26.12.08
मेरे भगवान मेरे पिता हैं: शास्त्रीजी
''मां को मैंने कभी नहीं जाना. चार बरस का था तब मां गुज़र गयीं. और पिता मेरे इतने बहादुर निकले कि लोगों के लाख कहने और समझाने पर भी दूसरी शादी नहीं की. तो मेरे लिए तो पिता ही बाप और पिता ही मां रहे. पिता ने जो स्नेह दिया, मैंने उसी में मां का भी प्यार पाया. हर तरह से.'' कहकर शास्त्रीजी फिर हूं, हूं करने लगे. और मैं उन्हें न जाने क्यों टुकुर-टुकुर ताके जा रहा था. शायद मेरे इस तरह ताकने को उन्होंने भांप लिया. बोल पड़े, ''अब क्या, अब तो समझिए कि उल्टी गिनती शुरू हो चुकी है. आज जैसा देख रहे हैं मुझे, मैं वैसा नहीं न था पहले. अब तो कमज़ोर हो गया हूं, कपड़े-लत्ते भी गंदे दिख रहे होंगे. देखना ही चाहते हैं तो ज़रा उधर देख लीजिए ...'' कहकर सामने वाली दीवार पर टंगी तस्वीरों की ओर इशारा किया. मैंने भी यह सोचकर कि बाद में याद रहे, न रहे; खड़ा हुआ, नजदीक गया और सारी तस्वीरों को अपने कैमरे में उतार लिया. ढंग से तो नहीं उतर पाया, पर जैसा भी हो पाया, हो गया.
शास्त्रीजी ने दीवारों पर टंगी तस्वीरों के बारे में बताया. इशारा करते हुए कहा कि ये, इधर वाला तब का है जब मैं पटने में था, वो तब का जब मैं बनारस से आया था, वो वाला रिटायरमेंट के थोड़ा पहले का ..... मैं उन सारी तस्वीरों को अपने कैमरे में उतार चुकने के बाद फिर उनकी ओर ताकने लगता.
'शास्त्रीजी आप अपने पिता के बारे में कुछ बता रहे थे ...' कहकर मैं पुन: एक बार उधर लौटना चाहा. शास्त्रीजी ऐसे शुरू हो गए जैसे तस्वीरों वाली बात उठी ही न हो. एकदम ताज़ा. ''कहा न आपको कि मेरे लिए मेरे पिता ही मां थे और बाप भी. जब मैं मुज़फ़्फ़रपुर आ गया तो को भी अपने पास ले आया. ये घर देख रहे हैं न आप, कोई पागल ही इतना बड़ा घर बनाएगा. मैं पाग़ल था और मैंने इतना बड़ा घर बनाया. हां, तो कह रहा था कि पिता को अपने साथ ले आया. उनके लिए दूघ की ज़रूरत को देखते हुए मैंने तब एक गाय ख़रीदी थी. कृष्णा नाम था उसका. ये देख रहे हैं न सामने ... कृष्णायतन है. कृष्णा के रहने के लिए बनवाया था. कृष्णा तो रही नहीं पर उसकी संतानें पीढियों से यहां रह रही हैं''. सामने नाद के दोनों और कड़ी से बंधे -बछड़ों की ओर इशारा करते हुए होंने कहा, '' ये सब तीसरी-चौथी पीढ़ी वाले हैं.'' उत्सुकतावश मैंने पूछ लिया, ''शास्त्रीजी, तब तो बहुत दूध होता होगा? क्या होता है दूध का?'' उनकी हूं, हूं हहहा में बदल गयी, 'नहीं, न तो एक बूंद दूध बाहर गया और न कृष्णा का कोई संतान कभी बिका.यहां के कुत्ते बिल्लियों से लेकर इंसानों तक, सब दूध खाते हैं, दूध पीते हैं. और कृष्णा और उसके मरे हुए संतानों की समाधियां भी इसी हाते के अंदर है. सबकी पक्की समाधियां बनी हुई हैं. चाहते हैं तो घूम आइए. देख आइए आंखों से. सामने ही तो है.''
इतने में शास्त्री की बिटिया (जो ख़ुद हिंदी की अवकाशप्राप्त प्राघ्यापिका हैं) जो निराला निकेतन के सामने वाले मकान में रहती हैं, आयीं, पिता को चरण स्पर्श किया और बोल पड़ी, ''बाबुजी, आज तो बाबा के सामनेदियाजला दीजिए. जानते हैं आपको दिक़्क़त होगी, हमलोग पकड़ लेंगे, लेकिन बाबा के मंदिरवा में दिया तो जला दीजिए आज. छोटी दिवाली है आज.''
''कमाल है गुडिया, मुझे तो किसी ने बताया ही नहीं कि आज छोटी दिवाली है. ये लोग भी नहीं बताए (विजयजी और मेरी ओर इशारा करते हुए उन्होंने कहा)''. हूं हूं... करते हुए एक बार फिर मुझसे मुख़ातिब हुए, ''सामने देख रहे हैं न, ये मैंने अपने पिता की याद में मंदिर बनवाया है. मैं कभी मंदिर में नहीं गया और न ही किसी देवता को पूजा. मेरे भगवान मेरे पिता हैं. उन्होंने कभी मेरा नाम नहीं लिया. बस एक ही बार बोले, तब चलें न जानकी वल्लभ? और चल पड़े''.
22.12.08
उफ़ान
अविनाश झा सेंटर फ़ॉर स्टडी ऑफ़ डेवलपिंग सोसायटिज़ (सीएसडीएस) में सहायक पुस्तकालयाध्यक्ष की हैसियत से काम कर रहे हैं और मेरे अज़ीज़ों में से एक हैं. ज्ञान पर चिंतन-मनन और लिखना-पढ़ना इनका प्रिय शगल है. जो पता नहीं था वो है इनकी कविताई. अभी-अभी इनकी कुछ कविताएं मेरे हाथ लगी है. यद्यपि छपने-छपाने से अविनाशजी को परहेज है. पर उनसे माफ़ी मांगते हुए अपने पसंद की उनकी दो रचनाएं हफ़्तावार के पाठकों के साथ साझा कर रहा हूं और कुछ बाद में भी करूंगा.
उफ़ान
विगत का उफ़ान उठता है
किताब के पन्ने अनायास ही
फरफरा जाते हैं
और मैं
टूट जाता हूं
क्षण से
मोती खोजता हूं
किनारे के भुरभुरे
फेन को
उंगलियों से कुरेदते
बुलबुले
फूटते जाते हैं
समीकरण समय के
छूटते जाते हैं
मैं आकाश को
समन्दर के शीशे में
ढूंढने लगता हूं.
विगत का उफ़ान उठता है
किताब के पन्ने अनायास ही
फरफरा जाते हैं
और मैं
टूट जाता हूं
क्षण से
मोती खोजता हूं
किनारे के भुरभुरे
फेन को
उंगलियों से कुरेदते
बुलबुले
फूटते जाते हैं
समीकरण समय के
छूटते जाते हैं
मैं आकाश को
समन्दर के शीशे में
ढूंढने लगता हूं.
लाल रंग
सूर्य का रंग लाल हो, न हो
रक्त का रंग लाल हो, न हो
क्या इतना काफ़ी नहीं
रक्त में सूर्य मिल जाए
सूर्य रक्त से बना हो .
17.12.08
यानी आडवाणीजी रामद्रोही भी हुए?
मुझे लगा कि आगे बढ़ने से पहले कुछ मित्रों की भ्रांतियों को दुरुस्त करने की एक और कोशिश कर ली जाए. सिलसिलेवार ठीक रहेगा.
कल मैंने ये लिखा कि आतंकवाद से निबटने के लिए जो भी क़ानून अपने देश में बनाए जाएंगे उसके तहत अगर सबसे पहले आडवाणीजी पर कार्रवाई होगी तो मुझ जैसे टैक्सपेयर को बड़ी तसल्ली होगी और देश में अमन-चैन को भी बढ़ावा मिलेगा. और ये मेरा प्रस्ताव था. जिस पर मैं आज भी क़ायम हूं. और आपलोगों ने इसे पता नहीं किन-किन रिश्तेदारियों में ढालने की कोशिश की. मेरे लिए तर्क यानी दलील अलग चीज़ है और रिश्तेदारी अलग. और शायद तमाम विवेकशील लोग मेरी इस राय से सहमत होंगे. आप ज़रूर अपने लिए इसे किसी रिश्तेदारी की चीज़ मानें. हां, जहां तक रिश्तेदारी की बात है तो मैं ख़ुद को वसुधैव कुटुम्बकम वाली जमात का मानता हूं.
आडवाणीजी की फिरकापरस्त गतिविधियों की चर्चा करना देशद्रोह हुआ, क्यों भाई? कौन नहीं जानता कि आडवाणीजी उस राजनीतिक वंश के बूढ़े बरगद ठहरे जिसका ताल्लुक़ कभी भी देशहित के बारे में विचारने या करने से नहीं रहा. जी हां, मैं राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की ही बात कर रहा हूं. पुराना ही सवाल दोहरा रहा हूं : बता सकते हैं आप कि आज़ादी के आंदोलन के दौरान आडवाणी या संघ से जुड़े किसी भी सख़्स ने बलिदान किया हो? मित्र आप (यानी संघ परिवार के विभिन्न घटक) तो पैदा होते ही हिन्दू राष्ट्र के चक्कर में पड़ गए, या आपको पैदा ही इसलिए किया गया. आपको भारत की आज़ादी या आज़ाद भारत की फिक्र करने का मौक़ा कहां मिला! आपका दोष नहीं है. थानेदार को माफ़ीनामा देकर कौन कैसे भागा और कैसे आज़ादी के आंदोलन में शामिल लोगों के बारे में अंग्रेज़ों को जानकारी दी जाती रही, नहीं जानते हैं आप? आपको जानना चाहिए. कम से कम अपना इतिहास तो आपको क़ायदे से जानना चाहिए.
ये बताने की बार-बार ज़रूरत क्यों होनी चाहिए कि देशद्रोही क़रार दिए जाने की पात्रता आडवाणीजी के पास है. अंग्रेज़ों से लड़कर, करोड़ों कुर्बानियां देकर हमारे स्वतंत्रता सेनानियों ने जो देश हमें दिया वो एक धर्मनिरपेक्ष और लोकतांत्रिक गणराज्य है. चाहें तो प्रस्तावना पर एक नज़र मार लें. किसी ख़ास धर्म, समुदाय, रंग, लिंग या क्षेत्र के प्रति पक्षधरता हो हमारे संविधान का, ऐसा उल्लेख तो नहीं मिलता उस किताब में जिसे डॉ. बाबा साहेब भीमराव आंबेडकर ने बनाया था और जिसे 26 जनवरी 1950 को लागू किया गया. वही 26 जनवरी जिस दिन समूचा देश गणतंत्र दिवस मनाता है. हमें ये दिन इसलिए भी याद है कि इस दिन स्कूल के प्रधानाध्यापक श्री लक्ष्मीनारायण ठाकुर को झंडोत्तोलन के तुरंत बाद एनसीसी द्वारा पेश किए जाने वाले गार्ड ऑफ़ ऑनर का निरीक्षण करने के लिए मैं आमंत्रित करता था. और इस रस्म के बाद थोड़ा भाषण-वाषण और फिर नयी बिल्डिंग में सीढियों के बग़ल में हम बच्चों के बीच जलेबी वितरण कार्यक्रम होता था. हमारे रोएं खड़े हो जाते थे जब हम अपने स्वतंत्रता सेनानियों के बारे में सुनते थे. पर मित्रों, तब से लेकर अब तक एक भी बार आपके संघ से जुड़े किसी नेता के नाम के साथ 'अमर रहें' न हमसे बोलवाया गया और न हम बोल पाए.
हां तो कह रहा था कि आडवाणीजी देशद्रोही क़रार दिए जाने की पर्याप्त पात्रता रखते हैं. चाहें तो देशद्रोह की परिभाषा पर आप स्वयं एक निगाह डाल लें. वो ऐसे कि हमारे देश के नाम का जान-बूझकर ग़लत उच्चारण करते हैं, जिससे यह घ्वनित होता है कि यह देश किसी धर्म विशेष का है, इससे हमारे संविधान का ही नहीं, उन करोड़ों स्वाधीनता सेनानियों का अपमान होता है जिन्होंने इस देश को आज़ाद करने के लिए बेहिसाब यातनाएं झेलीं और अपने जान न्यौछावर किये. वैसे तो इस मुल्क में आज तक किसी ने ऐसी ज़ुर्रत की नहीं लेकिन सेकेंड भर के लिए यह मान लें कि कोई इसे कृश्चिस्थान, सिखिस्थान, इस्लामिस्थान, बुदिस्थान, जैनिस्थान, कबीरस्थान, नास्तिकस्थान कह दे. आपको लगता है कि राज्य ऐसा कहने वालों को छोड़ देगा? छोड़ नहीं देगा, तोड़ देगा. हर तरह से तोड़ देगा, हर तरह से. और धर्म विशेष के पक्ष और विपक्ष में उनके कई भाषण यत्र-तत्र बिखरे पड़े हैं. मुझसे ज़्यादा सहजता से आप ढूंढ लेंगे, और अपनी पसंद का. लचीला या तीखा : जैसा चाहेंगे मिल जाएगा. यानी वैसा कुछ भी करने की क्षमता और माद्दा न केवल वे रखते हैं बल्कि समय-समय पर इज़हार भी करते रहते हैं जिससे इस देश की धर्मनिरपेक्ष और लोकतांत्रिक संरचना तार-तार होती है.
थोड़ी चर्चा आतंकवाद की. परिभाषा स्वयं देख लें. अब बताएं कि क्या श्रीमान आडवाणीजी के कारनामे आतंकवादी कहे जा सकने लायक़ हैं या या नहीं. उनके द्वारा, या उनके निर्देश से या उनके संरक्षण में या प्रत्यक्ष/परोक्ष रूप से उनकी मिलीभगत से, या उनकी जानकारी में, या उनकी निगरानी में होने वाली हर वो गतिविधि और हर वो कार्रवाई आतंकवादी है जिससे समाज समग्रता में या तबक़ा विशेष ख़ौफ़जदा होने को मजबूर होता या है. मिसालें जितनी चाहें, आपको मिल जाएंगी. फिर भी कुछ मोटे उदाहरण आपकी खिदमत में पेश करने की गुस्ताख़ी कर रहा हूं. क़रीब सोलह साल पहले श्रीमान लालकृष्ण ने राम के नाम पर एक यात्रा निकाली. उसके बाद क्या-क्या हुआ, कहां-कहां हुआ, कब-कब हुआ, कितना-कितना हुआ, कैसे-कैसे हुआ - आप जानते ही होंगे; हां आपको उस पर गर्व हो रहा होगा, हमें शर्म आती है. सरयूतीरे रचित नव अयोध्याकांड के प्रणेता कौन हैं और कौन प्रेरणास्रोत: मेरे ख़याल बताने की ज़रूरत नहीं होनी चाहिए. इस पर भी आप गर्व करेंगे.
यही सख्स कुछ साल पहले इस देश के गृहमंत्री थे और उसके उप भी जिसके प्रधान बनने की जल्दबाज़ी में हैं आजकल. तो उन दिनों देश के विभिन्न हिस्सों में और विशेषकर उन प्रदेशों में जहां-जहां सीधे उस पार्टी जिससे लालकृष्णजी ताल्लुक़ रखते हैं, की सरकार थी या फिर सहयोगी दलों का शासन जहां-जहां था; ईसाइयत में आस्था रखने वालों के साथ जमकर दुर्व्यवहार हुआ. दुर्व्यवहार क्या, संगठित जघन्य अपराध. जिन्दा जलाने से लेकर सामूहिक बलात्कार तक. लौहपुरुष एक बार भी न पिघले. पिघलते क्या, उल्टे परोक्ष रूप से अपराधियों की तरफ़दारी ही कर पाए. देखा नहीं आपने गुजरात के 'हिन्दु राष्ट्र' में प्रहरियों ने तलवार की नोंक से कैसे कौसरबानों की अजन्मी बिटिया को कोख से बाहर खींच कर सड़क पर मसल दिया! क्या-क्या कहा जाए. बहुत बातें हैं. मुझे मालूम है जितने तथ्य मैं गिना रहा हूं उसे ग्रहण तो आप करेंगे लेकिन पचा तभी पाएंगे जब आपको अमन और इंसानियत से प्यार होगा.
एक बात और बताउं आपको? ये आडवाणीजी देवद्रोही भी हैं. राम नामक एक देवता हुए हैं. उनके नाम पर मंदिर बनवाने के बहाने काफ़ी कुछ किया गया. मसलन देश भर में ईंटें घुमायी गयीं, डीजल वाला रथ घुमाया गया, देश भर से लोगों को ख़ासकर नौजवानों से फ़ैज़ाबाद जिले के अयोध्या में जमा होने का आवाहन किया गया और हज़ारों की तादाद में नौजवान बताए हुए स्थान पर पहुंचे, एक पुरानी मस्जिद ढाही गयी, उसके बाद दंगे हुए और करवाए गए, फिर चुनाव के वक़्त वोट मांगे और बटोरे गए, फिर जगह-जगह राज भोगा गया. और ये सब हुआ श्रीमान लालकृष्ण आडवाणी जी के प्रत्यक्ष और कभी-कभार परोक्ष नेतृत्व में. और इन 'महत्त्वपूर्ण' प्रक्रिया में डेढ़ दशक से ज़्यादा अवधि की खपत हो गयी. पर वो रामालय आज तक नहीं बन पाया. रामजी सोचते नहीं होंगे? सोचते होंगे, ज़रूर सोचते होंगे. मेरे खयाल से इतना कुछ हो जाने के बाद तो देवद्रोह का मामला भी बनता है. बल्कि स्पष्ट रूप से कहें तो रामद्रोह का. यानी आडवाणीजी रामद्रोही भी हुए?
कल मैंने ये लिखा कि आतंकवाद से निबटने के लिए जो भी क़ानून अपने देश में बनाए जाएंगे उसके तहत अगर सबसे पहले आडवाणीजी पर कार्रवाई होगी तो मुझ जैसे टैक्सपेयर को बड़ी तसल्ली होगी और देश में अमन-चैन को भी बढ़ावा मिलेगा. और ये मेरा प्रस्ताव था. जिस पर मैं आज भी क़ायम हूं. और आपलोगों ने इसे पता नहीं किन-किन रिश्तेदारियों में ढालने की कोशिश की. मेरे लिए तर्क यानी दलील अलग चीज़ है और रिश्तेदारी अलग. और शायद तमाम विवेकशील लोग मेरी इस राय से सहमत होंगे. आप ज़रूर अपने लिए इसे किसी रिश्तेदारी की चीज़ मानें. हां, जहां तक रिश्तेदारी की बात है तो मैं ख़ुद को वसुधैव कुटुम्बकम वाली जमात का मानता हूं.
आडवाणीजी की फिरकापरस्त गतिविधियों की चर्चा करना देशद्रोह हुआ, क्यों भाई? कौन नहीं जानता कि आडवाणीजी उस राजनीतिक वंश के बूढ़े बरगद ठहरे जिसका ताल्लुक़ कभी भी देशहित के बारे में विचारने या करने से नहीं रहा. जी हां, मैं राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की ही बात कर रहा हूं. पुराना ही सवाल दोहरा रहा हूं : बता सकते हैं आप कि आज़ादी के आंदोलन के दौरान आडवाणी या संघ से जुड़े किसी भी सख़्स ने बलिदान किया हो? मित्र आप (यानी संघ परिवार के विभिन्न घटक) तो पैदा होते ही हिन्दू राष्ट्र के चक्कर में पड़ गए, या आपको पैदा ही इसलिए किया गया. आपको भारत की आज़ादी या आज़ाद भारत की फिक्र करने का मौक़ा कहां मिला! आपका दोष नहीं है. थानेदार को माफ़ीनामा देकर कौन कैसे भागा और कैसे आज़ादी के आंदोलन में शामिल लोगों के बारे में अंग्रेज़ों को जानकारी दी जाती रही, नहीं जानते हैं आप? आपको जानना चाहिए. कम से कम अपना इतिहास तो आपको क़ायदे से जानना चाहिए.
ये बताने की बार-बार ज़रूरत क्यों होनी चाहिए कि देशद्रोही क़रार दिए जाने की पात्रता आडवाणीजी के पास है. अंग्रेज़ों से लड़कर, करोड़ों कुर्बानियां देकर हमारे स्वतंत्रता सेनानियों ने जो देश हमें दिया वो एक धर्मनिरपेक्ष और लोकतांत्रिक गणराज्य है. चाहें तो प्रस्तावना पर एक नज़र मार लें. किसी ख़ास धर्म, समुदाय, रंग, लिंग या क्षेत्र के प्रति पक्षधरता हो हमारे संविधान का, ऐसा उल्लेख तो नहीं मिलता उस किताब में जिसे डॉ. बाबा साहेब भीमराव आंबेडकर ने बनाया था और जिसे 26 जनवरी 1950 को लागू किया गया. वही 26 जनवरी जिस दिन समूचा देश गणतंत्र दिवस मनाता है. हमें ये दिन इसलिए भी याद है कि इस दिन स्कूल के प्रधानाध्यापक श्री लक्ष्मीनारायण ठाकुर को झंडोत्तोलन के तुरंत बाद एनसीसी द्वारा पेश किए जाने वाले गार्ड ऑफ़ ऑनर का निरीक्षण करने के लिए मैं आमंत्रित करता था. और इस रस्म के बाद थोड़ा भाषण-वाषण और फिर नयी बिल्डिंग में सीढियों के बग़ल में हम बच्चों के बीच जलेबी वितरण कार्यक्रम होता था. हमारे रोएं खड़े हो जाते थे जब हम अपने स्वतंत्रता सेनानियों के बारे में सुनते थे. पर मित्रों, तब से लेकर अब तक एक भी बार आपके संघ से जुड़े किसी नेता के नाम के साथ 'अमर रहें' न हमसे बोलवाया गया और न हम बोल पाए.
हां तो कह रहा था कि आडवाणीजी देशद्रोही क़रार दिए जाने की पर्याप्त पात्रता रखते हैं. चाहें तो देशद्रोह की परिभाषा पर आप स्वयं एक निगाह डाल लें. वो ऐसे कि हमारे देश के नाम का जान-बूझकर ग़लत उच्चारण करते हैं, जिससे यह घ्वनित होता है कि यह देश किसी धर्म विशेष का है, इससे हमारे संविधान का ही नहीं, उन करोड़ों स्वाधीनता सेनानियों का अपमान होता है जिन्होंने इस देश को आज़ाद करने के लिए बेहिसाब यातनाएं झेलीं और अपने जान न्यौछावर किये. वैसे तो इस मुल्क में आज तक किसी ने ऐसी ज़ुर्रत की नहीं लेकिन सेकेंड भर के लिए यह मान लें कि कोई इसे कृश्चिस्थान, सिखिस्थान, इस्लामिस्थान, बुदिस्थान, जैनिस्थान, कबीरस्थान, नास्तिकस्थान कह दे. आपको लगता है कि राज्य ऐसा कहने वालों को छोड़ देगा? छोड़ नहीं देगा, तोड़ देगा. हर तरह से तोड़ देगा, हर तरह से. और धर्म विशेष के पक्ष और विपक्ष में उनके कई भाषण यत्र-तत्र बिखरे पड़े हैं. मुझसे ज़्यादा सहजता से आप ढूंढ लेंगे, और अपनी पसंद का. लचीला या तीखा : जैसा चाहेंगे मिल जाएगा. यानी वैसा कुछ भी करने की क्षमता और माद्दा न केवल वे रखते हैं बल्कि समय-समय पर इज़हार भी करते रहते हैं जिससे इस देश की धर्मनिरपेक्ष और लोकतांत्रिक संरचना तार-तार होती है.
थोड़ी चर्चा आतंकवाद की. परिभाषा स्वयं देख लें. अब बताएं कि क्या श्रीमान आडवाणीजी के कारनामे आतंकवादी कहे जा सकने लायक़ हैं या या नहीं. उनके द्वारा, या उनके निर्देश से या उनके संरक्षण में या प्रत्यक्ष/परोक्ष रूप से उनकी मिलीभगत से, या उनकी जानकारी में, या उनकी निगरानी में होने वाली हर वो गतिविधि और हर वो कार्रवाई आतंकवादी है जिससे समाज समग्रता में या तबक़ा विशेष ख़ौफ़जदा होने को मजबूर होता या है. मिसालें जितनी चाहें, आपको मिल जाएंगी. फिर भी कुछ मोटे उदाहरण आपकी खिदमत में पेश करने की गुस्ताख़ी कर रहा हूं. क़रीब सोलह साल पहले श्रीमान लालकृष्ण ने राम के नाम पर एक यात्रा निकाली. उसके बाद क्या-क्या हुआ, कहां-कहां हुआ, कब-कब हुआ, कितना-कितना हुआ, कैसे-कैसे हुआ - आप जानते ही होंगे; हां आपको उस पर गर्व हो रहा होगा, हमें शर्म आती है. सरयूतीरे रचित नव अयोध्याकांड के प्रणेता कौन हैं और कौन प्रेरणास्रोत: मेरे ख़याल बताने की ज़रूरत नहीं होनी चाहिए. इस पर भी आप गर्व करेंगे.
यही सख्स कुछ साल पहले इस देश के गृहमंत्री थे और उसके उप भी जिसके प्रधान बनने की जल्दबाज़ी में हैं आजकल. तो उन दिनों देश के विभिन्न हिस्सों में और विशेषकर उन प्रदेशों में जहां-जहां सीधे उस पार्टी जिससे लालकृष्णजी ताल्लुक़ रखते हैं, की सरकार थी या फिर सहयोगी दलों का शासन जहां-जहां था; ईसाइयत में आस्था रखने वालों के साथ जमकर दुर्व्यवहार हुआ. दुर्व्यवहार क्या, संगठित जघन्य अपराध. जिन्दा जलाने से लेकर सामूहिक बलात्कार तक. लौहपुरुष एक बार भी न पिघले. पिघलते क्या, उल्टे परोक्ष रूप से अपराधियों की तरफ़दारी ही कर पाए. देखा नहीं आपने गुजरात के 'हिन्दु राष्ट्र' में प्रहरियों ने तलवार की नोंक से कैसे कौसरबानों की अजन्मी बिटिया को कोख से बाहर खींच कर सड़क पर मसल दिया! क्या-क्या कहा जाए. बहुत बातें हैं. मुझे मालूम है जितने तथ्य मैं गिना रहा हूं उसे ग्रहण तो आप करेंगे लेकिन पचा तभी पाएंगे जब आपको अमन और इंसानियत से प्यार होगा.
एक बात और बताउं आपको? ये आडवाणीजी देवद्रोही भी हैं. राम नामक एक देवता हुए हैं. उनके नाम पर मंदिर बनवाने के बहाने काफ़ी कुछ किया गया. मसलन देश भर में ईंटें घुमायी गयीं, डीजल वाला रथ घुमाया गया, देश भर से लोगों को ख़ासकर नौजवानों से फ़ैज़ाबाद जिले के अयोध्या में जमा होने का आवाहन किया गया और हज़ारों की तादाद में नौजवान बताए हुए स्थान पर पहुंचे, एक पुरानी मस्जिद ढाही गयी, उसके बाद दंगे हुए और करवाए गए, फिर चुनाव के वक़्त वोट मांगे और बटोरे गए, फिर जगह-जगह राज भोगा गया. और ये सब हुआ श्रीमान लालकृष्ण आडवाणी जी के प्रत्यक्ष और कभी-कभार परोक्ष नेतृत्व में. और इन 'महत्त्वपूर्ण' प्रक्रिया में डेढ़ दशक से ज़्यादा अवधि की खपत हो गयी. पर वो रामालय आज तक नहीं बन पाया. रामजी सोचते नहीं होंगे? सोचते होंगे, ज़रूर सोचते होंगे. मेरे खयाल से इतना कुछ हो जाने के बाद तो देवद्रोह का मामला भी बनता है. बल्कि स्पष्ट रूप से कहें तो रामद्रोह का. यानी आडवाणीजी रामद्रोही भी हुए?
आडवाणीजी और अनलॉफुल ऐक्िविटिज़ (प्रिवेंशन) अमेंडमेंट बिल 2008
लोकसभा चैनल पर चर्चा देख रहा हूं. थोड़ी देर पहले गृह मंत्री पी चितंबरम महोदय ने 'नेशनल इंवेस्टिगेटिंग एजेंसी बिल 2008 ऐंड अनलॉफुल ऐक्टिविटिज़ (प्रिवेंशन) अमेंडमेंट बिल 2008 पेश किया था और दोनों ही प्रस्तावित कानूनों के महत्त्वपूर्ण बिंदुओं को सदन के सामने रेखांकित किया था. उसके बाद सदन के अध्यक्ष ने विपक्ष के नेता लालकृष्ण आडवाणी को इस प्रस्ताव पर चर्चा आगे बढ़ाने के लिए आमंत्रित किया. आडवाणीजी 20 मिनट से ज्यादा बोल चुके हैं लेकिन अब तक गृह मंत्री द्वारा पेश किए गए बिल से अपनी 'सैद्धांतिक सहमति' जताने के अलावा कुछ नहीं बोला है उन्होंने. 20-25 मिनट से पकाए जा रहे हैं. कहे जा रहे हैं कि किस तरह दस साल पहले ही उन्होंने आतंकवाद से निपटने के रास्ते ढूंढ लिया था. उन्होंने मौजूदा सरकार को दृष्टिहीन बताया, ये भी बताया कि सरकार की निंद देर से खुली है. पता नहीं क्या-क्या बोला आडवाणीजी ने. सुनकर किसी भी क्षण ऐसा नहीं लगा कि उनकी किसी भी बात से कोई संदेश मिलेगा इस देश को. कितने स्वार्थी हैं आडवाणीजी. जो बोलते हैं वोट की दृष्टि से ही बोलते हैं. पता है कि देश के लोग देख रहे हैं, अच्छा मौक़ा है रिझाने का; सो रिझाने लगे.
गृहमंत्री द्वारा पेश किए गए दोनों विधेयकों में क्या-क्या है या होगा: अंदाज़ा लगाना मुश्किल नहीं है. इससे पहले भी आते रहे हैं ऐसे विधेयक, बनते रहे हैं क़ानून और इक्के-दुक्के मामलों को छोड़कर कमज़ोर लोगों पर इन क़ानूनों के तहत अत्याचार किया जाता रहा है. मतलब ये कि थोड़ा घटा-बढा कर फिर कोई टाडा या पोटा आ जाएगा जिसे अख़बार और टेलीविज़न वाले बता देंगे. अन्यथा कई अन्य स्रोतों से पता चल जाएगा. हम विश्लेषण कर लेंगे कि दोनों विधेयकों में आतंकवाद को रोकने की कूवत है या नहीं, कहीं ये विधेयक हमारे बुनियानी आजादी तो नहीं छीन लेंगे, या किसी धर्म, जाति, रंग या किसी अन्य मसलों से प्रेरित तो नहीं हैं ये विधेयक, आदि-आदि. पर आडवाणीजी ने जो कहा, उनमें इन विधेयकों पर उनकी राय के अलावा अपने आप को आतंकवाद का चैंपियन बताने के अलावा उन्होंने कुछ नहीं कहा्. आज आडवाणीजी को सुनकर लगा कि ये आदमी आठ दशक जी लेने के बाद भी बचकानी हरकते ख़ूब करता है. जैसे बच्चे झूठ बोलते हैं, गाल बजाते हैं, बात-बात पर अपनी राय और पोजिशन बदलते हैं, चीखने-चिल्लाने लगते है, छाव धरते हैं, इतराते हैं, अगराते हैं, डराते हैं, धमकाते हैं, पैर पटकते हैं, नाक-भौं चमकात हैं, आदि-आदि; लालकृष्ण आडवाणी को सुनकर लगा कि इनके स्वभाव में ये सारे लक्ष्ण प्रचूर मात्रा में मौजूद है.
शाम तक शायद ये दोनों विधेयक पारित हो जाएं. मुझ जैसे एक टैक्सपेयर को उस वक़्त बड़ी खुशी होगी जब इन विधेयकों के क़ानून बन जाने के बाद इनके तहत सबसे पहले आडवाणीजी पर क़ानूनी कार्रवाई की जाएगी. शायद इन क़ानूनों के तहत कार्रवाई के लिए इनके मुक़ाबले का योग्य पात्र कम ही मिल पाएगा.
सन् 92 में इन्होंने देश भर से नौजवानों को बरगला कर उत्तरप्रदेश के फ़ैज़ाबाद जिले के अयोध्या नामक क़सबे में इकट्ठा किया. इस क्रम में जगह-जगह अयोध्या पहुंचने वालों की हुड़दंगी कार्रवाइयों से लाखों का नुकसान हुआ. इतना ही नहीं लालकृष्ण की अगुवाई में 6 दिसंबर को इन लोगों ने भारतीय पुरातत्त्व के नज़रिए से बेहद महत्त्वपूर्ण इमारत को ढाह दिया दिया. आडवाणीजी के नेतृत्व में देश भर में सिर पर केसरिया पट्टी बांधे लोग सरेआम अस्त्र-शस्त्र लेकर नाचते रहे. न जाने कितनी हत्याएं हुईं, कितने घर और अस्मत लुटे उस दौरान और उसके बाद; इतिहास के पन्नों में दर्ज हैं. क्या इतना संगठित अपराध और उसका नेतृत्व करना आतंकवादी कार्रवाई नहीं है? अपने हिसाब से तो है. है तो आडवाणीजी फिट पात्र हैं इसके तहत बुक करने के लिए.
ये आडवाणीजी न केवल आतंकवादी हैं, बल्कि शायद देशद्रोही भी हैं. संविधान के मुताबिक़ हमारे देश का नाम भारत और इंडिया है. वैसे तो यहां-वहां बोलते ही रहते हैं लेकिन आज लोक सभा में अपने भाषण के दौरान भी कम से कम एक दर्जन से ज़्यादा बार आडवाणीजी ने हिन्दुस्थान उच्चारित करके हमारे देश के संविधान का न केवल उल्लंघन किया बल्कि कलंकित भी किया. हमारी ये बदकिस्मती है कि जिस सख़्श को आतंकवादी और देशद्रोही कार्रवाइयों के लिए सलाखों के पीछे होना चाहिए था आज संसद में बैठकर हमारे लिए क़ानून बना रहा है और कल प्रधानमंत्री बनने का सपना देख रहा है.
गृहमंत्री द्वारा पेश किए गए दोनों विधेयकों में क्या-क्या है या होगा: अंदाज़ा लगाना मुश्किल नहीं है. इससे पहले भी आते रहे हैं ऐसे विधेयक, बनते रहे हैं क़ानून और इक्के-दुक्के मामलों को छोड़कर कमज़ोर लोगों पर इन क़ानूनों के तहत अत्याचार किया जाता रहा है. मतलब ये कि थोड़ा घटा-बढा कर फिर कोई टाडा या पोटा आ जाएगा जिसे अख़बार और टेलीविज़न वाले बता देंगे. अन्यथा कई अन्य स्रोतों से पता चल जाएगा. हम विश्लेषण कर लेंगे कि दोनों विधेयकों में आतंकवाद को रोकने की कूवत है या नहीं, कहीं ये विधेयक हमारे बुनियानी आजादी तो नहीं छीन लेंगे, या किसी धर्म, जाति, रंग या किसी अन्य मसलों से प्रेरित तो नहीं हैं ये विधेयक, आदि-आदि. पर आडवाणीजी ने जो कहा, उनमें इन विधेयकों पर उनकी राय के अलावा अपने आप को आतंकवाद का चैंपियन बताने के अलावा उन्होंने कुछ नहीं कहा्. आज आडवाणीजी को सुनकर लगा कि ये आदमी आठ दशक जी लेने के बाद भी बचकानी हरकते ख़ूब करता है. जैसे बच्चे झूठ बोलते हैं, गाल बजाते हैं, बात-बात पर अपनी राय और पोजिशन बदलते हैं, चीखने-चिल्लाने लगते है, छाव धरते हैं, इतराते हैं, अगराते हैं, डराते हैं, धमकाते हैं, पैर पटकते हैं, नाक-भौं चमकात हैं, आदि-आदि; लालकृष्ण आडवाणी को सुनकर लगा कि इनके स्वभाव में ये सारे लक्ष्ण प्रचूर मात्रा में मौजूद है.
शाम तक शायद ये दोनों विधेयक पारित हो जाएं. मुझ जैसे एक टैक्सपेयर को उस वक़्त बड़ी खुशी होगी जब इन विधेयकों के क़ानून बन जाने के बाद इनके तहत सबसे पहले आडवाणीजी पर क़ानूनी कार्रवाई की जाएगी. शायद इन क़ानूनों के तहत कार्रवाई के लिए इनके मुक़ाबले का योग्य पात्र कम ही मिल पाएगा.
सन् 92 में इन्होंने देश भर से नौजवानों को बरगला कर उत्तरप्रदेश के फ़ैज़ाबाद जिले के अयोध्या नामक क़सबे में इकट्ठा किया. इस क्रम में जगह-जगह अयोध्या पहुंचने वालों की हुड़दंगी कार्रवाइयों से लाखों का नुकसान हुआ. इतना ही नहीं लालकृष्ण की अगुवाई में 6 दिसंबर को इन लोगों ने भारतीय पुरातत्त्व के नज़रिए से बेहद महत्त्वपूर्ण इमारत को ढाह दिया दिया. आडवाणीजी के नेतृत्व में देश भर में सिर पर केसरिया पट्टी बांधे लोग सरेआम अस्त्र-शस्त्र लेकर नाचते रहे. न जाने कितनी हत्याएं हुईं, कितने घर और अस्मत लुटे उस दौरान और उसके बाद; इतिहास के पन्नों में दर्ज हैं. क्या इतना संगठित अपराध और उसका नेतृत्व करना आतंकवादी कार्रवाई नहीं है? अपने हिसाब से तो है. है तो आडवाणीजी फिट पात्र हैं इसके तहत बुक करने के लिए.
ये आडवाणीजी न केवल आतंकवादी हैं, बल्कि शायद देशद्रोही भी हैं. संविधान के मुताबिक़ हमारे देश का नाम भारत और इंडिया है. वैसे तो यहां-वहां बोलते ही रहते हैं लेकिन आज लोक सभा में अपने भाषण के दौरान भी कम से कम एक दर्जन से ज़्यादा बार आडवाणीजी ने हिन्दुस्थान उच्चारित करके हमारे देश के संविधान का न केवल उल्लंघन किया बल्कि कलंकित भी किया. हमारी ये बदकिस्मती है कि जिस सख़्श को आतंकवादी और देशद्रोही कार्रवाइयों के लिए सलाखों के पीछे होना चाहिए था आज संसद में बैठकर हमारे लिए क़ानून बना रहा है और कल प्रधानमंत्री बनने का सपना देख रहा है.
10.12.08
'दिल्लीवालों को भी मेरी याद आती है?' : आचार्य जानकी वल्लभ शास्त्री
मित्रों, माफ़ी चाहता हूं लंबे समय तक ब्लॉग से ग़ायब रहने के लिए. कोशिश करूंगा आगे फिर ऐसा न हो. पिछली मर्तबा मुज़फ़्फ़रपुर में आचार्य जानकीवल्लभ शास्त्रीजी से हुई मुलाक़ात से कुछ आपके साथ साझा कर रहा हूं.
शाम के क़रीब 5 बजे. जवाहर सिनेमा से वापसी के वक़्त रिक्शा नहीं लिया. पैदल टहल पड़ा. यह सोचते हुए कि आगे 'शेखर' और 'दीपक' पर भी नज़र मारते चलेंगे.अपने रामदयालु सिंह कॉलेज वाले दिनों में कभी-कभार इन सिनेमाघरों में जाना हुआ है. और वैसे हर स्थान या ठिकाने से मुझे लगाव है जिसके साथ किसी भी तरह का नाता रहा है.
लिहाज़ा चलता रहा. इतना मग्न था, चलते-चलते बाबा मुज़फ़्फ़रशाह के मज़ार से आगे निगल गया. तभी अचानक याद आया, क्यों न शास्त्री से मिलते चला जाए. पिछली बार सन् 1992 में देखा था. तब पचहत्तर वर्ष पूरे होने पर रामदयालु सिंह कॉलेज ने उनके सम्मान में एक समारोह किया था. मुड़ गया पुरानीं गुदरी रोड की ओर.
सोहल-सत्रह साल बाद गुज़र रहा था उधर था. काफ़ी कुछ बदला-बदला लग रहा था. कम-से-कम वो दो गलियां ग़ायब मिली जहां मारवाड़ी हाई स्कूल के दिनों में शुक्रबार को डेढ़ घंटे की टिफिन के दौरान हम आया करते थे. उन गलियों में तवायफ़ें रहा करती थीं. हम बड़ों की नज़रों से बचकर उनके नाज़-ओ-अदा देखा करते थे, और पकड़े जाने पर अपनी-अपनी साइकिल पर फांदकर भाग पड़ते थे. एक बार फिर से उन स्मृतियों में डूबते-उतरते आगे बढ़ता जा रहा था. सड़क किनारे घरों के दरवाज़ों पर पहले की तरह 'ममता रानी, सपना रानी, गायिका और नृत्यांगना' जैसी तख़्ती कम ही दिखी. हां, कुछ घरों से ढ़ोलक और तबले की थाप के साथ घुंघरू में सनी स्वरलहरियां ज़रूर आ रही थीं. अब मैं चतुर्भुज मंदिर के बिल्कुल सामने पहुंच चुका था. मुज़फ़्फ़रपुर में रहते हुए होली की शाम दोस्तों के साथ यहां आना होता था. चतुर्भुज की प्रतिमा पर अबीर लगाने वालों का ताता लगा रहता था. चतुर्भुज मंदिर के मुख्य द्वार से दायीं ओर कुछ क़दम की दूरी पर नीली पृष्ठभूमि पर सफ़ेद रंग से उकेरे गए 'निराला निकेतन' वाला बड़ा-सा बोर्ड आज भी यथावत टंगा है. बस नीलापन थोड़ा हल्का हो गया है.
हाते में दाखिल हुआ. एक सत्रह-अठारह साल का नौजवान गायों के नाद की ओर मुंह झुकाए कुछ कर रहा था, शायद दाने में पानी मिला रहा था. पूछने पर उसने बताया कि हां, शास्त्रीजी हैं, सामने ही बैठे हैं. दो-चार क़दम आगे बढ़ा, ग्रिल से घिरे बराम्दे पर तकिए के सहारे शास्त्रीजी बैठे मिले. चरण-स्पर्श किया. बड़े स्नेह से कहा उन्होंने, 'खुश रहिए'. लटपटाती है पर है आवाज़ बुलंद उनकी. अभी मैं उनको निहार ही रहा था कि पूछ बैठे, 'कहिए, रास्ता भूल गए हैं क्या? या किसी ने धक्का दे दिया है इस ओर?' एक पल को लगा जैसे शायद उन्हें मुझसे कोई शिकायत है... पर थोड़ी देर बातचीत के बाद लगा नहीं, ऐसा कुछ नहीं है. बढती उम्र और स्वास्थ्य ठीक न रहने के कारण कभी-कभी वे झल्ला जाते हैं.
ये सुनने के बाद कि मैं दिल्ली से आया हूं और उनसे मिलने की बड़ी इच्छा थी, शास्त्रीजी मुस्कुराते हुए बोले, 'हूं, अरे, ऐसा क्या है शास्त्री के पास कि इससे मिलने की इच्छा हो रही थी आपको! हूं, लेकिन आप कहते हैं तो ये तो आपका बड़प्पन है. अच्छा लगा जानकर. पर बताइए दिल्ली कैसी है, क्या कुछ हो रहा है वहां? दिल्लीवालों को भी मेरी याद आती है!' फिर हुं, हुं ... की ध्वनि निकालते हुए मुंह चलाने लगते हैं शास्त्रीजी. 'आपको मालूम है न, मैं अपना पांव तोड़कर बैठा हूं?' कहकर शास्त्रीजी थोड़ा आगे की ओर घिसके और बिस्तर पर गोरथारी में छोटी चौकी पर रखे डिब्बों को हिलाहिलाकर देखने लगे. थोड़ी देर में उन्होंने उन्हीं डिब्बों के नीचे रखे स्टील के एक टिफीन क ढक्कन खोला और उसमें हर डिब्बे में से थोड़ा-थोड़ा सामान निकाल कर मेरी ओर बढ़ा दिया. दो-तीन प्रकार के बिस्कुट, नमकीन, मिठाई, मखान ... इत्यादि मेरे ओर बढ़ाते हुए उन्होंने कहा, 'क्यों हिचकिचा रहे हैं, ले लीजिए, ये मेरा स्नेह है.' फिर बग़ल में विजयजी की ओर मुखातिब होते हुए बोल पड़े, 'थोड़ा तुम्हारे लिए भी निकालूं?' विजयजी के 'नहीं-नहीं, देर से खाना खाया हूं मैं ...' कहने पर बोल पड़े शास्त्रीजी, 'हूं, तुम तो आज तक लजाते हो!.' बेचारे विजयजी, शर्मा गए.
मैंने नाश्ते की प्याली हाथ में ठीक से संभाला भी नहीं था कि एक कुत्ता मेरी ओर लपका. पूंछ और जी(भ) से चीर-परिचित हरकत करता हुआ वो कुत्ता मेरी प्याली थाम लेना चाह रहा था. मैं असहज महसूस करने लगा था. हालांकि मैं श्वानप्रेमी नहीं हूं लेकिन पता नहीं क्यों मैं उस कुत्ते को डांट या धमका नहीं पा रहा था. आखिरकार मैंने शास्त्रीजी से पूछा, 'शास्त्रीजी, इसे भी दे दूं एक बिस्कुट?' शास्त्री बोले, 'कितना दीजिएगा, इसकी तो आदत ही यही है. अपने हिस्से का तो खाता ही है, औरों के हिस्से में से भी हिस्सा ले लेता है. ठग है ये ठग. दिन भर लोगों से ठग-ठग कर खाता रहता है. और कोई बात कहो, क्या मजाल कि मान ले! मैं तो इसे मक्कार कहता हूं. यहीं, मेरे बग़ल में, मेरे तकिए पर पड़ा रहता है और मैं देखता रहता हूं...'
फिलहाल इतना ही. अगले पोस्ट में शास्त्रीजी और निराला निकेतन में जुड़ी कुछ और दिलचस्प जानकारियां साझा करूंगा.
शाम के क़रीब 5 बजे. जवाहर सिनेमा से वापसी के वक़्त रिक्शा नहीं लिया. पैदल टहल पड़ा. यह सोचते हुए कि आगे 'शेखर' और 'दीपक' पर भी नज़र मारते चलेंगे.अपने रामदयालु सिंह कॉलेज वाले दिनों में कभी-कभार इन सिनेमाघरों में जाना हुआ है. और वैसे हर स्थान या ठिकाने से मुझे लगाव है जिसके साथ किसी भी तरह का नाता रहा है.
लिहाज़ा चलता रहा. इतना मग्न था, चलते-चलते बाबा मुज़फ़्फ़रशाह के मज़ार से आगे निगल गया. तभी अचानक याद आया, क्यों न शास्त्री से मिलते चला जाए. पिछली बार सन् 1992 में देखा था. तब पचहत्तर वर्ष पूरे होने पर रामदयालु सिंह कॉलेज ने उनके सम्मान में एक समारोह किया था. मुड़ गया पुरानीं गुदरी रोड की ओर.
सोहल-सत्रह साल बाद गुज़र रहा था उधर था. काफ़ी कुछ बदला-बदला लग रहा था. कम-से-कम वो दो गलियां ग़ायब मिली जहां मारवाड़ी हाई स्कूल के दिनों में शुक्रबार को डेढ़ घंटे की टिफिन के दौरान हम आया करते थे. उन गलियों में तवायफ़ें रहा करती थीं. हम बड़ों की नज़रों से बचकर उनके नाज़-ओ-अदा देखा करते थे, और पकड़े जाने पर अपनी-अपनी साइकिल पर फांदकर भाग पड़ते थे. एक बार फिर से उन स्मृतियों में डूबते-उतरते आगे बढ़ता जा रहा था. सड़क किनारे घरों के दरवाज़ों पर पहले की तरह 'ममता रानी, सपना रानी, गायिका और नृत्यांगना' जैसी तख़्ती कम ही दिखी. हां, कुछ घरों से ढ़ोलक और तबले की थाप के साथ घुंघरू में सनी स्वरलहरियां ज़रूर आ रही थीं. अब मैं चतुर्भुज मंदिर के बिल्कुल सामने पहुंच चुका था. मुज़फ़्फ़रपुर में रहते हुए होली की शाम दोस्तों के साथ यहां आना होता था. चतुर्भुज की प्रतिमा पर अबीर लगाने वालों का ताता लगा रहता था. चतुर्भुज मंदिर के मुख्य द्वार से दायीं ओर कुछ क़दम की दूरी पर नीली पृष्ठभूमि पर सफ़ेद रंग से उकेरे गए 'निराला निकेतन' वाला बड़ा-सा बोर्ड आज भी यथावत टंगा है. बस नीलापन थोड़ा हल्का हो गया है.
हाते में दाखिल हुआ. एक सत्रह-अठारह साल का नौजवान गायों के नाद की ओर मुंह झुकाए कुछ कर रहा था, शायद दाने में पानी मिला रहा था. पूछने पर उसने बताया कि हां, शास्त्रीजी हैं, सामने ही बैठे हैं. दो-चार क़दम आगे बढ़ा, ग्रिल से घिरे बराम्दे पर तकिए के सहारे शास्त्रीजी बैठे मिले. चरण-स्पर्श किया. बड़े स्नेह से कहा उन्होंने, 'खुश रहिए'. लटपटाती है पर है आवाज़ बुलंद उनकी. अभी मैं उनको निहार ही रहा था कि पूछ बैठे, 'कहिए, रास्ता भूल गए हैं क्या? या किसी ने धक्का दे दिया है इस ओर?' एक पल को लगा जैसे शायद उन्हें मुझसे कोई शिकायत है... पर थोड़ी देर बातचीत के बाद लगा नहीं, ऐसा कुछ नहीं है. बढती उम्र और स्वास्थ्य ठीक न रहने के कारण कभी-कभी वे झल्ला जाते हैं.
ये सुनने के बाद कि मैं दिल्ली से आया हूं और उनसे मिलने की बड़ी इच्छा थी, शास्त्रीजी मुस्कुराते हुए बोले, 'हूं, अरे, ऐसा क्या है शास्त्री के पास कि इससे मिलने की इच्छा हो रही थी आपको! हूं, लेकिन आप कहते हैं तो ये तो आपका बड़प्पन है. अच्छा लगा जानकर. पर बताइए दिल्ली कैसी है, क्या कुछ हो रहा है वहां? दिल्लीवालों को भी मेरी याद आती है!' फिर हुं, हुं ... की ध्वनि निकालते हुए मुंह चलाने लगते हैं शास्त्रीजी. 'आपको मालूम है न, मैं अपना पांव तोड़कर बैठा हूं?' कहकर शास्त्रीजी थोड़ा आगे की ओर घिसके और बिस्तर पर गोरथारी में छोटी चौकी पर रखे डिब्बों को हिलाहिलाकर देखने लगे. थोड़ी देर में उन्होंने उन्हीं डिब्बों के नीचे रखे स्टील के एक टिफीन क ढक्कन खोला और उसमें हर डिब्बे में से थोड़ा-थोड़ा सामान निकाल कर मेरी ओर बढ़ा दिया. दो-तीन प्रकार के बिस्कुट, नमकीन, मिठाई, मखान ... इत्यादि मेरे ओर बढ़ाते हुए उन्होंने कहा, 'क्यों हिचकिचा रहे हैं, ले लीजिए, ये मेरा स्नेह है.' फिर बग़ल में विजयजी की ओर मुखातिब होते हुए बोल पड़े, 'थोड़ा तुम्हारे लिए भी निकालूं?' विजयजी के 'नहीं-नहीं, देर से खाना खाया हूं मैं ...' कहने पर बोल पड़े शास्त्रीजी, 'हूं, तुम तो आज तक लजाते हो!.' बेचारे विजयजी, शर्मा गए.
मैंने नाश्ते की प्याली हाथ में ठीक से संभाला भी नहीं था कि एक कुत्ता मेरी ओर लपका. पूंछ और जी(भ) से चीर-परिचित हरकत करता हुआ वो कुत्ता मेरी प्याली थाम लेना चाह रहा था. मैं असहज महसूस करने लगा था. हालांकि मैं श्वानप्रेमी नहीं हूं लेकिन पता नहीं क्यों मैं उस कुत्ते को डांट या धमका नहीं पा रहा था. आखिरकार मैंने शास्त्रीजी से पूछा, 'शास्त्रीजी, इसे भी दे दूं एक बिस्कुट?' शास्त्री बोले, 'कितना दीजिएगा, इसकी तो आदत ही यही है. अपने हिस्से का तो खाता ही है, औरों के हिस्से में से भी हिस्सा ले लेता है. ठग है ये ठग. दिन भर लोगों से ठग-ठग कर खाता रहता है. और कोई बात कहो, क्या मजाल कि मान ले! मैं तो इसे मक्कार कहता हूं. यहीं, मेरे बग़ल में, मेरे तकिए पर पड़ा रहता है और मैं देखता रहता हूं...'
फिलहाल इतना ही. अगले पोस्ट में शास्त्रीजी और निराला निकेतन में जुड़ी कुछ और दिलचस्प जानकारियां साझा करूंगा.
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