12.2.08

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11.2.08

पुस्तक मेले ने बेहतरीन दोस्त दिए हैं

शनिवार 9 फ़रवरी
पुस्तक मेले का मेरा चस्का पुराना है. क़रीब सतरह-अठारह साल पुराना. मैं रामदयालू कॉलेज का विद्यार्थी था. आइएससी में दाखिल हो चुका था. गणित की पढाई चल रही थी. शौक बहुत से थे तब. अब भी हैं. घूमना-फिरना हमेशा से अच्छा लगता रहा है. अंग्रेज़ी का अख़बार लेना शुरू कर चुका था. एक सुबह टाइम्स ऑफ़ इंडिया में पटना बुक फ़ेयर का विज्ञापन देखा. बड़ा अचरज हुआ था. किताबों का मेला भी होता है! पिताजी को बताया. मनाया कि मुझे जाने दें मेले में. दुर्गा पूजा वाला मेला तो था नहीं‍ कि घूम-घूम कर मूर्तियां देखी, धक्कामुक्की से निकल कर किसी ‘रेस्टूरेंट’ में बैठकर समोसा खाया और तीन घंटे में वापस घर. पटना जाने में ही ढाई घंटे लगने थे. अकेला जाना था और शायद पटना पहले गया भी नहीं था. शुरुआती विरोध के बाद पिताजी राजी हो गए. कुछ हिदायतों के साथ सौ-सौ के तीन यार चार नोट दिए. पचास-साठ खुल्ले अलग से दिए रिक्शा और बस के किराए के लिए. भूख लगने पर कुछ खाना-पिना भी मैंने उसी में से किया था.

14-15 साल से दिल्ली में कोशिश यही रही है कि कम से कम हर किताब मेले में घूम तो लिया ही जाए. पर कई बार नाकाम भी रही कोशिश. 5-6 साल पहले तक तो जेबी हालत भी ढीली ही थी. माल के अभाव में बड़े से बड़े मेले फिके पड़ जाते हैं, क्यों? पर मुश्किल समयों में अपने चार्वाकवादी शैली ने मुझे उबारा और ऐसे मेले घुमाया. सन् 2000 में मेले को ध्यान रखकर एक संस्था में ब़कायदा डेढ़ महीने काम किया था और जो मिले थे उनमें एक ओल्ड मौंक के बाद जो भी पैसे बचे थे लगभग उन सबकी किताबें ख़रीदी थी. तब क़दम-क़दम पर एक ‘राजनैतिक कार्यकर्ता’ के तौर पर समाज के प्रति मार्क्सवादी प्रतिबद्घता की जांच होती रहती थी. बड़ा ग़ैरराजनीतिक, प्रतिकांतिकारी माना जाता था वो जो अपनी किताबें ‘पढ़ने’ के लिए साथी ‘क्रांतिकारियों’ को न देता था. शुरुआत में ‘प्रतिक्रांतिकारी’ उपाधि से एकाधिक बार नवाज़ा गया था मुझे. तो बीच-बीच में अपनी प्रतिबद्धता साबित करने के‍ लिए वापसी की उम्मीद बिना भी अपनी किताबें देनी पड़ी है. कलेजे पर वज्रपात के अनुभव भी हुए जब ‘पढ़ने’ के लिए उधार मांगकर ले जाने वालों के घर ऐसी किताबों के दम पर खड़ी लाइब्रेरी मिली. ऐसे समकालीन ‘वरिष्ठ कॉमरेडों’ के साथ काम करने और रहने का सुख भी प्राप्त रहा है जो नौजवान छात्र-छात्राओं के ‘राजनीतिकरण’ के लिए मेरी अनुपस्थिति में मेरी किताबें बेहिचक दे देते थे, कभी बताते भी नहीं थे. पूछने पर साफ़-साफ़ जवाब नहीं देते थे. कुछ महीनों बाद जब उन्हें याद आता था तो बताते थे, ‘वैसे भी किताब है, किताब निजी संपत्ति नहीं होती’. मालूम नहीं आज भी ‘कॉमरेड’ की पोजिशन वही है या कुछ और.

परसो दीपू, अविनाशजी और दादा के साथ गया था मेले में. सराय का भी एक छोटा-सा स्टैंड है हॉल नं. 1एफ़ में. किताबों की बिक्री की जिम्मेदारी बीच में कुछ साल आफ़ताब की रही है. मेले-ठेले का काम भी उन्हीं का रहा है. इस बार उनकी अनुपस्थिति में विकास, क़ूरैशी और चंदन बारी-बारी से संभालते हैं उसे. पहले वहीं गया. थोड़ी देर बैठा भी. किलकारी के चलते बच्चों वाले हॉल के प्रति भी ख़ासा उत्सुक था. मुआयना कर आया, देख आया बच्चों के लिए क्या-क्या है और कहां-कहां.

कल अठारहवें विश्व पुस्तक मेले में पुरानी यादें ताज़ा हो गयी. किलकारी न होती तो शायद न लौट पाता इतना पीछे. क़रीब तीन बजे खाना खाने के लिए इकट्ठा हुए. विनीत हॉल नं. 1 से निकले और हमलोग 11 से. घास पर कुछ और लोग बैठकर खा रहे थे. किलकारी अंगूर खा रही थी और हम मशरूम और मटर के साथ रोटी. विनीत ने कहा, ‘अगर मुझे इतने छोटे से ऐसा एक्सपोज़र मिला होता तो मैं तो ऑक्सफ़र्ड में होता इस वक़्त.’ उनके सार से मैं भी इत्तफ़ाक रखता हूं. जनवरी में परीक्षा का रीज़ल्ट आने के बाद साल में एक बार किताब ख़रीदने की सनातनी परंपरा रही है घर में. मोतीझील स्थित दीपक मार्केट ही शायद वो स्थान था जहां किताबों की दुकानें हुआ करती थी. वैसे भी हमारे शहर में पाठ्यक्रम से इतर विषयों पर किताबें कम ही मिलती हैं. परिवार में किताब प्रेम के नाम पर बाबा एक रामायण रखते थे. मालूम नहीं उनके जाने के बाद अब वो रामायण कहां है. पहली बार कोर्स से अलग अपने मन का कुछ देखने-सुनने का मौक़ा पटना पुस्तक मेले में ही मिला था.

पहले राउंड में हॉल नं. 11 में पर्याप्त घूम लेने और जेब झड़वा चुकने के बाद विनीत को फ़ोन मिलाया, ‘कुछ एक्सट्रा पैसे हैं?’ शुक्रिया भाई का. जितने ख़रच चुका था अब तक उतने ही और दे दिए उसने. चार्वाकवाद पर चलते हुए तुरंत-फुरंत में अर्जित पूंजी (लोग इसे क़र्ज़ कहते हैं) के साथ हम दाखिल हुए हॉल नं. 12 में. हिंदी प्रकाशन का महासागर इसी हॉल में अटा है. ठीक-ठीक थाह न हो और अपने लोभ के दायरे पर नियंत्रण न हो तो किताबी कीट-पतंगों के डूबने का पूरा-पूरा ख़तरा है यहां. कई प्राचीन ‘कॉमरेड’ कल ‘बुर्जूआ’ की भूमिका में दिखे. कुछ की बातें तो अब भी इतनी धारधार हैं कि लगता है अब जो शब्दामृत बरसेगा उनके श्रीमुख से, क्रांति उसी के साथ छलक पड़ेगी. ‘क्रांति’ के कुछ प्रतिष्ठान तो पिछले कुछ सालों में बड़े संभ्रांत हो गए दिखे. लाल से लेकर घोर लाल, हर माल उनके यहां उपलब्ध है. लाजवाब पै‍केजिंग में. क़ीमत पारंपरिक प्रतिष्ठानों से कम. बाज़ार के तमाम दाव-पेंच सीख लिए पिछले सालों में इन प्रतिष्ठानों ने. कल इलाहाबाद से आए मित्र अंशु मालवीय ने हंसते हुए कहा भी, ‘भइया, क्रांतिकारी सामान बेच रहे हैं और एनजीओ ग्रासरूट पर काम कर रहे हैं.’

पुस्तक मेला मेरे लिए सीखने-जानने की बड़ी जगह रही है. सीखने-जानने से भी ज़्यादा इसने मुझे कई बेहतरीन दोस्त दिए हैं. कई तो ऐसे हैं जिनसे केवल मेले में ही मुलाक़ात होती है. सालों से देखता रहा हूं छल-प्रपंच से कोसों दूर ये दोस्त अपने काम में लगे हुए हैं. कहीं नहीं लगा कि वे अपने लिए किसी तरह का महत्त्व ढूंढ रहे हैं. उनका काम (लोगों की नज़र में वो चाहे जितने कम महत्व का हो या फिर कितना ही बड़ा महत्त्वपूर्ण) कई स्वनामधन्य क्रांतिकारी प्रतिष्ठानों के समग्र काम पर भारी पड़ता दिखता है मुझे. मुझे उन मस्तमौला दोस्तों से बड़ी प्रेरणा मिलती है.

7.2.08

जनता का धैर्य की परीक्षा कब तक लेते रहोगे

भगवती सराय में हमारे सहकर्मी हैं. शहर और संगीत के बदलते आयाम पर इन्होंने ठीकठाक काम किया है. तकनीकी के साथ हमेशा कुछ न कुछ प्रयोग करते रहते हैं. पेश है जनता और सरकार के बीच नित हो रहे नए घमासान पर उनकी एक बेवाक टिप्पणी.

पिछले दिनों एक घटना ने लोगों को चकित कर दिया। गूढ़ को जाने वाला फ्लाईओवर काफ़ी दिनों से तैयार था। से प्रतीक्षा थी अपने उद्घाटन के लिए किसी अदद बड़े नाम की। लेकिन फ्लाईओवर अपनी यह व्यथा नहीं कह पाया। यातायात की ज़रूरत ने उस पर चलने वालों को यह कहने के लिए मज़बूर कर दिया कि बस अब बहुत हो गया। जनता ने न तो किसी बड़े नाम का इंतज़ार किया और न ही किसी जनप्रतिनिधि को बुलाया। जनता ने जनता का फ्लाईओवर ख़ुद ही जनता को समर्पित कर लिया। यह सब देखकर सरकार ने आनन-फ़ानन आकर फिर से फ्लाईओवर का उद्घाटन किया।
इस घटना ने सरकार और जनता के बीच बनते-बिगड़ते रिश्तों पर बहुत से सवाल खड़े किए हैं। जनता का प्रतिनिधि लोकतंत्र के मुताबिक जन प्रतिनिधि कहलाता है। लेकिन इस घटना में जन तो क़ायम रहा, प्रतिनिधि गायब हो गया। शहरीकरण के इस दौर में आए दिन ढ़ेरों फ्लाईओवर, मेट्रो, अस्पताल, सामुदायिक केन्द्र और न जाने क्या-क्या लगातार बन कर यह शहर को नई शक्ल देते जा रहे हैं। जहाँ देखो शिलान्यास, उद्घाटन और न जाने क्या होना बाक़ी है। इन उद्घाटनों के लिए बड़े से बड़ा नाम सिर झुकाए तैयार खड़ा है। सत्ता में बैठी राजनीति के लिए तो यह वो क्षण होते हैं जब वह अपने काम और अपने व्यवहार को जनता के ज़्यादा दिखाना चाहती है।
उद्घाटन के तामझाम, पार्टी के कार्यकर्ता, अंत में जनता, लंबा इंतज़ार, प्रतिनिधि के पहुँचते ही पार्टी कार्यकर्ताओं या जनता के बीच से ऊँचे क़द वालों का मालाएँ लेकर टूट पड़ना, एक के बाद एक नाम ... और बस चंद मिनटों में प्रतिनिधि द्वारा सारा जीवन जनता के चरणों में समर्पित कर देने की बातें। नेता गाड़ी में सवार मंच बन जाते हैं और जनता के लिए यह कोई नई बात नहीं है। जनता पक चुकी है। कई और उदाहारण भी ऐसे हैं जहाँ जनता अपने आप को ही सर्वोपरि मानकर काम चालू कर लेती है। जनप्रतिनिधि की कोई आवश्यकता नहीं।
यह घटना राजनीतिक पार्टियों और जनता के बीच बिख़रते रिश्तों की पहचान है। मुझे लगता है कि जनता को सौंपा जाने वाला कोई भी फ्लाईओवर, मेट्रो, अस्पताल, सामूहिक केन्द्र आदि के शिलान्यास, उद्घाटन की रस्म समय रहते जनता को सौंप देनी चाहिए। बाद में सरकार जितनी बार चाहे उसका शिलान्यास, उद्घाटन करती रहे। इसी कारण कई ज़मीनें अपने सीने पर शिलान्यास का पत्थर लिए अपने ऊपर बनने वाली सार्वजनिक इमारत की प्रतीक्षा में खाली पड़ी हैं।






1.2.08

यूं ही कल देर शाम दफ़्तर में गप्पबाज़ी हो रही थी. कमल, नरेश और भगवती भी थे. पता नहीं चला बातचीत कैसे हमारे बचपन की शै‍तानियों पर केंद्रित हो गयी. किस्म किस्म की शै‍तानियां और उसके बाद मिले दंड, प्रतिदंड और फिर सीख. ख़ूब खुलकर साझा किया हमने.
एक बार मैं लगभग तीन महीने के लिए घर से भाग गया था. हुआ यूं था कि 1986 की सर्दी में मां और दीदी गांव कुछ दिनों के लिए गांव में थी. राजा, मैं और पिताजी थे मुज़फ़्फ़रपुर में. किसी बात पर एक सुबह पिताजी ने मेरी ठीक से मरम्मत कर दी. बड़ा दर्द हुआ. बुरा भी लगा था. कुछ समझ नहीं आ रहा था. वैसे भी सातवीं में था तब. विचार आया, चलो यार पिटने के लिए भी क्या रहना यहां, इससे अच्छा तो हॉस्टल ही था. जहां पिटाई के बाद जमकर खेलने का