍रीख़ लगी 14 नवंबर 2007. मुकर्रर तारीख़ पर ठीक 2 बजे मैं अदालत पहुंच गयी. भोजनावकाश के बाद जज साहब अपनी कुर्सी पर विराज चुके थे और काम शुरू हो गया था. सवा दो बजे अर्दली ने रामकुमार का नाम पुकारा. सुनते ही मैं जज साहब के सामने खड़ी थी और मेरे हाथ में लगी रामकुमार की फाइल खुल चुकी थी. अदालत-कर्मियों के अलावा समूचा कोर्ट वकीलों, मुवक्किलों और पुलिस वालों से खचाखच भरा था. मेरे और स्टेनो के अलावा ख़ास तरह की मर्दों की दुनिया थी वह. जज साहब बोले, ‘जी वकील साहिबा, बोलिए आपका क्या कहना है इस मामले में?’ मैंने तकरीबन 5-7 मिनट तक जमानत की अर्जी पर अपनी दलील दी. हालांकि कुछ बातें मेरे ज़हन में ही दबी रह गयी. चाहकर भी पता नहीं क्यों नहीं बोलने का हिम्मत नहीं जुटा पायी मैं! इतना ही कह पायी कि ‘योर ऑनर रामकुमार की मेडिकल रिपोर्ट देखें, हमारे खिलाफ़ कुछ भी नहीं है इसमें.’ जज साहब शायद मेरी दलील से सहमत नहीं थे. मुझे भी इसका आभास हो चुका था. उन्होंने मुझसे कहा, ‘वकील साहिबा, आप अर्जी पर ऑर्डर चाहती हैं या विड्रॉ करना चाहती हैं इसे?’ मैंने कहा, ‘यॉर ऑनर, मैंने अर्जी ऑर्डर के लिए ही लगायी है, विड्रॉ करने के लिए नहीं.’ जज साहब ने भौंए तानीं और कहा, ‘तो मैं इसे डिसमिस कर रहा हूं.’ मैंने उनकी बात लगभग काटते हुए कहा, ‘यॉर ऑनर, गिव मी अ शॉट डेट फॉ़र फ़रदर आर्ग्यूमेंट.’ जज साहब ने अपने रजिस्टर के पन्ने पलटे और तारीख़ मुकर्रर की 22 नवंबर 2007. मैं मुंह लटकाए अदालत से बाहर आ गयी. मुंह लटकाकर इसलिए कि मुझे पता था कि ग़लती कहा हुई थी. शायद एहसास था इसीलिए अगली तारीख़ मांग ली थी. ऐसा न होता तो विड्रॉ कर लेती या डिसमिस करवा लेती अगली (उंची) अदालत के लिए. बाहर आते ही जतीनजी को फोन मिलाया, सर नहीं मिली बेल. शायद उन्हें भी एहसास था कि मैं बेल क्यों नहीं ले पायी. लेकिन साथ ही उन्हें मैंने ये भी बताया कि मैंने फ़रदर आर्ग्यूमेंट के लिए एक शॉर्ट डेट ले ली है.
अगली तारीख़. 22 नवंबर 2007. अदालत पहुंची. नज़ारा पिछली तारीख़ जैसा ही. वही मर्दों की दुनिया. मैं और स्टेनो, केवल दो औरतें. भोजनावकाश के बाद फिर से अर्दली की पुकार. रामकुमार का नाम. जज साहब के सामने मैं और हाथ में खुल चुकी फ़ाइल. बेझिझक,पूरे आत्मविश्वास के साथ बहस करने लगी. औरत-मर्द का भेद भुलाकर. इस बार तक़रीबन 20-25 मिनट बहस चली. जो दलीलें पिछली तारीख़ पर मैं नहीं दे पायी थी, हिम्मत बटोर कर पेश की. आगे बढ़ कर और ज़्यादा. वे सारे त‍थ्य मैंने जज साहब के सामने रख दिए जो पिछली मर्तबा लाज के मारे नहीं रख पायी थी. तमाम दलीलें पेश कर चुकने के बाद मैंने कहा, 'योर ऑनर, दिज़ आर माई आर्ग्यूमेंट्स.

नज़ारा पिछली तारीख़ जैसा ही. वही मर्दों की दुनिया. मैं और स्टेनो, केवल दो औरतें. भोजनावकाश के बाद फिर से अर्दली की पुकार. रामकुमार का नाम. जज साहब के सामने मैं और हाथ में खुल चुकी फ़ाइल. बेझिझक,पूरे आत्मविश्वास के साथ बहस करने लगी. औरत-मर्द का भेद भुलाकर. इस बार तक़रीबन 20-25 मिनट बहस चली. जो दलीलें पिछली तारीख़ पर मैं नहीं दे पायी थी, हिम्मत बटोर कर पेश की. आगे बढ़ कर और ज़्यादा. वे सारे त‍थ्य मैंने जज साहब के सामने रख दिए जो पिछली मर्तबा लाज के मारे नहीं रख पायी थी. तमाम दलीलें पेश कर चुकने के बाद मैंने कहा, 'योर ऑनर, दिज़ आर माई आर्ग्यूमेंट्स.


इस बार जज साहब ने मुझसे तो ये पूछा कि अर्जी विड्रॉ करनी है या ऑर्डर लेना है या ये ही कहा कि वो डिसमिस कर रहे हैं मेरी अर्जी. उन्होंने कहा, ‘योर बेल ऐप्लिकेशन इस रिजर्व्ड फ़ॉर ऑर्डर. शाम चार बजे ऑर्डर पता कर लीजिएगा’.
मैं रोहिणी अदालत परिसर छोड़ चुकी थी. मेट्रो से तीस हज़ारी लौटते वक़्त बार-बार सोचती रही कि आज तो कोई कसर नहीं छोड़ी मैंने. शायद रामकुमार बाहर जाए.
अपने चैंबर में आकर दो गिलास पानी पिया. डायरी में अलगे दिन के केसेस देखे. क्लर्क से कहा, ‘कल दोपहर बाद रोहिणी जाकर 308 नं. से रामकुमार वाले केस का ऑर्डर पता कर लेना’. अगली शाम पता चला, रामकुमार को जमानत मिल चुकी थी

1 comment:

  1. yes, chandra jee( i mean Rakesh bhai)...still it is men's world.
    judiciary also speaks the language of masculinity. but women are also coming ahead to lead from the front in every walks of social life and have given befitting reply to men chauvinists.

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