24.7.08

वैष्‍णव जन आखेट पर निकले हैं

इलाहाबाद निवासी अंशु मालवीय जाने-माने हमउम्र रचनाकार हैं. कविता, कहानी, संस्मरण, यात्रा वृत्तांत रिपोर्टाज ... : तमाम विधाओं में रचते-बसते रहते हैं. उनकी सामाजिक प्रतिबद्धता हरदम उनकी साहित्यिक प्रतिबद्धता से दो-दो हाथ करती रहती है या फिर दोनों एक-दूसरे से जीने की ताक़त पाते हैं. किसानों की आत्महत्याओं पर उनकी कविताएं हों या फिर मोदी के गुजरात में हुए जनसंहार पर: एक-एक रचना उनके सामाजिक सरोकार की गवाही है. 2002-03 में 'गुजरात' के तुरन् बाद छपी 'क़ौसरबानों की अजन्मी बिटिया की ओर से' और 'वैष्णव जन आखेट पर निकले हैं'की दुनिया भर में चर्चा हुई और कई अन्य भाषाओं में उनका अनुवाद हुआ. फिलहाल अंशु शहरी ग़रीबों के आवास के अधिकार के मसले पर उत्तर प्रदेश में सक्रिय हैं. साथ ही वे प्रो. लालबहादुर वर्मा के नेतृत्व में निकलने वाली पत्रिका 'इतिहासबोध' के संपादकीय टीम का हिस्सा भी हैं. हफ़्तावार के पाठकों के लिए पेश है अंशु के कविता संग्रह दक्खिन टोला से कुछ मेरी मनपसंद रचनाएं.

अकेले ... और ... अछूत

... हम तुमस क्या उम्मीद करते
बाम्हन देव!
तुमने तो ख़ुद अपने शरीर के
बायें हिस्से को अछूत बना डाला,
बनाया पैरों को अछूत
रंभाते रहे मां ... मां ... और मां
और मातृत्व रस के
रक्ताभ धब्बों को बना दिया अछूत
हमारे चलने को कहा रेंगना
भाषा को अछूत बना दिया
छंद को, दिशा को
वृक्षों को, पंछियों को
समय को, नदियों को
एक-एक कर सारी सदियों को
बना दिया अछूत
सब कुछ बांटा
किया विघटन में विकास
और अब देखो बाम्हन देव
इतना सब कुछ करते हुए
आज अकेले बचे तुम
अकेले ... और ... अछूत.

वास्‍तविक जीवन की भाषा

हम गांव
अव‍धी बोलते थे
पढ़ते हिन्‍दी में थे,
शहर आए तो
हिन्‍दी बोलने लगे
और पढ़ने लगे अंग्रेज़ी में.
रिश्ते-नाते
दरद-दोस्त हिन्‍दी में
कागज-पत्तर बाबू-दफ़्तर
सब अंग्रेज़ी में;
बड़ा फ़र्क हो गया हमारे वास्‍तविक जीवन की भाषा
और बौद्धिक जीवन की भाषा में.

वे प्रचार करते थे हिन्दी में
हम वोट देते थे
रोज़मर्रा की जिन्दगी की चिन्‍हानी पर,
वे करोड़ों के खर्च पर चलने वाली संसद में
चंद लोगों की भाषा बोलते थे,
बड़ा फ़र्क है गण और तंत्र की भाषा में.

हम काम करते हैं,
एक हाथ को पड़ती है दूसरे की ज़रूरत,
हर हाथ बोलता है करोड़ों हाथों की भाषा में,
जिस भाषा में बनती है उत्पादन की सामूहिक कविता
जो कुछ लोगों के फ़्रेम में जड़ दी जाती है.
स्वतंत्रता और विविधता के पक्षधर
हज़ारों लाखों भाषा-बोलियों को मार कर रचते हैं
अन्‍तर्राष्‍ट्रीय भाषा.

बड़ा फ़र्क है पैदा करने और खाने की भाषा में
'हैय्या हो' बाहर बैठा दिया जाता है दरवाज़े के
और अघाई हुई डकारें
हमारी वास्‍तविक राष्‍ट्रभाषा बन जाती हैं.

वैष्‍णव जन

वैष्णव जन
आखेट पर निकले हैं!
उनके एक हाथ में मोबाइल है
दूसरे में देशी कट्टा
तीसरे में बम
और चौथे में है दुश्‍मनों की लिस्‍ट.

वैष्‍णव जन
आखेट पर निकले हैं!
वे अरण्‍य में अनुशासन लाएंगे
एक वर्दी में मार्च करते
एक किस्म के पेड़ रहेंगे यहां.

वैष्‍णव जन
आखेट पर निकले हैं!
वैष्‍णव जन सांप के गद्दे पर लेटे हैं
लक्ष्‍मी पैर दबा रही हैं उनका
मौक़े पर आंख मूंद लेते हैं ब्रह्मा
कमल पर जो बैठे हैं.

वैष्‍णव जन
आखेट पर निकले हैं!
जो वैष्‍णव नहीं होंगे
शिकार हो जाएंगे ...
देखो क्षीरसागर की तलहटी में
नसरी की लाश सड़ रही है.

No comments:

Post a Comment