मोहल्लालाइव पर अविनाशजी ने हाल ही में एक लेख छापा जिसका मज़मून था कारगिल की लड़ाई की दसवीं बरसी पर बरखा दत्त की डॉक्युमेंट्री और हिन्दी मीडिया. मैंने उस पर अविनाश के संपादन और उनके भाषाई खेल पर एक प्रतिक्रिया साधी थी. उसी प्रतिक्रिया में थोड़ा और जोड़कर यहां पेश कर रहा हूं.
अविनाश भाई, विनीत का लेख 'मोहलालाइव' के पाठकों तक लाकर आपने एक और नेक काम अपने नाम कर या करा लिया. आपका तहे दिल से शुक्रिया ! विनीत बाबू ने हमेशा की तरह एक जानदार पोस्ट दागकर मीडिया वालों को अपने चाल-ढाल पर ग़ौर करने का नैतिक संकेत दे ही दिया. अब ख़बरिया चैनलों पर है कि वो अपने गिरेबां में झांकते हैं या नहीं. वैसे उनकी आदतों से लगता तो यही है कि 'चाहे जो कर लो हम अपने किए पर विचार न करेंगे'.
रही बात अविनाशजी के संपादन की तो भइया कायल भी हूं और इन्होंने घायल भी ख़ूब किया है. आप बताएंगे मित्र कि इस लेख के शीर्षक में आपने 'वार' को जबरदस्ती काहे ठूंस दिया जबकि बोलचाल में अपना मतलब लिए युद्ध, जंग और लड़ाई जैसे बेहद लोकप्रिय शब्द प्रचलन में हैं. ये हिट्स के लिए था या फिर आप हिंदी का हश्र ऐसा ही चाहते हैं? काहे भइया, कौन–सी दिक़्क़त पेश आ रही है आपको हिन्दी या इससे मिलती-जुलती बोलियों में उपलब्ध शब्दों से, कैसी डाह है इनसे? पहली मर्तबा मोहल्लालाइव पर ऐसा इस्तेमाल देखा तो लगा कि चलो ये कोई प्रयोग होगा. करने दो, कुछ नया करना चाह रहे हैं. यही नया है!
लेखकों का परिचय देते हुए आपकी संपादकीय हिन्दी कुछ यों हो जाती है, 'लेखक/लेखिका युवा जर्नलिस्ट हैं', .'...यंग पत्रकार हैं', '.... 'युवा रिसर्चर हैं'. काहे दोस्त, काहे ऐसा कर रहे हैं? युवा में अब वो बात नहीं रही जो यंग में होती है या फिर आपको पत्रकार कहना, कहलाना, लिखना या सुनना अब रास नहीं आ रहा? ऐसा नहीं है कि मैं जड़ हिन्दीवादी या हिन्दीवाला हूं, मुझे भाषाई प्रयोग से कोई परहेज़ है या मैं किसी रचनात्मकता से डर कर मारा-मारा फिरता हूं. भाषाई प्रयोग में न केवल मैं यक़ीन करता हूं बल्कि इसमें मेरी बड़ी गहरी आस्था है. पर इस प्रयोग को क्या माना जाए जो आप अपनी शैली बताकर सरपट किए जा रहे हैं.
मैं ये नहीं कह रहा कि आप इसे रोक दीजिए; हां, इतनी उम्मीद तो करता ही हूं कि जो कीजिए उस पर एक बार विचार ज़रूर कीजिए. ये सलाह आपको दे सकता हूं, उनको नहीं जो चौबीस घंटे तीन सौ पैंसठ दिन ख़बर बांचने के धंधे में लगे हैं. ख़बर सुनाते हुए नुक़्तों की ऐसी बारिश करते हैं कि पुछिए मत. हर दूसरे वाक्य में आता है, '.... ज़ी मैं आपको बता दूं ... '. काहे भैया, काहे बता देना चाहते हो ? एक तो जो बता देना चाहते हो वही कौन सी क़ीमती है और है भी तो ये किसने कह दिया कि तुमको जो अनाप-शनाप बोलना हो, बोलते जाओ. अब ये कौन-सा प्रयोग है ‘जी’ की जगह ‘ज़ी’. अपने एनडीटीवी में एक बड़े भारी पत्रकार हैं, आजकल ऐंकरिंग भी करने लगे हैं. सुनिए उनकी हिंदी और देखिए उनकी भाषा. बोली और भाषा की जिस सफलता से दुगर्ति वे कर जाते हैं रंगरुटियों को वैसा करने के लिए कम से कम पांच हज़ार घंटे अभ्यास करने पड़ेंगे. कल ही शाम को सोमवार को दिल्ली में हुई बारिश से हुई तबाही और मौसम विभाग की ओर से दिल्ली में अगले कुछ वैसे ही रहने की आशंका बताते हुए पत्रकार महोदय बता गए कि ‘जब भी घर से निकलिए छाते लेना न भूलिए. अब ऐसा तो न हो बंधु. इज्जतदार मीडिया हाउस के इज्जतदार पत्रकार हो, ये इज्जत आपको अपने मुख्य काम के बूते ही मिली होगी, तो ज़रा बोल-चाल के रंग-ढंग तो सीख लेते. मेरे ख़याल से वहां कोई माई का लाल है ही नहीं जो उनके थूक सने शब्दों के उत्सर्जन से चैनल की टीआरपी पर पड़ने वाले फ़र्क़ पर विचार भी कर सके.
जब छोटा था तो मास्साहब अकसर कहा करते थे, ‘रोज़ अख़बार पढ़ो, भाषा सीख जाओगे.’ मतलब ये कि एक तरफ़ तो अख़बार (ज़ाहिर है तब टेलीविज़न इतना सशक्त माध्यम नहीं था वर्ना नसीहट टीवी देखने की भी दी जाती) से लोग इतनी उम्मीद रखते हैं और दूसरी तरफ़ अख़बारों का ये आचरण.
ग़ौरतलब है कि मीडिया ने भाषा को काफ़ी हद तक समृद्ध किया है. मिसाल के तौर पर भारतीय सिनेमा को ले लीजिए. सशक्त राष्ट्रवाद के ज़माने में जब बंटवारे के साथ ‘दिग्गजों’ ने भाषा और बोलियों को भी लगभग बांट दिया था और घोषण कर दी थी कि हिन्दी यानी संस्कृतनिष्ठ ही. उस दौर सबसे में हिन्दुस्तानी को अगर किसी माध्यम ने बढावा दिया तो वो फिल्म थी. संवाद हो या गीत, भाषा-रचना के मामले में कमाल का प्रयोग दिखता है. आज उसी दम पर मुझ जैसे छुटभैये भी थोड़ी-बहुत हिन्दुस्तानी बरत लेते हैं.
एक और तजूर्बा बांटना चाहता हूं आपसे, हालांकि ये थोड़ा अलग हटकर है. मेरी दादी जो सन् सत्तानवे में लगभग इतनी ही साल की होकर गुज़रीं, ने ताउम्र टमाटर नहीं बोला. ‘टोमाइटो’ बोला करतीं थीं. जब ये बात मेरे ज़हन में आयी तो मैंने पूछा कि घर भर के लोग टमाटर बोलते हैं और आप टोमाइटो, ऐसा क्यों? उन्होंने बताया कि उनके मायके में अंग्रेज़ की कोठी थी और उनकी कोठी के नजदीक केवल उनके दादाजी का परिवार रहता था. वे अंग्रेज़ों के लिए खेती-बाड़ी किया करते थे, शायद वहीं उन्होंने टोमाइटो बोलना सीखा होगा. दादी के मुताबिक़ उनके मायके में सारे लोग टोमाइटो ही बोलते थे. उनका ये सवाल मेरे लिए आंख खोलने वाला था. ज़ाहिर है मूल अंग्रेज़ी की ये संज्ञा भोजपुरी में सनकर प्रकारांतर में टोमाइटो बन गया होगा. अगर दादी वाले तर्क को आगे बढाया जाए तो अविनाशजी का प्रयोग ठीक ही दिखता है. पर थोड़ी उलझन फिर भी बरकरार है. अगर परिवार और आसपड़ोस से ही शब्द ढूंढने हैं, बोली सीखनी और गढनी है तो बिना अटपटेपन वाले प्रयोग होने वाले शब्दों का बड़ा जखीरा दिखता है, वहां से उठा सकते हैं.
यूं तो मसले के वज़न को देखते हुए मैंने जो लिखा है वो काफ़ी नहीं है. पर हां चर्चा शुरू करने के लिए कम भी नहीं है. मित्र, आप हमारी सलाह पर ग़ौर न करने के लिए आज़ाद हैं. बस इतना ही कहना था फिलहाल आपका ये 'प्रयोग' कुछ-कुछ उन अम्माओं के लहज़े-सा लगता है जो कहती हैं, 'बेटा अंकल को जंप करके दिखाओ' या 'तुम्हारा 'नोज़' कहां है......’
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