25.7.08

अट्ठाईस कि.मी. इंग्लिश चैनल

व्‍याख्याता और अनुवादक गोपाल प्रधान ने 'छायावादयुगीन साहित्यिक वाद-विवाद 1910-40' पर जेएनयू से पीएचडी किया है. रबीन्द्रनाथ ठाकुर, फिलॉसफ़ी ऑफ़ एजुकेशन; आर्नल्ड हाउज़र, अ सोशल हिस्ट्री ऑफ़ आर्ट; टॉम बॉटमोर, सोश्‍यॉल्जी के अनुवाद के साथ-साथ हिन्दी की विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में गोपालजी के आलेखों व समीक्षाओं का प्रकाशन हो चुका है. फिलहाल गोपालजी सिलहट, असम में अध्यापन कर रहे हैं. साथ ही 'साहित्य में उत्तर-पूर्व' पर शोध भी. तावार के पाठकों के लिए पेश है दीवान-ए-सराय02: शहरनामा से गोपाल जी का लेख अट्ठाईस कि.मी. इंग्लिश चैनल. इसके लिए दीवान टीम और अपने सहकर्मी चन्दन शर्मा का आभार.

जिस कैम्पस से विदा लेकर मैं शाहजहाँपुर गया था, वहाँ अब भी कोई लाइब्रेरी के इर्द-गिर्द गोल चक्कर में भटक कर घंटों

....और इस तरह सागर नाहर भारत के महानतम ब्लॉगरों में गिने जाने लगे। :)

घूम रहा होगा और बाहर निकालने का रास्ता पूछने पर बताने वाला कहता होगा कि आपको तो रास्ता ख़ोजते हुए बस घंटे ही बीते हैं, मैं तो बरसों से उसी रास्ते को ख़ोजने की कोशिश कर रहा हूँ। अब भी कोई सुलोचना का प्रेमी ‘सुदूर, दूर द्वीपे’ स्थित अपनी प्रेमिका को ख़ोजने के लिए लाइब्रेरी की आठवीं मंज़िल पर पहुँचता होगा, और उसके नज़र न आने पर वहीं जान दे जाता होगा। अब भी उसकी सड़ती हुई लाश को उठाने का पात्र समझे जाने पर कोई सफ़ाई कर्मचारी अंदर तक ग्लानि की सड़ांध से भर जाता होगा। अब भी कोई मेस में रोटी पर से अमेरिका द्वारा भेजे गए संक्रामक कीटाणुओं को हटाता हुआ पागल समझा जाता होगा और आधुनिकता की ग़ुलामी से बचने के लिए पहाड़ियों से सुराही में भर कर पानी लाता होगा। अब भी कोई वॉर्डन के आने और अतिथियों के बारे में पूछने पर कहता होगा कि हम सब अतिथि हैं, क्या आपको लगता है कि आप यहाँ स्थायी रूप से रहने आए हैं। अब भी मेसों में उलझी हुई अंतर्राष्ट्रीय और राष्ट्रीय परिघटनाओं को समझने के लिए दृष्टिकोण की स्पष्टता अर्जित करते विद्यार्थियों की टिमटिमाती हुई आँखें अतिथियों के प्रवाहपूर्ण भाषण सुनती होंगी।
इस कैम्पस से निकल पाना तक़रीबन एक असंभव काम है, जहाँ बीसों बरस पहले पढ़ाई ख़त्म कर चुके प्राणी किन्ही लड़कों के कमरों में या बस स्टैंडों और ढाबों के इर्द-गिर्द भटकते हुए पाए जाते हैं। निकलने का कारण उतना सचेतन चुनाव नहीं था, जितना नौकरी करने की मज़बूरी थी। एम. फिल., पीएच. डी. के नाम पर सात बरस के चूहे की तरह संवेदनशील ज़िंदगी बिताने के बाद तीन दिन बरेली के अमर उजाला में नौकरी करके वीरेन डंगवाल की डाँट खा कर अध्यापकी के लिए नियुक्ति पत्र लेकर इस ज़िले के ज़िला मुख्यालय पर पहुँचने के पहले ही इलाहाबाद में नक़्शे पर पैमाने के सहारे यह जान लिया था कि जहाँ नौकरी करनी है वह जगह ज़िला मुख्यालय से 28 किलो मीटर दूर है।

यही दूरी एक टापू तक पहुँचने की जद्दोज़हद से भरी हुई थी। पूरे चार बरस रोज़ यह दूरी मैंने जीप पर बैठकर पार की है। इसी क्रम में जीप पर बैठने की आरामदेह जगह तलाशने के तमाम गुण सीखे गए। बहरहाल, पहली बार उस द्वीप पर मैं जीप में नहीं गया। स्टेशन से बाहर निकलते ही शाहजहाँपुर से पुवायाँ की तरफ़ जाने वाली सड़क मिल जाती है। उसी पर खड़ा था कि एक मिनी ट्रक आया। सामान्यतः तो इसका इस्तेमाल सामान ढोने के लिए होता है, यह मानकर चुपचाप

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खड़ा था कि तमाम लोग उसकी ओर लपके। मैं आगे ड्राइवर की बग़ल में बैठने के लिए बढ़ा। कंधे पर एयर बैग और हाथ में ब्रीफ़केस देकर ख़लासी ने भी कोई आपत्ति नहीं की। किराया चार रुपये, बड़ा ही आनंद रहेगा। ... एक घंटे में पुवायाँ उतरा।

तहसील और ज़िला
शाहजहाँपुर ज़िले की चार तहसीलों में पुवायाँ एक तहसील है। पूरी तहसील में कुल एक इंटर कॉलेज़ सन् 1996 में था। उसी से लगे हुए भवन में पहला डिग्री कॉलेज खुला था। यह कॉलेज चीनी मिल की ओर से खुला था, इसलिए इसका नाम था - गन्ना किसान डिग्री कॉलेज। संतोष यह मानकर पाया कि ब्राह्मण कॉलेज, क्षत्रीय कॉलेज, हिन्दू कॉलेज, सनातन धर्म कॉलेज के मुक़ाबले यह अच्छा ही नाम है। तहसील शाहजहाँपुर ज़िले में तो थी, लेकिन इसका लोकसभा क्षेत्र पीलीभीत था, जहाँ से सांसद मेनका गाँधी थीं। फिर भी यहाँ की राजनीति पर जितेन्द्र प्रसाद का ख़ासा दबदबा था जो तब राज्यसभा के सदस्य थे। शाहजहाँपुर ज़िले के मुक़ाबले यहाँ कुछ भिन्नताएँ थीं, मसलन पीलीभीत की तरह ही यहाँ सिक्ख समुदाय के लोग काफ़ी थे।
इन्हीं विशेषताओं के कारण इस तहसील को यहाँ के लोग कुछ ज़्यादा ही विशेष मानते हैं। मसलन, आबादी ज़िले की एक चौथाई होने के बावज़ूद उसे 40 प्रतिशत बताते हुए अक़सर लोग पाए जाते हैं। कुछ साल पहले पीलीभीत ज़िले के एक मंत्री विनोद तिवारी पुवायाँ आए थे। कोई माँग न होते हुए भी वे पुवायाँ को अलग ज़िला बनवाने के लिए संघर्ष करने का वादा कर गए। राजनीति के इस नए मुहावरे का इस ज़िले में बहुत प्रचलन है। मसलन, शाहजहाँपुर शहर के विधायक और प्रदेश सरकार में मंत्री सुरेश खन्ना एक ऐसी मीनार बनवाने पर तुले हैं जो कुतुब मीनार से भी ऊँची होगी। उन्होंने ही इस शहर में शहीद पार्क बनवाया है जिसमें उत्तर प्रेदश का दूसरा डाँसिंग फ़ाउंटेन लगा है (कानपुर में पहला है)। इसे ही विकास कहा जाता है। पानी न हो, बिजली न हो, पानी निकासी की व्यवस्था न होने से बरसात में शहर बजबजाने लगे, गलियों में सूअर घूमते हों - कोई बात नहीं। भारत की सबसे ऊँची मीनार तो है, डाँसिंग फ़ाउंटेन तो है। किसान आत्महत्याएँ कर रहे हों - कोई बात नहीं, हम आपकी तहसील को अलग ज़िला बनवाएँगे।
राजनीति का यह नया मुहावरा राजनितिज्ञों के आपराधिक रिकॉर्ड और उसके घिनौने चेहरे को छुपाने का मज़बूत हथियार है। मसलन विकास के प्रतीक सुरेश खन्ना पर अयोध्या आन्दोलन के दौरान एक मुसलमान ट्रक ड्राइवर की हत्या का मुक़दमा ज़िला न्यायालय में चल रहा था। उसका एक चश्मदीद गवाह भी ज़िन्दा है। शहर में यह आम जानकारी है कि उन्होंने यह हत्या करवाई थी लेकिन ‘अच्छे आदमी हैं, शहर का विकास कर रहे हैं’ के नाम पर कोई इसकी चर्चा भी नहीं करता। मुख्यमंत्री कल्याण सिंह ने इस मुक़दमे को वापस भी ले लिया था। राजनीति की एक दूसरी नेत्री मेनका गाँधी राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर अपने पर्यावरण प्रेम के लिए विख्यात हैं और उनकी इस छवि का उन्हें यहाँ चुनाव में ‘प्रचुर लाभ

....और इस तरह सागर नाहर भारत के महानतम ब्लॉगरों में गिने जाने लगे। :)

मिलता है’। लेकिन सच्चाई यह है कि दलितों की हत्या कर देने वाले किसानों और भारी मात्रा में सरकारी ज़मीन फ़र्ज़ी नामों से दबाये बैठे भूमिचोरों की जमात ही उनका आधार है। पुवायाँ में उन्ही क्रशर मालिकों से चन्दा लेकर चुनाव लड़ते उनकी आत्मा नहीं काँपती जो रात-दिन क़स्बे पर सीज़न भर राख उड़ाते रहते हैं। मिथक यह कि काम कराती हैं। धनी किसान लॉबी के लिए राजनीतिज्ञ का यही मतलब है कि नेता अफ़सरों के यहाँ उनका काम करा दे। एक सामंती अंदाज़ है पुवायाँ में। वे आईं और को संबोधित करते हुए कहा कि दो दिन मैं यहाँ हूँ, जिन्हें कोई समस्या हो वे आकर मिल सकते हैं। मिलने जाइए तो दलालों की भारी फ़ौज सासंद महोदया को घेरे हुए है। ख़ासियत बस एक कि सरकारी अधिकारियों को पीट देती हैं। सभी राजनेताओं की कार्यशैली में एक प्रतीकवाद और आपराधिक वस्तुनिष्ठता का मिश्रण है। मसलन, पूर्व सांसद जितेन्द्र प्रसाद मूलतः ब्राह्मण अपराधियों को संरक्षण देने के लिए जाने जाते रहे हैं, तो राजनीति के नए उगते हुए सितारे सुरेश खन्ना अपराधियों की नई फ़सल पैदा कर रहे हैं। सपा नेता सत्यपाल सिंह यादव भी अपराधियों की एक जमात को संरक्षण देते रहे हैं। राजनीतिक नेता, अपराध, आर्थिक साम्राज्य, नौकरशाही पर पकड़ - ये सभी एक दूसरे के साथ घुले-मिले और एक-दूसरे को बल प्रदान करने वाले तत्व हैं।
आभार.

6 comments:

  1. गोपाल जी तक हमारा सलाम पहुंचे। बड़े प्रवाह में लिखा है। अच्छा लिखा है।

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  2. अनिलजी शुक्रिया. मैं उन तक आपका सलाम ज़रूर पहुंचा दूंगा.
    मेरी कोशिश है कि इस तरह के कामों को लोगों तक पहुंचाया जाय.

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  3. bahut dino ke bad Gopal ji ko parha.
    He was ideal for many students who believed to study and to do for society at the same time.
    Lekin,phir bhi mujhe lagta hai ki samaj ko unse kuchh aur chahiye

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  4. Gopal ji ko dhanvaad ek acche vichar ke liye saath hi tij-tiyuhar ki jankari ke liye bhi.

    gopal ji se sampark karna cha raha hoon.-- kab ho pata hai ?
    amrendra

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