10.7.08
सेक्स रेवॉलूशनः ज़िन्दाबाद
1990 की बात है, दुनिया बदल रही थी जैसे कि हमेशा बदलती है। साहिबाबाद में तब लड़के ही लड़के दिखते थे। Correspondence course करते लड़के। Competition की तैयारी के इंतज़ार में लड़के। नौकरी न होने पर देहज की आस में बैठे लड़के। ...और कुछ यूँ ही खाली लड़के।। दरअसल, सूचना क्रान्ति, नई आर्थिक नीतियों और अजीबो ग़रीब शिक्षा तंत्र ने ऐसे पढ़े-लिखे नौजवानों और कुछ पुराने जवानों की एक फ़ौज़ तैयार कर दी थी जो Cable T.V. देखे-देख कर ऊँचे ख़्वाब देखने लगे पर भविष्य की अनिश्चितता और साहिबाबाद के रमणीय माहौल के कारण कार्य तुच्छ करने लगे। ये ख़तरा पैदा हो गाया कि इन लड़कों का असंतोष और नैसर्गिक उर्जा कहीं समाज में क्रान्ति लाने के लिए इस्तेमाल न हो जाए। पर उनका सारा जोश Cricket खेलने और Cricket पर लम्बी बेबुनियाद और तर्क़हीन चर्चाओं की ओर मुड़ गया। और भारत जैसा महान देश एक औपनिवेशिक खेल की बदौलत एक बार फिर सामाजिक असंतुलन और बदलाव से बच गया।
साहिबाबाद में अन्य चीज़ों की तरह ‘चक्कर’ में sex को पूँजीवाद के प्रतीक के रूप में देखा जाता था। यहीं कारण था कि चक्कर चलाने के सारे आयाम Public Domain में होने के बावजूद sex को उससे नहीं जोड़ा गया था। और इस प्रकार Love को बुर्जुआ पूँजीवाद से मुक़्त कर साहिबाबाद में चक्कर चलाने का दौर बुलन्द था। जिस प्रकार हर सरकारी तन्त्र में एक अभिजात्य शासक वर्ग होता है (उसी प्रकार) साहिबाबाद के कुछ चक्कर अन्य की अपेक्षा ज़्यादा महत्व लिए थे। शायद ही कोई चक्कर हो जिसके मानक फूल, गिफ़्ट्स, फ़िल्में, और पार्क होने की बजाय धूल, भयावह गर्मी, थकान, बोरियत और भीड़ हों। परन्तु साहिबाबाद की जीवन्त परम्परा के अनुसार यहाँ का सबसे लम्बा और सर्वाधिक लोकप्रिय चक्कर इन उपरोक्त चीज़ों की बदौलत ही याद किया जाता है।
गंजे और गुड्डी के चक्कर का एक प्रतीकात्मक दिन इस प्रकार होताः
सुबह मेहँदी घोलने की तैयारी के बीच एक फ़ोन। फ़ोन के बाद गुड्डी का विपिन को यह बताया जाना कि गंजे ने साहिबाबाद स्टेशन पर मिलने को कहा है। अब इस विषय पर यह निष्कर्ष निकाला जाता है कि ठीक दोपहरी में एक बजे वाली ट्रेने लेना ही सही है, वर्ना बालों में मेहँदी लगाना रह जाएगा। वैसे भी मेहँदी की permanence को चक्कर की क्षणभंगुरता की अपेक्षा अधिक नम्बर मिलते थे। बाक़ी मंडली का इस बात से आनन-फ़ानन में ही अवगत हो जाना होता था कि गंजे और गुड्डी निकल पड़े हैं मिलने और इसके अनुसार अपनी दिनचर्या को सेट कर लो। इधर शाम को वापसी पर मंडली का मिंटो ब्रिज स्टेशन पर पहुँचना अनिवार्य था। वहाँ गंजे और गुड्डी अलग-अलग बैठे होते। गंजा अपनी चिर-परिचित मुद्रा में मुँह फुलाए और मंडली की सार्वजनिक बैठक का इंतज़ार, क़मीज़ के दो बटन खोलकर कर रहा होता। गुड्डी सबसे पहले ख़ुश होकर अलग से आज की नोंक-झोंक का कारण बताने को उत्सुक होती। कारण वही तुच्छ सा - ‘यार सामने रंगा अंकल खड़े थे और ये मेरे कंधे पर सिर रख रहा था।’ गंजे का कहना था कि ‘उस दिन तो अपने भाई के कंधे पर बड़े आराम से सिर रख लिया था।’ और यह कहकर दोनों कई घंटे गर्मी में वापस जाने वाली ट्रेन का इंतज़ार, जो क़रीब 5 घंटे बाद थी, कनॉट प्लेस के वाहियात चक्कर लगाने में व्यस्त हो जाते और सड़ी गर्मी की चपेट में लहुलुहान हुए शरीर की दशा के लिए मन ही मन एक दूसरे को दोषी ठहराने लगते। गुड्डी तो आज शाम को होने वाली बैठक में आज की छीछालेदार का आनन्द लेने के लिए बैचेन हो उठती। बिना आवाज़ किए दोनों एल-ब्लॉक में निरूलाज़ के सामने वाले चबूतरे पर जा बैठे। वहाँ बैठे चाय वाले ने उत्तेजित हो उन्हें सलाम किया जिसका गंजे पर कोई असर नहीं हुआ। पर गुड्डी ने एक फ़ीकी मुस्कान बिखेरकर चाय वाले को मानो सूचित किया कि आज भी मौसम ख़राब है। अब धीरे-धीरे मंडली के सदस्यों का आगमन शुरू हुआ। गिन्टी जो आस-पास ही मंडरा रहा था, अचानक प्रकट हुआ और गुड्डी की तरफ़ मुस्कुराया जिससे गंजे की भृकुटी तनी और उसने बेमतलब में 50 मीटर का एक चक्कर लगाया। गिन्टी और गुड्डी ने शीघ्रता से इस दौरान गंजे की बुराई कर लो तथा यही नहीं, उसे impractical घोषित कर ऐसे बैठ गए जैसे कि Supreme Court ने किसी याचिका पर अंतिम फ़ैसला दे दिया हो। चाय की चुस्कियों के दौरान ही दीपक खट्टर और अमित का प्रवेश हो गया, जो कुछ नई pant-shirt कम भाव में ख़रीद कर लाए थे। गिंटी ने उनमें से कुछ को वहीं पहनने की ज़िद की और कुछ पर व्यंग्य बाण छोड़े। गंजे ने चाय पीकर फिर से mainstream में प्रवेश किया और इल्ली के आते ही उसे फ़टकार लगाई कि वह वहाँ क्यों आया है।
उसका नाम इल्ली इसलिए पड़ा क्योंकि चने के झाड़ पर लगने वाले कीड़े की तरह वह कहीं भी किसी भी समय प्रकट हो सकता था तथा लाख कोशिश के बाद भी चिपका रहता था। इल्ली ने अपने नाम को चरितार्थ करते हुए इस फटकार को दरकिनार किया और गंजे से लिपट गया और साथ न छोड़ने का बिन माँगा वादा किया। अब शुरू हुआ दोपहरी में कनॉट प्लेस के फेरे लेने का सिलसिला जो बीच में चाय की तलब और भूख, दोनों विषयों पर होने वाली गहन चर्चा के लिए कभी-कभी रुकता। चर्चा का विषय वही होता, अब क्या करें तथा कहाँ क्या खाएँ। लोकतंत्र की मर्दायदाओं का पालन करने की धुन में कुछ फ़ैसला न हो पाता था ‘मुल्ला की दौड़ मस्जिद तक’ वाली कहावत को सही सिद्ध कर वापस चबूतरे के चाय वाले का बिज़नेस बढ़ाया जाता। सामने निरूलाज़ में जाने की मंडली के छोटे सदस्य जैसे दीपक और अमित की इच्छा गंजे द्वारा मार्क्स़वादी दुराग्रह के चलते कठोरतापूर्वक दबा दी जाती। ये अलग बात है कि जब कभी रोमांस का थर्मामीटर अच्छा अंक दिखा रहा होता तो गंजे के द्वारा निरूलाज़ में जाना एक सामान्य बात होती। बीच-बीच में गंजे के द्वारा गाए गानों से उसकी मनः स्थिति का अन्दाज़ा लगाया जा सकता था। मसलन, अगर गाना होता था ‘समाँ है सुहाना’ तो इसका अर्थ होता था, शाम हो रही है सारा दिन तो बर्बाद हो गया अब थोड़ा मेल बढ़ाया जाए। वैसे भी विपिन के आने का समय हो गया चम्पी, जो लुफ़्थांसा (Lufthansa) में मैनेजर था, के आने से मंडली में sophistication की मात्रा बढ़ जाती और गंजे और गुड्डी के रोमांस से थके माहौल में अचानक बातचीत कॉरियर के सवाल के आस-पास झूमने लगती तथा इसी के साथ खान-पान पर किया जाने वाला ख़र्च भी भारत के बजट की तरह बिना बताए बढ़ जाता। इधर कूड़ी ने कुत्ते की भयंकर आवाज़ निकाल कर मंडली को अपने आने की सूचना दी। उसका मंडली को भीड़ भरे स्टेशन पर ढूँढ़ने का यही नुस्ख़ा था। इस कुकरहाव के बाद गंजे और गुड्डी के विषय पर हो रही गहन बातचीत पर विराम-सा लग जाता। वैसे बातचीत का आशय घूम-फिर कर यही था कि - क्या किया जाए? उसको कभी-कभी possessiveness, relationship में freedom तथा प्यार की सार्थकता जैसे विषयों के भार से इस तरह दबाया गया था कि इन शब्दों को सुनते ही लोगों को उल्टी का भय रहता था। कुल मिलाकर प्रेम, चक्कर, falling in love, और lovering में difference इत्यादि विषयों की लीद इस तरह निकाल दी गई थी कि कोई व्यक्ति इनसे बचने के लिए किसी भी हद तक जा सकता था। यहाँ तक कि स्टेशन पर Dumb Charades भी खेल सकता था। और होता भी यही। शाम की थकान व उमस, दिन भर की शारीरिक कसरत के बाद मंडली चाय की शर्त लगाकर स्टेशन पर Dumb Charades खेलना शुरू करती जिससे गिंटी को आपत्ति होने की वजह से उसे टाइम-कीपर बनाया जाता तथा इस चक्कर में शाम की सारी ट्रेन छोड़ दी जाती। आख़िरी ट्रेन से साहिबाबाद पहुँच वहाँ हारी हुई टीम, जो हमेशा इल्ली और गुड्डी की होती, चाय पिलाती और सब लोग यह निश्चय करते हुए विदा लेते कि दौबारा ऐसा दिन नहीं बिताएंगे। इस निश्चय का हश्र चुनावी वादों की तरह होता। फ़र्क़ इतना था कि इसे टूटने में मात्र दो दिन का समय लगता।
अब यह transition ...
मंडली के महत्त्वपूर्ण सदस्य जैसे दीपक, डिम्पी, अमित, नितिन वग़ैरह किताबी ज्ञान से वंचित मार्क्स़वाद से मुक़्त व क्रान्तिकारिता के अभाव में ख़ुद को मंडली के शीर्ष वर्ग की तुलना में तुच्छ पाकर प्रेम से भी अपने को वंचित रखने लगे। वैसे भी platonic love के दुराग्रह उनकी समझ से परे थे। रोमांस के प्रति ऊपर से लादे गए विचारों को हज़म करने में उन्हें अपच तो हुई किन्तु फिर भी वे एक अनकही मर्यादा में बँधे रहे। किन्तु जब भारतीय बाज़ार विदेशी माल के लिए खुलने लगे और साहिबाबाद की सड़कों पर ‘द्वंद्वात्मक भौतिकवाद’, ‘ड्यूहरिग मतखंडन’ की बजाय Chicken Soup for the Soul और दीपक चौपड़ा इत्यादि दिखाई देने लगे तो ऐसे में साहिबाबाद के मस्तिष्क में भी नए सवाल उठ खड़े हुए। लेकिन जिस प्रकार ग्लासनॉस्त की मार से गोर बाचेव धराशाही हुए उसी तरह प्रेम में खुलेपन को लाने के बाद गंजे, विपिन इत्यादि अपने-अपने प्रेम को न बचा पाए। और इस प्रकार से sexual revolution अपने सपूतों को खा गया। मतलब ये कि मंडली के शीर्ष वरीयता प्राप्त चक्करों में लात पड़ने लगी और बौने सदस्यों ने नई क्रान्ति के बिगुल बजा दिए। चेलों ने गुरुओं की Girlfriends मार ली और गुरू, रोमांस की भाषा में, सड़क पर आ गए। लेकिन इससे बहुत पहले अकेले एक व्यक्ति अमित ने अपने से दुगुनी उम्र की औरतों से चक्कर चलाकार साहिबाबाद में नए युग का आह्नान किया तथा ‘Joy of Sex’ नामक किताब का साहिबाबाद में प्रवेश हो गया। साहिबाबाद की ईंटें चीख़-चीख़ कर कहने लगीं कि intellectual प्यार के दिन लद चुके हैं और नए पिरवेश और भूमंडली करण के दौर में प्यार पर भी मंडली के दिग़्गजों की monopoly नहीं रहेगी।
Sex Revolution ज़िन्दाबाद!
साभार: चन्दन शर्मा
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बेहतरीन संस्मरण! अभी आगे-आगे देखिए कहां जाती है दुनिया!
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