20.7.08

गुप्‍त प्रसंग खुले में ...


पेश है शुद्धब्रत सेनगुप्ता के लेख अकथ कथन अर्थात ज़ेहन के गुप्त रोग की चौथी किस्त. इस श्रृंखला के बीच 'मोहनदास' पर बहस आरंभ करने के लिए माफ़ी, पर वो भी ज़रूरी था. आगे ऐसे अवरोध होते रहेंगे.

ऐसी सूरत में ज़िस्म और उसके अहसासात के बारे में बातचीत करना मुश्किल होता चला जाता है। इसीलिए मुझे हैरत है

अगर सेक्शुअलिटी और शारीरिक अभिव्यक्ति की भाषा रोज़मर्रा के जीवन का हिस्सा होते और उन पर खुलकर बात हुआ करती तो लोगों के दिमाग़ में ऐसे अंधेरे कोने ढूँढ़ना मुश्किल हो जाता जहाँ यहाँ-वहाँ हाथ मारने के ये इरादे पैदा होते हैं। उस स्थिति में ‘कमज़ोरी’ और ‘ताक़त’ जैसे साधारण शब्दों के इर्द-गिर्द कोई एक अर्थपूर्ण यौन भाषा रचना मुश्किल हो जाता।

कि वाणी अपने ज़िस्म को आवाज़ देने के लिए इतनी हिम्मत कैसे जुटा लेती है। (अगर आप समकालीन हिन्दी पॉर्न पत्र-पत्रिकाओं, किताबों को पढ़ें तो उनमें शरीर के अंगों को आमतौर पर संस्कृतनिष्ठ भाषा में व्यक्त किया जाता है। इन शब्दों को देखकर मुझे फ़ौरन क़ामिल बुल्के की शरण लेनी पड़ती है और उससे भी काम नहीं चलता तो मैं मोनियर विलियम्स की पनाह में जाता हूँ) मैं सोचता हूँ कि क्या वाणी सचमुच वाणी है, क्या सुख की उसकी शरीरहीन अभिव्यक्ति कुछ आहों-कराहों, फुसफुसाहटों, ख़ामोशियों, सीत्कारों के दौरों और मुट्ठी भर डॉक्टरी प्रेस्क्रिप्शनों से आगे जा पाती होगी? अगर सेक्शुअलिटी ही वह पुल है जो ज़िस्म को ख़यालों से जोड़ता है (क्योंकि यौन संबंधी विचार आमतौर पर ज़िस्म के भीतर-बाहर जिस्मानी तौर पर ही व्यक्त होते हैं) तो जिस शब्दावली के ज़रिए हम अपने ज़िस्म के बारे में बात कर सकते हैं, उसका पतन हमारे काम-विषयक स्वत्व को भी भाषा के दायरे से बाहर कर देता है और हमारे ख़यालों को दरिद्रता की गर्त में जा पटकता है। मेर ख़याल में तो यह ख़ामोशी ही शायद सबसे बड़ा गुप्त रोग है। यौन अधूरेपन के हर अहसास और नपुंसक आक्रोश की हर अभिव्यक्ति की जड़ इसी में है। शरीर क्या महसूस कर रहा है, इस बात को ज़ाहिर कर पाने में नाक़ामी आपसी संवाद को पूरी तरह ध्वस्त कर कर सकती है। और ऐसी मुठभेड़ की हर मिसाल, जिसमें ग़ैर-रज़ामंद सेक्शुअलिटी के तत्व साफ़ दिखाई देते हैं, इसी ध्वंस का उदाहरण है और इन्ही पर ताक़त व वर्चस्व की वह नींव खड़ी होती है जो दूसरे के शरीर पर अपनी छाप छोड़ कर सुकून पाती है। जो संवाद सामान्य रूप से नहीं क़ायम हो सकता या आगे नहीं बढ़ सकता उसे आगे बढ़ाने के लिए ताक़त के अलावा संभवतः और कोई साधन नहीं बचता। शायद इसी कारण दिल्ली पुलिस के साहेबान (जो ‘हमारे लिए हमारे साथ, हमेशा’ रहते हैं) शहर के पार्कों या जंगल-झाड़ियों में हाथ लग जाने वाले समलैंगिक पुरुषों के साथ यौन संबंधों की इच्छा को रोक नहीं पाते। या संभवतः इसीलिए, जब कोई औरत ज़ोर-ज़बर्दस्ती या बलात्कार की शिकायत दर्ज़ कराने पुलिस के पास जाती है तो उसके सामने दोबारा उसी हादसे से गुज़रने की आशंका पैदा हो जाती है। बात ये नहीं है कि पुलिस वालों के हॉर्मोन्स की मिक़दार या बनावट कुछ बेहतर होती है, मामला महज़ इतना है कि ये ऐसे मौक़े होते हैं जब गुप्त प्रसंग खुले में आ जाने की दहलीज़ पर खड़े होते हैं और दमन की बुनियाद पर खड़े माहौल में उनसे निपटने का एकमात्र रास्ता यही बचता है कि हिंसा की एक ख़ुराक दे दी जाए।
अगर कुछ देर के लिए सेक्स की जगह भोजन को रख दिया जाए तो इस परिस्थिति का बेतुकापन स्पष्ट हो जाएगा। माल लीजिए कि भोजन और ख़ाना ख़ाने की क्रिया, ये सब गुप्त प्रसंगों के दायरे में आते हैं। ऐसी सूरत में मिल-बाँटकर खाना ख़तरनाक साबित हो सकता है। तब खाना खुले में नहीं दिखाई देगा और भूख की सार्वजनिक अभिव्यक्ति को बेहद उत्तेजक व्यवहार की श्रेणी में रखा जाएगा। ऐसे हालात में दुष्ट तत्व घर के दरवाज़े तोड़कर खाने पर टूट पड़ेंगे या फिर अपने खाने की सार्वजनिक तौर पर नुमाइश लगाएँगे। ऐसे में भोजन का निषेध या किसी को ज़बरन खाना खिलाना दूसरों की देह पर अपनी ताक़त आज़माने का ज़रिया बन जाएगा। पेटुओं की तरह खाना और अखाद्य पदार्थों से खिलवाड़ कैसी थकेली तृप्ति देगा, हम समझ सकते हैं।
दिल्ली की बसों में दस्तदराज़ी करने वाले लफ़ंगे या रात में अकेले पैदल जा रही औरत का क्वालिस में बैठ पीछा करने वाले इसी गुप्त रोग के लक्षणों से पैदा मौक़ों का फ़यदा उठाते हैं। अगर सेक्शुअलिटी और शारीरिक अभिव्यक्ति की भाषा रोज़मर्रा के जीवन का हिस्सा होते और उन पर खुलकर बात हुआ करती तो लोगों के दिमाग़ में ऐसे अंधेरे कोने ढूँढ़ना मुश्किल हो जाता जहाँ यहाँ-वहाँ हाथ मारने के ये इरादे पैदा होते हैं। उस स्थिति में ‘कमज़ोरी’ और ‘ताक़त’ जैसे साधारण शब्दों के इर्द-गिर्द कोई एक अर्थपूर्ण यौन भाषा रचना मुश्किल हो जाता। दूसरों पर हावी होने के लिए उनकी सेक्शुअलिटी पर सोचा-समझा हमला बोलने की क्रिया भी सत्ता व अतिक्रमण के प्रदर्शन के लिए कामुक उत्तेजना के तत्वों से वंचित होती।

1 comment:

  1. आपके अन्तिम पैरा की बात मैंने ओशो के टेपों में भी सुनी थी.............. पर हजम नहीं कर पाया था ........... भोजन के मेटाफर से न सिर्फ़ समझ पाया बल्कि रिलेट भी कर सका........... आभार

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