18.7.08

मोहनदास: जितनी अच्छी कहानी, उतनी घटिया फिल्म

पिछले अगस्त में यश भाई (मालवीय) आए थे. तब नागासाकी और हिरोशिमा की बरसी पर युद्धोन्माद के खिलाफ़ तिमारपुर में एक काव्य गोष्‍ठी हुई थी. यश भाई ने उस गोष्‍ठी में अन्य गीतों और कविताओं के अलावा 'नदी में ये चंदा किसे ढूंढता है ...' सुनायी थी. तब उन्होंने ये बताया था कि ये गीत उदयप्रकाश की कहानी 'मोहनदास' पर आधारित फिल्म 'मोहनदास' के लिए लिखा है. अगर ठीक-ठीक याद हो तो उन्होंने ये कहा था इसकी रिकॉर्डिंग भी हो चुकी है.
बहरहाल, कल सिरीफ़ोर्ट ऑडिटोरियम में ओसियान फिल्म समारोह के दौरान मोहनदास देखने के बाद मेरे मन में जो सवाल कुलबुला रहे हैं, मैं उन्हें यहां आपसे बिन्दुवार साझा कर रहा हूं.


1. फिल्म में पात्रों के चयन को देखकर निर्देशन बेहद कमज़ोर लगी. नाम याद नहीं कि मोहनदास का किरदार किन्होंने निभाया है, पर मेरी राय है कि वो पूरी फिल्म के सबसे ढीले पात्र रहे हैं. मोहनदास की भूमिका तो कहीं से भी उन पर नहीं जम रही थी. मध्यप्रदेश के किसी पिछड़े से गांव का एक ग़रीब दलित जिसका घर का ख़र्चा हाट-बाज़ार में बांस की बुनी हुई टोकरी बेचकर चलता है, - उसके कपड़े हमेशा झकाझक कैसे रहते हैं. झकाझक ही नहीं अन्य सभी पात्रों से धवल. कितना गोरा है ये मोहनदास!

2. मोहनदास की पत्नी कस्‍तूरी बेमिसाल सुंदर है. ठुड्डी में तीन काले तिल, अरूणा इरानी की याद दिला जाते हैं. तीन तिल: यही ग्रामीण, मज़दूर दलित स्त्रियों का प्रतिनिधि चेहरा है?

3. जिस स्कूल में मोहन पढ़ता है वहां के बच्चे साफ़-सुथड़ी वर्दी तो पहन ही रहे हैं साथ में टाई भी लटक रही है बच्चों के गले में. हो सकता है निर्देशक महोदय को मध्यप्रदेश में वैसा स्कूल मिल गया होगा, अपन तो तीन बार गए नर्मदा बचाओ आंदोलन' के इलाक़े में पर कोई भी सरकारी स्कूल ऐसा नहीं दिखा.

4. दारोगाजी, कहीं से दारोगा नहीं लगते. और तो और अपने पोषाक से भी नहीं. ऐसा ढीला-ढाला मरियल दारोगा, ना जी ना. कोल माइन्स तो क्या दूर-दराज़ में रहने वाले भी ऐसे दारोगा को कभी भाव नहीं देंगे. एक तो ढीली कद-काठी उपर से अंगोछा ओढ़े : लग रहा था मानो पैसे लेकर स्कूली बच्‍चों को धमकाने का काम करता है.


5. सकारात्मक बातें भी है पात्र-चयन और पात्रों की भूमिका को लेकर. मुझे तो सबसे अच्छी भूमिका लगी स्ट्रींगर अनिल यादव (उत्तम) की. चयन भी ठीक था यहां.


और भी बातें है जो ये बताती हैं कि फिल्म कितनी कमज़ोर बनी है और निर्देशन कितना कमज़ोर है. शायद मित्रों ने थोड़ा कुरेदा तो वो भी बक दूंगा.

फिलहाल फिल्म का एक गीत सुनें जो हमारे भाई यश मालवीय ने पिछले अगस्त में पहली बार सुनाई थी.

4 comments:

  1. फ़िल्म को देखने के लिए मैं आकुल था, अब आपकी इस पोस्ट के बाद उत्साह कई हज़ार गुना कम हो गया. हमारे फ़िल्मकार ऐसा करने में महारत रखते हैं ... पता नहीं कितनी कितनी महान रचनाओं की ऐसी-तैसी हो चुकी है.

    चलिये, आपने सूचित किया. इसका धन्यवाद. और गाने में पुरुष स्वर की एन्ट्री के साथ ही ... छोड़िए, मन और दुखाना ठीक नहीं अपना ...

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  2. राकेश जी मोहनदास कहानी तो मैंने भी पढ़ी थी. फिल्म देखने की मेरी भी इच्छा थी लेकिन आपने फिल्म की समीछा कर मेरी छुधा को शांत कर दिया. धन्यवाद.

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  3. sahi kaha sir aapne,ye galtiyan mann mein koft jaga deti hai.yahi galti hamare aadarinya gulzar ji se GODAN banate waqt hui thi.jab pachhahi nasla ki gaye ke bajaye unhone parde par jarsi gaye dauda di thi...aisi galtiyon ki gunjayish kaise nikal aati hai ...pata nahi ...achchi post

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  4. तमाम कमियाँ तो आपने लिख ही दी हैं. नकुल वैद्य जिसने मोहनदास का किरदार निभाया है वो सच में मुंबई से exported मोहनदास लगता है. फ़िल्म की असल ताक़त कहानी ही है. वही फ़िल्म हो बाँधे रखती है. मज़हर कामरान शायद फ़िल्म में वो बात नहीं ला पाए जो कहानी में है. आपने लिख दिया अच्छा किया. अब फ़िल्म के रिलीज़ पर लोगों को बड़ी उम्मीदें नहीं रहेंगी जैसी हमें थी फ़िल्म देखने जाते हुए.

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