21.7.08

तनि पानी ले आव S उ बोतलवा में

तनि पानी ले आव S उ बोतलवा में के आगे पढिए ...

आज आदर्श और जवाहर के बीच ऐसे ही दुआ-सलाम हुआ. उनकी जान-पहचान ज़्यादा पुरानी नहीं है, यही कोई दो-ढाई महीने से जानते हैं दोनों एक दुसरे को. शुरुआती दो-तीन मुलाक़ातों के बाद उनकी बातचीत का शुरुआत का अंदाज़ एक-आध अवसरों को छोड़कर ऐसा ही रहा है. आज जवाहर स्वभाव के विपरीत थोड़ा परेशान दिख रहे थे. यूं तो काम का बोझ हमेशा उनके सिर पर होता है लेकिन उनके चेहरे पर खोजने पर भी शायद ही कभी दिखती है. ‘ऐ के बाड़S, तनी उ स्टूलवा खींचS हेने ... तनि पानी ले आव S उ बोतलवा में’ फरमाने के बाद अपनी पैंट की जेब में पड़ी प्रवीण की पुडिया में से दो चटकी बायीं हाथ की तर्जनी पर रखकर दायीं हाथ के अंगूठे से मसलने और चार-छह ताल पीटकर बचे-खुचे मटमैले पदार्थ को दायीं हाथ की तर्जनी के बीचोबीच समेटकर स्वागत वाले अंदाज़ में कहते हैं, ‘हई लीजिए आदर्श बाबू’. जवाहर को पता चल गया था कि आदर्श बाबू को इसमें जो आनंद मिलता है वो और किसी पदार्थ में नहीं. लेकिन आज ऐसा कुछ नहीं हुआ. आदर्श के सामने जब कभी ऐसी नौबत आती, वह बगले झांकने लगता. उसका अंतर्मन उसकी संवेदना को ललकारता ...

’क्यों, क्या हक़ है तुम्हें ऐसे किसी के काम में दख़़ल देने का ? देख नहीं रहे हो जवाहर और उसके संगी-साथी कितने परेशान है अपने काम को लेकर ...’

स्थिति भापने के बाद आदर्श वहां से निकलने का बहाना टोहने लगता. जैसे कि आज उसने दबी जुबान में कहा, ‘होली के बाद काम में लगता है तेज़ी आयी है. खैर, चलिए जवाहरजी आप अपना काम कीजिए, मैं ज़रा मोहन से मिल आता हूं मार्केट में से.’

वैसे भी दिन के तीसरे पहर उनके ठीहे पर भीड़ बढ़ जाती है. ठीहा भी क्या है, बाज़ार और दीवान हॉल के पिछले हिस्से को जो भीड़ भरी संकरी गली अलग करती है उसी में फुटपाथ कहे जाने ज़मीन के थोड़े उठे हुए हिस्से पर दस-ग्यारह बजे ठोक-पीटकर बनाया गया लकड़ी का एक बक्सा रख दिया जाता है और पीछे वाली कन्या विद्यालय की उंची दीवार के सहारे सूरज की सफ़ेदी थामने के लिए पन्नी और गत्ता खोंस दिया जाता है. हो जाता है तैयार ठीहा. आदर्श के सिवा किसी को वहां फालतू बैठने की न ज़रूरत है और न आदत. नतीजा, जवाहर उठाने-बैठाने की चिंताओं से बिल्कुल मुक्त हैं. यूं तो जो भी वहां आते हैं, वे आदर्श से ज़्यादा नियमित हैं. दिन में दस बार आते हैं, बीस बार आते हैं. पर आदर्श जैसा ढीठ और गपोड़ी कोई नहीं आता वहां. वह तो ऐसा बतक्कड़ है कि अगर कोई एक बात पूछे तो उसके चार किस्म के ज़वाब देता है, वह भी कम से कम दो उदाहरणों के साथ. दुआ-सलाम होने भर की देरी है, उसके बाद तो ‘कब से आप इस बाज़ार में? से शुरू करके अच्छा शुरू से ही हैं आप इस काम में ? यहां काम करते हुए बहुत दिक़्क़त हुई होगी आपको!’ जैसे सवालों का लगा देता है. इतना ही नहीं, एन-केन-प्रकारेण सामने वाले के मुंह से उनके जवाब उगलवा लेने की को‍शिश भी करता है. वैसे है नहीं लेकिन उसकी बातचीत का अंदाज़ा किसी इंटेलेक्चुअल से कम नहीं लगता. पिछले दो-ढाई महीनों में ही जवाहर के ठीहे पर उसने से ‘इंटेलेक्चुअल बमबारी’ की है उसका असर ठीहे पर नियमित रूप से बैठने वाले जवाहर के संगी-साथियों पर भी पड़ा है. इतने ख़ौफ़जदा हो गए हैं कि आदर्श की गंजी टांट पर सवारी करते भगत सिंह के टोपे से मिलते-जुलते टोपे को दूर से देखते ही वे ठीहे से सरकना शुरू कर देते हैं. कभी-कभी जवाहर भी आदर्श को देखकर झल्ला जाते हैं. लेकिन आदर्श की भोजपुरी सनी बोली, अपनी बातों में हमेशा भरने का उसका अंदाज़, चाय नहीं पीने जैसी आदतों के कारण जवाहर को उससे इतना लगाव हो गया है कि न चाहते हुए भी उसको अपने ठीहे पर दीवार के सहारे कमर के निचले हिस्से का कोना टिकाने भर का न्यौता देने से ख़ुद को नहीं रोक पाते हैं.

जवाहर के साथ काम करने वाले लोग भी तो कम नहीं है. बाज़ार में रेपुटेशन भी है. ‘सबकी पसंद निरमा’ की तरह हर दुकानदार माल बुक करवाने के लिए सबसे पहले जवाहर को ही ढूंढता है. दुकान के कर्मचारी, मालिक, झल्लीवाले, ठेलावाले, व्यापारी सभी किसी न किसी वजह से उसके ठीहे को घेरे रहते हैं.

’प्रधानजी राम-राम!

’प्रधानजी कैसे हो ?

’प्रधानजी हमारा भी ख़याल रखा करो यार’

‘ए परधानजी उ कुतुब रोड वाला नगवा भेजवा नुं दीजिए.’

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