जब से अपनी दोस्त अनुषा रिज़वी के निर्देशन में निर्मानाधीन फिल्म के एक दृष्य का हिस्सा बनने का मौक़ा मिला है, बड़ी ख़ुशी हो रही है. ये भी नहीं कह सकता कि उसमें अपनी कोई उल्लेखनीय भूमिका है पर इतनी साधारण भूमिका भी नहीं है. जी हां, फिल्म के जिस दृष्य में शामिल होने गर्म कपड़े के साथ मैं गया था दरअसल उसकी शूटिंग जंतर-मंतर पर हुई. और हम सब जानते हैं जंतर-मंतर का महत्त्व. जंतर-मंतर हमारे लोकतांत्रिक प्रतिरोध की आवाज़ को स्थान देता है. किसी भी वक्त, किसी भी मौसम में जंतर-मंतर कम-से-कम दर्जन भर धरने-प्रदर्शनों को स्थान दे रहा होता है. कोई चार साल से बैठा है तो कोई चार महीने से, कहीं चार दर्जन लोग बैठे हैं तो कहीं सिर्फ़ मियां और बीवी ही. प्रतिरोध के इस स्वर को कहीं तंबू-कनाट का सहारा है तो कहीं खुला आसमान ही किसी का आसरा है. कोई अपनी नौकरी बहाली की मांग लिए बैठा है तो किसी तंबू के बाहर अलग कूचबिहार स्वायत्त क्षेत्र की मांग टंगी है. तो दलितों के मसीहा कांशीराम के 'हत्यारे' को सज़ा की मांग कर रहा है तो कोई 'जूता मारो आंदोलन' से ही संतुष्ट है ....
कहने का मलतब ये कि हम भी परसो इसी तरह के एक प्रदर्शन में भाग लेने पहुंचे थे जंतर-मंतर. अपने मित्र और पुराने सहकर्मी महमूद फ़ारूकी साहब जो कि इस फिल्म-निर्माण में न केवल अनुषा की मदद कर रहे हैं बल्कि तमाम तरह की सहुलियतों का इंतजाम भी उन्होंने ही किया है, ने पहले ही अपने क्रिउ मेंबर राहुल से फोन पर कहलवा दिया था कि मैं नियत समय पर यानी शाम चार बजे जंतर-मंतर पहुंच जाउं और साथ में गर्म कपड़े ज़रूर लेता आउं. क़रीब-क़रीब उसी अंदाज़ में उन्होंने हमसे अपने साथ पांच और लोगों को लाने की छूट दे दी थी जिस अंदाज़ में अब तक हम कहते रहे हैं. जंतर-मंतर पहुंचने से पहले तक अपन को ये नहीं पता था कि करना क्या होगा. सबसे पहले अनुषा मिलीं और फिर बग़ल में सिगरेट फूंकते महमूद मिले. दुआ-सलाम और जफ़्फ़ी-वफ़्फ़ी के बाद महमूद ने बताया कि बस अभी थोड़ी में देर में एक 'कैंडल लाइट मार्च' होने वाला है. हमारे पास कैंडल्स के अलावा बैनर और प्लेकार्ड्स भी होंगे. फिर कैसे-कैसे क्या होने वाला है ये सब बताया उन्होंने.
इस पहले एक छोटा सा सीन और शूट किया जाना था जिसमें मौजूदा राजनीतिक हालत पर किसी राजनीतिक पार्टी के नेता की भूमिका अदा कर रहे महमूद फ़ारूकी साहब को दस-बारह सेकेंड की एक बाइट देनी थी. चूंकि मैं पहली बार किसी फिल्म की शूटिंग देख रहा था, इसलिए मेरी निगाहें वॉकी-टॉकी खोंसे क्रिउ मेंबर्स और उनके इक्वीपमेंट्स पर ही टिकी थी. इधर से कोई आवाज़ लगाता टेप, अगले पल टेप हाजिर; छतरी ... बड़ी छतरी ...., हाजिर बड़ी छतरी भी. कोई चाय लेकर आता, मेरे अलावा अगल-बग़ल बैठे 'सह-अभिनेता' पी लेते और उन्हीं में से कोई ब्लौक-टी की डिमांड ठोक देता; तीन मिनट के अंदर मांगने वाले के हाथ में कोई ब्लैक टी थमा जाता. कुर्सी, कितनी चाहिए? दस, बीस या तीस ... आदमी को बिठा ही दीजिए. एक-से-एक यंत्र, भांति-भांति के माइक्स, ट्रॉलियां ... और वो क्या कहते हैं आर्मी की तरह का 'वर्ड और कमांड' और उसका अनुपालन!
तो मित्रों, हमने जिस दृष्य में हिस्सेदारी की वो एक जुलूस थी. अपने नेता को खोजते हुए हम जंतर-मंतर पहुंचे थे मोमबत्ती लेकर. मेरे जैसे दिल्ली के इक्के-दुक्के और पेशेवर जुलूसबाज़ आपको इस सीन में नज़र आएंगे. 'आमीर ख़ान प्रॉडक्शन' तले बन रही इस फिल्म में अपने कुछ मित्रों की महत्त्वपूर्ण भूमिका है. निर्देशक तो हैं ही अपनी मित्र. किसानों की समस्याओं पर आधारित इस निर्माणाधीन फिल्म में जुलूस के दौरान अगर कैमरे के लेंस में अपन आ गए हों और संपादन के दौरान कट-छट जाने से रह गए तो अपने दोस्तों को दिख भी जाएंगे. तब तक तो कह ही सकता हूं कि अपनी फिल्म रिलीज़ होने वाली है.
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देखते है, आप दिखाई देते हैं या नहीं।
ReplyDeleteबधाई अभी ले लीजिए. दिखाई बाद में आ जाइएगा.
ReplyDeleteसरजी,हम तो सिलेमा में आपका फोटू देखकर नोट लुटाएंगे। असली नहीं,नकलीवाला किलकारी से मांगकर।
ReplyDeleteअब तो सिलेमा का वेट करेंगे। आखिर पर्दे पर आपको जो देखना है।
ReplyDeleteबधाई. आमिर खान प्रॉडक्शन की फिल्म बढ़िया होनी चाहिए. इंतजार करते हैं.
ReplyDeleteसीलेमा का इंतजार रहेगा ...
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