22.12.08

उफ़ान


अविनाश झा सेंटर फ़ॉर स्टडी ऑफ़ डेवलपिंग सोसायटिज़ (सीएसडीएस) में सहायक पुस्तकालयाध्यक्ष की हैसियत से काम कर रहे हैं और मेरे अज़ीज़ों में से एक हैं. ज्ञान पर चिंतन-मनन और लिखना-पढ़ना इनका प्रिय शगल है. जो पता नहीं था वो है इनकी कविताई. अभी-अभी इनकी कुछ कविताएं मेरे हाथ लगी है. यद्यपि छपने-छपाने से अविनाशजी को परहेज है. पर उनसे माफ़ी मांगते हुए अपने पसंद की उनकी दो रचनाएं हफ़्तावार के पाठकों के साथ साझा कर रहा हूं और कुछ बाद में भी करूंगा.

उफ़ान

विगत का उफ़ान उठता है
किताब के पन्ने अनायास ही
फरफरा जाते हैं
और मैं
टूट जाता हूं
क्षण से
मोती खोजता हूं
किनारे के भुरभुरे
फेन को
उंगलियों से कुरेदते
बुलबुले
फूटते जाते हैं
समीकरण समय के
छूटते जाते हैं
मैं आकाश को
समन्दर के शीशे में
ढूंढने लगता हूं.


लाल रंग

सूर्य का रंग लाल हो, हो
रक् का रंग लाल हो, हो
क्या इतना काफ़ी नहीं
रक् में सूर्य मिल जाए
सूर्य रक् से बना हो .

1 comment:

  1. मैं आकाश को
    समन्‍दर के शीशे में
    ढूंढने लगता हूं.

    dono kavita behtreen hain.

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