1.2.08

यूं ही कल देर शाम दफ़्तर में गप्पबाज़ी हो रही थी. कमल, नरेश और भगवती भी थे. पता नहीं चला बातचीत कैसे हमारे बचपन की शै‍तानियों पर केंद्रित हो गयी. किस्म किस्म की शै‍तानियां और उसके बाद मिले दंड, प्रतिदंड और फिर सीख. ख़ूब खुलकर साझा किया हमने.
एक बार मैं लगभग तीन महीने के लिए घर से भाग गया था. हुआ यूं था कि 1986 की सर्दी में मां और दीदी गांव कुछ दिनों के लिए गांव में थी. राजा, मैं और पिताजी थे मुज़फ़्फ़रपुर में. किसी बात पर एक सुबह पिताजी ने मेरी ठीक से मरम्मत कर दी. बड़ा दर्द हुआ. बुरा भी लगा था. कुछ समझ नहीं आ रहा था. वैसे भी सातवीं में था तब. विचार आया, चलो यार पिटने के लिए भी क्या रहना यहां, इससे अच्छा तो हॉस्टल ही था. जहां पिटाई के बाद जमकर खेलने का

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