19.9.07

राम सेतू, हेतु किसके ?

अपने भाई गिरिन्द्र ने अपने ब्लॉग पर पिछले हफ्ते का एक तजुर्बा शेयर किया था. वही रामसेतू के रखवालों? द्वारा किए गए जाम के बारे में दो-चार पंक्तियों में अपनी बात कहकर उन्होंने बीबीसी से साभार ख़बर का एक टुकड़ा भी लगाया था. उस पर कुछ 'राष्ट्रीय' प्रतीकों' के चौकीदारों (दावा तो यही करते हैं) ने अपनी प्रतिक्रियाएं दागी. दागीं इसलिए कह रहा हूं कि वे गोलियों से कम न मारक न थे. बचते-बचाते मैंने भी आत्मरक्षार्थ एक गोला तैयार किया. वैसे तो गिरिन्द्र भाई ने पहले ही इसे ब्लॉगल-विचरकों के लिए 'अनुभव' पर लगा दिया था. तरमीम के साथ मैं फिर एक आर आपके हवाले:

गिरीन्द्र, चलिए आपने बीबीसी से साभार एक ऐसा टुकड़ा अपने ब्लॉग पर लगा दिया कि हमारे रामभक्तों को लगने लगा कि उनके राम की छुट्टी की जा रही है। संजीवजी या हमारे ऐसे जितने मित्र हैं उनसे अनुरोध है कि इतने सशंकित न हों. राम को अपनी हिफ़ाजत के लिए कम से कम आप या भाई तोगडिया या उन जैसे लोगों की ज़रूरत नहीं पड़ेगी. आपकी सहुलियत के लिए बता दूं कि जब हम अभिवादन में राम-राम करते हैं तो उसका मतलब ये नहीं होता है कि हम आपके एजेंडे में शरीक हो रहे हैं, उसके वाहक हो रहे हैं.

भाई हमारा राम जो है, बड़ा भला इंसान है. वो यहां के हज़ारों-लाखों के दिलों में है. वो लड़ाकू तो बिल्कुल ही नहीं है. RSS Pt. Ltd. ने तो उसको गुंडा-मवाली टाइप बना दिया है. उससे ज़मीन क़ब्ज़ा करवाते हैं.‍ जहां-तहां हुड़दंग करवाते हैं. हमारा राम सीधा-साधा था. पता नहीं किस चक्कर में पड़ के समाज-विरोधी गतिविधियों में शामिल हो गया. मुझे लगता है वो ख़ुद ऐसी हरकत करता नहीं होगा, उसे ज़रूर कुछ गुण्डे उठा ले गए होंगे, या फिर किसी उसकी कनपटी में कट्टा लगा दिया होगा या गले में रामपुरी.

वैसे भी हमारे समाज में अपनी काया और अपने मेहनत पर भरोसा करने वाले अल्पसंख्यक हैं, बेचारे टाईप. जिन्हें अपनी काया और मेहनत पर यक़ीन नहीं है वे ही लोग ब्राह्मणवाद, देवी-देवता, ओझा-भगत, डाइन-जोगिन, भूत-पिशात, छूत-अछूत ... में भारी यक़ीन करते हैं, और दुसरों को ऐसा करने के लिए उकसाते हैं. अब तो तरह-तरह से मजबूर भी करने लगे हैं. हैरत देखिए कि जब कोई इनका भेद खोलने की कोशिश करता है तो ये उसके पूर्जे खोलने के चक्कर में लग जाते हैं. पूर्जा खोलना माने, अस्थि - पंजर छिटकाना. इसकी कई तरक़ीब हैं उनके पास जिसके बारे में खुलासा कभी और करेंगे.

असल में राम वैसे तो था बड़ा सीधा-साधा लेकिन राजगद्दी के चक्कर में उसने भी कम दाव-पेंच नहीं खेले. क्या है कि राजनीति में तो ये सब करना पड़ता है. गद्दी सामने देखकर लोग राजधर्म के नाम पर कभी-कभी ग़लती भी कर जाते हैं. तो अपना राम भी एक बार बताया कि भइया हमारे बारे में ग्रंथ वग़ैरह में काफ़ी कुछ फ़िक्शन भी लिखा है. इतना बड़ा मैं था नहीं लेकिन कुछ लोग तब भी मेरे नाम पर रोटी सेंकने की फिराक में था. मुझे पुरुषोत्तम बना दिया. भइया, मैंने स्त्री विरोध का काम भी ख़ूब किया, नहीं? सबसे बड़ा प्रमाण गर्भवती पत्नी सीता को जंगल भेज दिया. बाल-बच्च भी साधु के जिम्मे ही रहे. जब तक चाहा भाइयों को भी नचाया. ज्यादा से ज्यादा सेनापति वगैरह की जिम्मेदारी दी उन्हें, और शंबूक वाला प्रकरण तो तुम जानते ही हो, करना पड़ा.

तो क्या है कि आज भी रातोंरात रातोंरात अमीर, दबंग, प्रतिष्ठित, प्रभावशाली, वर्चस्वशाली बनने के लिए हमारे आस-पास के लोग कुछ भी छल-प्रपंच रच लेते हैं. आप ही बताइए जिसको कुछ लोग राम सेतू कह रहे हैं, अगर अपने रामजी ही बनवाए थे वानरों के लंका प्रवेश के लिए तो ठीक ही किया होगा. लेकिन देखिए, राम कितने कमज़ोर विवेक वाले राजा निकले. काम हो गया, सीताजी को ले आए, साथ में रावणजी का घर भी तोड़ दिया, उनके भाई को अपने में मिला लिया - उसके बाद तो उस ब्रिज को तो तोड़ देना चाहिए था न। नहीं किए, क्यों? सोचा होगा बाद में फिर कोई लफ़डा होगा? असल में उस समय का प्रोपर्टी डीलर, ठेकेदार वगैरह भारी पड़ गया होगा. मुझे तो ऐसा ही लगता है. देखिए न, आज भी यही हो रहा है न. अब उस दिन जो रामसेतू के नाम पर उधम-कूद मची दिल्ली में, क्या लगता है आपको सब जायज था?

इतने सारे पुल टूट रहे हैं या तोड़े जा रहे हैं - उसके खिलाफ़ देशभक्तों के मुंह से कभी बकार नहीं निकलती है. और तो और मंदिरों को बांध-वांध के चक्कर में डूबोया जा रहा है. गुजरात में ही ऐसा हुआ है. सरेआम मंदिरों और मजारों को ध्वस्त किया गया. महानायकों और ईश्वरों की पीढियों का हिसाब-किताब रखने वाली कंपनी का कोई कमांडर तक नहीं बोला कभी.

'अनुभव' पर अपने कुछ ऐसे ही भाइयों ने जिक्र किया था कि कुतुब मी‍नार के कारण मेट्रो का रास्ता बदल दिया गया, ताजमहल की सफ़ाई के नाम पर जनता के जुल्म हो रहा है उधर आगरा में, लेकिन उस पर 'अनुभव' वाले भाई या इन जैसे लोग कुछ नहीं लिखते हैं. मेरा उन भाइयों से कहना है कि मेट्रो की चपेट में कितने घर, कितने परिवार, कितने लोग आए - आपने सोचा नहीं होगा. सोचा भी होगा तो उस पर कभी बोलने की नहीं सोची होगी. जहां तक कुतुबर मीनार के कारण मेट्रो का रास्ता मोड़ने की बात है, तो मेरा कोई ख़ास आग्रह नहीं है रास्ता आपके सुझाए रखने के खिलाफ या जो हो रहा है उसके खिलाफ. भई, मुझे तो यही लग रहा है कि देसी-विदेशी लोग आते हैं - सरकारी कोष में कुछ पैसा चढ़ा जाते हैं. कुल मिला कर कुछ फायदा, अगर आप ख़ुद को भी देश का हिस्सा मानते हैं तो, हमारे नाम भी आ जाता है. ये अलग बात है कि जिस तरह उसे ख़र्च होना चाहिए था - वो नहीं हो पा रहा है. रही ताजमहल वाली बात, तो भइया, वहां भी यही बात लागू होती है. लेकिन वहां ताजमहल के गंदा होने के नाम पर कल-कारखाने हटाए जाते हैं या लोगों को परेशान किया जाता है, तो तकलीफ वाली बात तो है ही. पर इससे भी दुख की बात ये है कि RSS & Party को कभी इस बात से ऐतराज हुई हो और उसने कभी अपने सांसदो, विधायकों, या सभासदों को इस्तीफ़ा देने के लिए एक बार भी कहा हो - कहीं पढ़ने या सुनने को नहीं मिला.

तो अपने परिचित, मित्र, और कार्यकर्ता के तौर पर मैं संजीव जी (अनुभव पर प्रतिक्रिया देने वाले) या ऐसे भाइयों की बहुत इज़्ज़त करता हूं, पर आप और आप जैसे मुट्ठी भर बंधुओं (क्योंकि ज्यादातर को तो इन फूसफास में यकीन ही नहीं है) की भावनाओं का कद्र कर पाने में ख़ुद को असमर्थ पाता हूं क्योंकि आपकी भावनाएं बेहद कमज़ोर हैं. बात-बात में आहत हो जाती हैं. कभी पुल से, कभी पेंटिंग से, कभी भोजन से, कभी ड्रेस से, कभी किताब से तो कभी वेलेंटाइन से. फिल्म और संगीत से तो अकसर आप जैसे मित्रों की भावनाएं ठेस खा जाती हैं. हर ठेस के बाद ऐसे ही कभी आप जैसे लोग जाम करते हैं, कभी पुतला फूंकते हैं (चाहते तो हैं वैसे आप पुतले के असली रूप को ही फूंकना), कभी लाठी चला देते हैं, कभी गोली चला देते हैं, कभी आग लगा देते हैं, कभी दंगा भड़का देते हैं. कभी-कभी तो आप जैसे कुछ मित्र सामूहिक बलात्कार भी कर लेते हैं महिलाओं के साथ. गिरिन्द्र भाई आपके माध्यम से मैं भाई संजीव और उन जैसे और भाइयों को यह सलाह देना चाहता हूं कि कृपया किसी अच्छे अस्पताल में अच्छे डॉक्टर से वे अपनी भावनाओं का इलाज कराएं. क्योंकि देखने में आया कि है कि पिछले कुछ सालों में दुनिया भर में और ख़ासकर के हिन्दुस्तान के कुछ ख़ास हिस्सों में कुछ ख़ास तरह के लोगों में यह रोग तेज़ी से फैलाया जा रहा है. ख़बर ये भी है कि इस रोग को फैलाने में गुजरात प्रांत में एक अंग्रेजी पद्ध्‍ति से इलाज करने वाले एक डॉक्टर की बड़ी भूमिका है. बिना टैबलेट और इंजेक्शन के डॉक्टर साहब इस रोग का किटाणु दुनिया भर में फैला रहे हैं. सुना है कि उनकी वाणि विषैली है और यह अदृश्य किटाणु उनकी जिह्वा पर निवास करता है। अब तो ये भी सुनने में आया है कि डॉक्टर साहब हथियार भी बांटने लगे हैं. बताया जाता है कि तीन नोंक वाले इस हथियार से किटाणु की रक्षा होती है, और जो लोग इस किटाणु से बचने का उपाय करते हैं उनको

8 comments:

  1. हिन्दि मे खोज!
    http://www.yanthram.com/hi/

    हिन्दि खोज अपका सैटु के लिये!
    http://hindiyanthram.blogspot.com/

    हिन्दि खोज आपका गुगुल पहेला पेजि के लिये!
    http://www.google.com/ig/adde?hl=en&moduleurl=http://hosting.gmodules.com/ig/gadgets/file/112207795736904815567/hindi-yanthram.xml&source=imag

    ReplyDelete
  2. 19.9.07
    राम सेतू, हेतु किसके ?
    अपने भाई गिरिन्द्र ने अपने ब्लॉग पर पिछले हफ्ते का एक तजुर्बा शेयर किया था. वही रामसेतू के रखवालों? द्वारा किए गए जाम के बारे में दो-चार पंक्तियों में अपनी बात कहकर उन्होंने बीबीसी से साभार ख़बर का एक टुकड़ा भी लगाया था. उस पर कुछ 'राष्ट्रीय' प्रतीकों' के चौकीदारों (दावा तो यही करते हैं) ने अपनी प्रतिक्रियाएं दागी. दागीं इसलिए कह रहा हूं कि वे गोलियों से कम न मारक न थे. बचते-बचाते मैंने भी आत्मरक्षार्थ एक गोला तैयार किया. वैसे तो गिरिन्द्र भाई ने पहले ही इसे ब्लॉगल-विचरकों के लिए 'अनुभव' पर लगा दिया था. तरमीम के साथ मैं फिर एक आर आपके हवाले:

    गिरीन्द्र, चलिए आपने बीबीसी से साभार एक ऐसा टुकड़ा अपने ब्लॉग पर लगा दिया कि हमारे रामभक्तों को लगने लगा कि उनके राम की छुट्टी की जा रही है। संजीवजी या हमारे ऐसे जितने मित्र हैं उनसे अनुरोध है कि इतने सशंकित न हों. राम को अपनी हिफ़ाजत के लिए कम से कम आप या भाई तोगडिया या उन जैसे लोगों की ज़रूरत नहीं पड़ेगी. आपकी सहुलियत के लिए बता दूं कि जब हम अभिवादन में राम-राम करते हैं तो उसका मतलब ये नहीं होता है कि हम आपके एजेंडे में शरीक हो रहे हैं, उसके वाहक हो रहे हैं.

    भाई हमारा राम जो है, बड़ा भला इंसान है. वो यहां के हज़ारों-लाखों के दिलों में है. वो लड़ाकू तो बिल्कुल ही नहीं है. RSS Pt. Ltd. ने तो उसको गुंडा-मवाली टाइप बना दिया है. उससे ज़मीन क़ब्ज़ा करवाते हैं.‍ जहां-तहां हुड़दंग करवाते हैं. हमारा राम सीधा-साधा था. पता नहीं किस चक्कर में पड़ के समाज-विरोधी गतिविधियों में शामिल हो गया. मुझे लगता है वो ख़ुद ऐसी हरकत करता नहीं होगा, उसे ज़रूर कुछ गुण्डे उठा ले गए होंगे, या फिर किसी उसकी कनपटी में कट्टा लगा दिया होगा या गले में रामपुरी.

    वैसे भी हमारे समाज में अपनी काया और अपने मेहनत पर भरोसा करने वाले अल्पसंख्यक हैं, बेचारे टाईप. जिन्हें अपनी काया और मेहनत पर यक़ीन नहीं है वे ही लोग ब्राह्मणवाद, देवी-देवता, ओझा-भगत, डाइन-जोगिन, भूत-पिशात, छूत-अछूत ... में भारी यक़ीन करते हैं, और दुसरों को ऐसा करने के लिए उकसाते हैं. अब तो तरह-तरह से मजबूर भी करने लगे हैं. हैरत देखिए कि जब कोई इनका भेद खोलने की कोशिश करता है तो ये उसके पूर्जे खोलने के चक्कर में लग जाते हैं. पूर्जा खोलना माने, अस्थि - पंजर छिटकाना. इसकी कई तरक़ीब हैं उनके पास जिसके बारे में खुलासा कभी और करेंगे.

    असल में राम वैसे तो था बड़ा सीधा-साधा लेकिन राजगद्दी के चक्कर में उसने भी कम दाव-पेंच नहीं खेले. क्या है कि राजनीति में तो ये सब करना पड़ता है. गद्दी सामने देखकर लोग राजधर्म के नाम पर कभी-कभी ग़लती भी कर जाते हैं. तो अपना राम भी एक बार बताया कि भइया हमारे बारे में ग्रंथ वग़ैरह में काफ़ी कुछ फ़िक्शन भी लिखा है. इतना बड़ा मैं था नहीं लेकिन कुछ लोग तब भी मेरे नाम पर रोटी सेंकने की फिराक में था. मुझे पुरुषोत्तम बना दिया. भइया, मैंने स्त्री विरोध का काम भी ख़ूब किया, नहीं? सबसे बड़ा प्रमाण गर्भवती पत्नी सीता को जंगल भेज दिया. बाल-बच्च भी साधु के जिम्मे ही रहे. जब तक चाहा भाइयों को भी नचाया. ज्यादा से ज्यादा सेनापति वगैरह की जिम्मेदारी दी उन्हें, और शंबूक वाला प्रकरण तो तुम जानते ही हो, करना पड़ा.

    तो क्या है कि आज भी रातोंरात रातोंरात अमीर, दबंग, प्रतिष्ठित, प्रभावशाली, वर्चस्वशाली बनने के लिए हमारे आस-पास के लोग कुछ भी छल-प्रपंच रच लेते हैं. आप ही बताइए जिसको कुछ लोग राम सेतू कह रहे हैं, अगर अपने रामजी ही बनवाए थे वानरों के लंका प्रवेश के लिए तो ठीक ही किया होगा. लेकिन देखिए, राम कितने कमज़ोर विवेक वाले राजा निकले. काम हो गया, सीताजी को ले आए, साथ में रावणजी का घर भी तोड़ दिया, उनके भाई को अपने में मिला लिया - उसके बाद तो उस ब्रिज को तो तोड़ देना चाहिए था न। नहीं किए, क्यों? सोचा होगा बाद में फिर कोई लफ़डा होगा? असल में उस समय का प्रोपर्टी डीलर, ठेकेदार वगैरह भारी पड़ गया होगा. मुझे तो ऐसा ही लगता है. देखिए न, आज भी यही हो रहा है न. अब उस दिन जो रामसेतू के नाम पर उधम-कूद मची दिल्ली में, क्या लगता है आपको सब जायज था?

    इतने सारे पुल टूट रहे हैं या तोड़े जा रहे हैं - उसके खिलाफ़ देशभक्तों के मुंह से कभी बकार नहीं निकलती है. और तो और मंदिरों को बांध-वांध के चक्कर में डूबोया जा रहा है. गुजरात में ही ऐसा हुआ है. सरेआम मंदिरों और मजारों को ध्वस्त किया गया. महानायकों और ईश्वरों की पीढियों का हिसाब-किताब रखने वाली कंपनी का कोई कमांडर तक नहीं बोला कभी.

    'अनुभव' पर अपने कुछ ऐसे ही भाइयों ने जिक्र किया था कि कुतुब मी‍नार के कारण मेट्रो का रास्ता बदल दिया गया, ताजमहल की सफ़ाई के नाम पर जनता के जुल्म हो रहा है उधर आगरा में, लेकिन उस पर 'अनुभव' वाले भाई या इन जैसे लोग कुछ नहीं लिखते हैं. मेरा उन भाइयों से कहना है कि मेट्रो की चपेट में कितने घर, कितने परिवार, कितने लोग आए - आपने सोचा नहीं होगा. सोचा भी होगा तो उस पर कभी बोलने की नहीं सोची होगी. जहां तक कुतुबर मीनार के कारण मेट्रो का रास्ता मोड़ने की बात है, तो मेरा कोई ख़ास आग्रह नहीं है रास्ता आपके सुझाए रखने के खिलाफ या जो हो रहा है उसके खिलाफ. भई, मुझे तो यही लग रहा है कि देसी-विदेशी लोग आते हैं - सरकारी कोष में कुछ पैसा चढ़ा जाते हैं. कुल मिला कर कुछ फायदा, अगर आप ख़ुद को भी देश का हिस्सा मानते हैं तो, हमारे नाम भी आ जाता है. ये अलग बात है कि जिस तरह उसे ख़र्च होना चाहिए था - वो नहीं हो पा रहा है. रही ताजमहल वाली बात, तो भइया, वहां भी यही बात लागू होती है. लेकिन वहां ताजमहल के गंदा होने के नाम पर कल-कारखाने हटाए जाते हैं या लोगों को परेशान किया जाता है, तो तकलीफ वाली बात तो है ही. पर इससे भी दुख की बात ये है कि RSS & Party को कभी इस बात से ऐतराज हुई हो और उसने कभी अपने सांसदो, विधायकों, या सभासदों को इस्तीफ़ा देने के लिए एक बार भी कहा हो - कहीं पढ़ने या सुनने को नहीं मिला.

    तो अपने परिचित, मित्र, और कार्यकर्ता के तौर पर मैं संजीव जी (अनुभव पर प्रतिक्रिया देने वाले) या ऐसे भाइयों की बहुत इज़्ज़त करता हूं, पर आप और आप जैसे मुट्ठी भर बंधुओं (क्योंकि ज्यादातर को तो इन फूसफास में यकीन ही नहीं है) की भावनाओं का कद्र कर पाने में ख़ुद को असमर्थ पाता हूं क्योंकि आपकी भावनाएं बेहद कमज़ोर हैं. बात-बात में आहत हो जाती हैं. कभी पुल से, कभी पेंटिंग से, कभी भोजन से, कभी ड्रेस से, कभी किताब से तो कभी वेलेंटाइन से. फिल्म और संगीत से तो अकसर आप जैसे मित्रों की भावनाएं ठेस खा जाती हैं. हर ठेस के बाद ऐसे ही कभी आप जैसे लोग जाम करते हैं, कभी पुतला फूंकते हैं (चाहते तो हैं वैसे आप पुतले के असली रूप को ही फूंकना), कभी लाठी चला देते हैं, कभी गोली चला देते हैं, कभी आग लगा देते हैं, कभी दंगा भड़का देते हैं. कभी-कभी तो आप जैसे कुछ मित्र सामूहिक बलात्कार भी कर लेते हैं महिलाओं के साथ. गिरिन्द्र भाई आपके माध्यम से मैं भाई संजीव और उन जैसे और भाइयों को यह सलाह देना चाहता हूं कि कृपया किसी अच्छे अस्पताल में अच्छे डॉक्टर से वे अपनी भावनाओं का इलाज कराएं. क्योंकि देखने में आया कि है कि पिछले कुछ सालों में दुनिया भर में और ख़ासकर के हिन्दुस्तान के कुछ ख़ास हिस्सों में कुछ ख़ास तरह के लोगों में यह रोग तेज़ी से फैलाया जा रहा है. ख़बर ये भी है कि इस रोग को फैलाने में गुजरात प्रांत में एक अंग्रेजी पद्ध्‍ति से इलाज करने वाले एक डॉक्टर की बड़ी भूमिका है. बिना टैबलेट और इंजेक्शन के डॉक्टर साहब इस रोग का किटाणु दुनिया भर में फैला रहे हैं. सुना है कि उनकी वाणि विषैली है और यह अदृश्य किटाणु उनकी जिह्वा पर निवास करता है। अब तो ये भी सुनने में आया है कि डॉक्टर साहब हथियार भी बांटने लगे हैं. बताया जाता है कि तीन नोंक वाले इस हथियार से किटाणु की रक्षा होती है, और जो लोग इस किटाणु से बचने का उपाय करते हैं उनको ठंडा गोश्त में तब्दील कर देने में सुविधा होती है.

    ReplyDelete
  3. 19.9.07
    राम सेतू, हेतु किसके ?
    अपने भाई गिरिन्द्र ने अपने ब्लॉग पर पिछले हफ्ते का एक तजुर्बा शेयर किया था. वही रामसेतू के रखवालों? द्वारा किए गए जाम के बारे में दो-चार पंक्तियों में अपनी बात कहकर उन्होंने बीबीसी से साभार ख़बर का एक टुकड़ा भी लगाया था. उस पर कुछ 'राष्ट्रीय' प्रतीकों' के चौकीदारों (दावा तो यही करते हैं) ने अपनी प्रतिक्रियाएं दागी. दागीं इसलिए कह रहा हूं कि वे गोलियों से कम न मारक न थे. बचते-बचाते मैंने भी आत्मरक्षार्थ एक गोला तैयार किया. वैसे तो गिरिन्द्र भाई ने पहले ही इसे ब्लॉगल-विचरकों के लिए 'अनुभव' पर लगा दिया था. तरमीम के साथ मैं फिर एक आर आपके हवाले:

    गिरीन्द्र, चलिए आपने बीबीसी से साभार एक ऐसा टुकड़ा अपने ब्लॉग पर लगा दिया कि हमारे रामभक्तों को लगने लगा कि उनके राम की छुट्टी की जा रही है। संजीवजी या हमारे ऐसे जितने मित्र हैं उनसे अनुरोध है कि इतने सशंकित न हों. राम को अपनी हिफ़ाजत के लिए कम से कम आप या भाई तोगडिया या उन जैसे लोगों की ज़रूरत नहीं पड़ेगी. आपकी सहुलियत के लिए बता दूं कि जब हम अभिवादन में राम-राम करते हैं तो उसका मतलब ये नहीं होता है कि हम आपके एजेंडे में शरीक हो रहे हैं, उसके वाहक हो रहे हैं.

    भाई हमारा राम जो है, बड़ा भला इंसान है. वो यहां के हज़ारों-लाखों के दिलों में है. वो लड़ाकू तो बिल्कुल ही नहीं है. RSS Pt. Ltd. ने तो उसको गुंडा-मवाली टाइप बना दिया है. उससे ज़मीन क़ब्ज़ा करवाते हैं.‍ जहां-तहां हुड़दंग करवाते हैं. हमारा राम सीधा-साधा था. पता नहीं किस चक्कर में पड़ के समाज-विरोधी गतिविधियों में शामिल हो गया. मुझे लगता है वो ख़ुद ऐसी हरकत करता नहीं होगा, उसे ज़रूर कुछ गुण्डे उठा ले गए होंगे, या फिर किसी उसकी कनपटी में कट्टा लगा दिया होगा या गले में रामपुरी.

    वैसे भी हमारे समाज में अपनी काया और अपने मेहनत पर भरोसा करने वाले अल्पसंख्यक हैं, बेचारे टाईप. जिन्हें अपनी काया और मेहनत पर यक़ीन नहीं है वे ही लोग ब्राह्मणवाद, देवी-देवता, ओझा-भगत, डाइन-जोगिन, भूत-पिशात, छूत-अछूत ... में भारी यक़ीन करते हैं, और दुसरों को ऐसा करने के लिए उकसाते हैं. अब तो तरह-तरह से मजबूर भी करने लगे हैं. हैरत देखिए कि जब कोई इनका भेद खोलने की कोशिश करता है तो ये उसके पूर्जे खोलने के चक्कर में लग जाते हैं. पूर्जा खोलना माने, अस्थि - पंजर छिटकाना. इसकी कई तरक़ीब हैं उनके पास जिसके बारे में खुलासा कभी और करेंगे.

    असल में राम वैसे तो था बड़ा सीधा-साधा लेकिन राजगद्दी के चक्कर में उसने भी कम दाव-पेंच नहीं खेले. क्या है कि राजनीति में तो ये सब करना पड़ता है. गद्दी सामने देखकर लोग राजधर्म के नाम पर कभी-कभी ग़लती भी कर जाते हैं. तो अपना राम भी एक बार बताया कि भइया हमारे बारे में ग्रंथ वग़ैरह में काफ़ी कुछ फ़िक्शन भी लिखा है. इतना बड़ा मैं था नहीं लेकिन कुछ लोग तब भी मेरे नाम पर रोटी सेंकने की फिराक में था. मुझे पुरुषोत्तम बना दिया. भइया, मैंने स्त्री विरोध का काम भी ख़ूब किया, नहीं? सबसे बड़ा प्रमाण गर्भवती पत्नी सीता को जंगल भेज दिया. बाल-बच्च भी साधु के जिम्मे ही रहे. जब तक चाहा भाइयों को भी नचाया. ज्यादा से ज्यादा सेनापति वगैरह की जिम्मेदारी दी उन्हें, और शंबूक वाला प्रकरण तो तुम जानते ही हो, करना पड़ा.

    तो क्या है कि आज भी रातोंरात रातोंरात अमीर, दबंग, प्रतिष्ठित, प्रभावशाली, वर्चस्वशाली बनने के लिए हमारे आस-पास के लोग कुछ भी छल-प्रपंच रच लेते हैं. आप ही बताइए जिसको कुछ लोग राम सेतू कह रहे हैं, अगर अपने रामजी ही बनवाए थे वानरों के लंका प्रवेश के लिए तो ठीक ही किया होगा. लेकिन देखिए, राम कितने कमज़ोर विवेक वाले राजा निकले. काम हो गया, सीताजी को ले आए, साथ में रावणजी का घर भी तोड़ दिया, उनके भाई को अपने में मिला लिया - उसके बाद तो उस ब्रिज को तो तोड़ देना चाहिए था न। नहीं किए, क्यों? सोचा होगा बाद में फिर कोई लफ़डा होगा? असल में उस समय का प्रोपर्टी डीलर, ठेकेदार वगैरह भारी पड़ गया होगा. मुझे तो ऐसा ही लगता है. देखिए न, आज भी यही हो रहा है न. अब उस दिन जो रामसेतू के नाम पर उधम-कूद मची दिल्ली में, क्या लगता है आपको सब जायज था?

    इतने सारे पुल टूट रहे हैं या तोड़े जा रहे हैं - उसके खिलाफ़ देशभक्तों के मुंह से कभी बकार नहीं निकलती है. और तो और मंदिरों को बांध-वांध के चक्कर में डूबोया जा रहा है. गुजरात में ही ऐसा हुआ है. सरेआम मंदिरों और मजारों को ध्वस्त किया गया. महानायकों और ईश्वरों की पीढियों का हिसाब-किताब रखने वाली कंपनी का कोई कमांडर तक नहीं बोला कभी.

    'अनुभव' पर अपने कुछ ऐसे ही भाइयों ने जिक्र किया था कि कुतुब मी‍नार के कारण मेट्रो का रास्ता बदल दिया गया, ताजमहल की सफ़ाई के नाम पर जनता के जुल्म हो रहा है उधर आगरा में, लेकिन उस पर 'अनुभव' वाले भाई या इन जैसे लोग कुछ नहीं लिखते हैं. मेरा उन भाइयों से कहना है कि मेट्रो की चपेट में कितने घर, कितने परिवार, कितने लोग आए - आपने सोचा नहीं होगा. सोचा भी होगा तो उस पर कभी बोलने की नहीं सोची होगी. जहां तक कुतुबर मीनार के कारण मेट्रो का रास्ता मोड़ने की बात है, तो मेरा कोई ख़ास आग्रह नहीं है रास्ता आपके सुझाए रखने के खिलाफ या जो हो रहा है उसके खिलाफ. भई, मुझे तो यही लग रहा है कि देसी-विदेशी लोग आते हैं - सरकारी कोष में कुछ पैसा चढ़ा जाते हैं. कुल मिला कर कुछ फायदा, अगर आप ख़ुद को भी देश का हिस्सा मानते हैं तो, हमारे नाम भी आ जाता है. ये अलग बात है कि जिस तरह उसे ख़र्च होना चाहिए था - वो नहीं हो पा रहा है. रही ताजमहल वाली बात, तो भइया, वहां भी यही बात लागू होती है. लेकिन वहां ताजमहल के गंदा होने के नाम पर कल-कारखाने हटाए जाते हैं या लोगों को परेशान किया जाता है, तो तकलीफ वाली बात तो है ही. पर इससे भी दुख की बात ये है कि RSS & Party को कभी इस बात से ऐतराज हुई हो और उसने कभी अपने सांसदो, विधायकों, या सभासदों को इस्तीफ़ा देने के लिए एक बार भी कहा हो - कहीं पढ़ने या सुनने को नहीं मिला.

    तो अपने परिचित, मित्र, और कार्यकर्ता के तौर पर मैं संजीव जी (अनुभव पर प्रतिक्रिया देने वाले) या ऐसे भाइयों की बहुत इज़्ज़त करता हूं, पर आप और आप जैसे मुट्ठी भर बंधुओं (क्योंकि ज्यादातर को तो इन फूसफास में यकीन ही नहीं है) की भावनाओं का कद्र कर पाने में ख़ुद को असमर्थ पाता हूं क्योंकि आपकी भावनाएं बेहद कमज़ोर हैं. बात-बात में आहत हो जाती हैं. कभी पुल से, कभी पेंटिंग से, कभी भोजन से, कभी ड्रेस से, कभी किताब से तो कभी वेलेंटाइन से. फिल्म और संगीत से तो अकसर आप जैसे मित्रों की भावनाएं ठेस खा जाती हैं. हर ठेस के बाद ऐसे ही कभी आप जैसे लोग जाम करते हैं, कभी पुतला फूंकते हैं (चाहते तो हैं वैसे आप पुतले के असली रूप को ही फूंकना), कभी लाठी चला देते हैं, कभी गोली चला देते हैं, कभी आग लगा देते हैं, कभी दंगा भड़का देते हैं. कभी-कभी तो आप जैसे कुछ मित्र सामूहिक बलात्कार भी कर लेते हैं महिलाओं के साथ. गिरिन्द्र भाई आपके माध्यम से मैं भाई संजीव और उन जैसे और भाइयों को यह सलाह देना चाहता हूं कि कृपया किसी अच्छे अस्पताल में अच्छे डॉक्टर से वे अपनी भावनाओं का इलाज कराएं. क्योंकि देखने में आया कि है कि पिछले कुछ सालों में दुनिया भर में और ख़ासकर के हिन्दुस्तान के कुछ ख़ास हिस्सों में कुछ ख़ास तरह के लोगों में यह रोग तेज़ी से फैलाया जा रहा है. ख़बर ये भी है कि इस रोग को फैलाने में गुजरात प्रांत में एक अंग्रेजी पद्ध्‍ति से इलाज करने वाले एक डॉक्टर की बड़ी भूमिका है. बिना टैबलेट और इंजेक्शन के डॉक्टर साहब इस रोग का किटाणु दुनिया भर में फैला रहे हैं. सुना है कि उनकी वाणि विषैली है और यह अदृश्य किटाणु उनकी जिह्वा पर निवास करता है। अब तो ये भी सुनने में आया है कि डॉक्टर साहब हथियार भी बांटने लगे हैं. बताया जाता है कि तीन नोंक वाले इस हथियार से किटाणु की रक्षा होती है, और जो लोग इस किटाणु से बचने का उपाय करते हैं उनको ठंडा गोश्त में तब्दील कर देने में सुविधा होती है.

    ReplyDelete
  4. राम सेतू, हेतु किसके ?
    अपने भाई गिरिन्द्र ने अपने ब्लॉग पर पिछले हफ्ते का एक तजुर्बा शेयर किया था. वही रामसेतू के रखवालों? द्वारा किए गए जाम के बारे में दो-चार पंक्तियों में अपनी बात कहकर उन्होंने बीबीसी से साभार ख़बर का एक टुकड़ा भी लगाया था. उस पर कुछ 'राष्ट्रीय' प्रतीकों' के चौकीदारों (दावा तो यही करते हैं) ने अपनी प्रतिक्रियाएं दागी. दागीं इसलिए कह रहा हूं कि वे गोलियों से कम न मारक न थे. बचते-बचाते मैंने भी आत्मरक्षार्थ एक गोला तैयार किया. वैसे तो गिरिन्द्र भाई ने पहले ही इसे ब्लॉगल-विचरकों के लिए 'अनुभव' पर लगा दिया था. तरमीम के साथ मैं फिर एक आर आपके हवाले:

    गिरीन्द्र, चलिए आपने बीबीसी से साभार एक ऐसा टुकड़ा अपने ब्लॉग पर लगा दिया कि हमारे रामभक्तों को लगने लगा कि उनके राम की छुट्टी की जा रही है। संजीवजी या हमारे ऐसे जितने मित्र हैं उनसे अनुरोध है कि इतने सशंकित न हों. राम को अपनी हिफ़ाजत के लिए कम से कम आप या भाई तोगडिया या उन जैसे लोगों की ज़रूरत नहीं पड़ेगी. आपकी सहुलियत के लिए बता दूं कि जब हम अभिवादन में राम-राम करते हैं तो उसका मतलब ये नहीं होता है कि हम आपके एजेंडे में शरीक हो रहे हैं, उसके वाहक हो रहे हैं.

    भाई हमारा राम जो है, बड़ा भला इंसान है. वो यहां के हज़ारों-लाखों के दिलों में है. वो लड़ाकू तो बिल्कुल ही नहीं है. RSS Pt. Ltd. ने तो उसको गुंडा-मवाली टाइप बना दिया है. उससे ज़मीन क़ब्ज़ा करवाते हैं.‍ जहां-तहां हुड़दंग करवाते हैं. हमारा राम सीधा-साधा था. पता नहीं किस चक्कर में पड़ के समाज-विरोधी गतिविधियों में शामिल हो गया. मुझे लगता है वो ख़ुद ऐसी हरकत करता नहीं होगा, उसे ज़रूर कुछ गुण्डे उठा ले गए होंगे, या फिर किसी उसकी कनपटी में कट्टा लगा दिया होगा या गले में रामपुरी.

    वैसे भी हमारे समाज में अपनी काया और अपने मेहनत पर भरोसा करने वाले अल्पसंख्यक हैं, बेचारे टाईप. जिन्हें अपनी काया और मेहनत पर यक़ीन नहीं है वे ही लोग ब्राह्मणवाद, देवी-देवता, ओझा-भगत, डाइन-जोगिन, भूत-पिशात, छूत-अछूत ... में भारी यक़ीन करते हैं, और दुसरों को ऐसा करने के लिए उकसाते हैं. अब तो तरह-तरह से मजबूर भी करने लगे हैं. हैरत देखिए कि जब कोई इनका भेद खोलने की कोशिश करता है तो ये उसके पूर्जे खोलने के चक्कर में लग जाते हैं. पूर्जा खोलना माने, अस्थि - पंजर छिटकाना. इसकी कई तरक़ीब हैं उनके पास जिसके बारे में खुलासा कभी और करेंगे.

    असल में राम वैसे तो था बड़ा सीधा-साधा लेकिन राजगद्दी के चक्कर में उसने भी कम दाव-पेंच नहीं खेले. क्या है कि राजनीति में तो ये सब करना पड़ता है. गद्दी सामने देखकर लोग राजधर्म के नाम पर कभी-कभी ग़लती भी कर जाते हैं. तो अपना राम भी एक बार बताया कि भइया हमारे बारे में ग्रंथ वग़ैरह में काफ़ी कुछ फ़िक्शन भी लिखा है. इतना बड़ा मैं था नहीं लेकिन कुछ लोग तब भी मेरे नाम पर रोटी सेंकने की फिराक में था. मुझे पुरुषोत्तम बना दिया. भइया, मैंने स्त्री विरोध का काम भी ख़ूब किया, नहीं? सबसे बड़ा प्रमाण गर्भवती पत्नी सीता को जंगल भेज दिया. बाल-बच्च भी साधु के जिम्मे ही रहे. जब तक चाहा भाइयों को भी नचाया. ज्यादा से ज्यादा सेनापति वगैरह की जिम्मेदारी दी उन्हें, और शंबूक वाला प्रकरण तो तुम जानते ही हो, करना पड़ा.

    तो क्या है कि आज भी रातोंरात रातोंरात अमीर, दबंग, प्रतिष्ठित, प्रभावशाली, वर्चस्वशाली बनने के लिए हमारे आस-पास के लोग कुछ भी छल-प्रपंच रच लेते हैं. आप ही बताइए जिसको कुछ लोग राम सेतू कह रहे हैं, अगर अपने रामजी ही बनवाए थे वानरों के लंका प्रवेश के लिए तो ठीक ही किया होगा. लेकिन देखिए, राम कितने कमज़ोर विवेक वाले राजा निकले. काम हो गया, सीताजी को ले आए, साथ में रावणजी का घर भी तोड़ दिया, उनके भाई को अपने में मिला लिया - उसके बाद तो उस ब्रिज को तो तोड़ देना चाहिए था न। नहीं किए, क्यों? सोचा होगा बाद में फिर कोई लफ़डा होगा? असल में उस समय का प्रोपर्टी डीलर, ठेकेदार वगैरह भारी पड़ गया होगा. मुझे तो ऐसा ही लगता है. देखिए न, आज भी यही हो रहा है न. अब उस दिन जो रामसेतू के नाम पर उधम-कूद मची दिल्ली में, क्या लगता है आपको सब जायज था?

    इतने सारे पुल टूट रहे हैं या तोड़े जा रहे हैं - उसके खिलाफ़ देशभक्तों के मुंह से कभी बकार नहीं निकलती है. और तो और मंदिरों को बांध-वांध के चक्कर में डूबोया जा रहा है. गुजरात में ही ऐसा हुआ है. सरेआम मंदिरों और मजारों को ध्वस्त किया गया. महानायकों और ईश्वरों की पीढियों का हिसाब-किताब रखने वाली कंपनी का कोई कमांडर तक नहीं बोला कभी.

    'अनुभव' पर अपने कुछ ऐसे ही भाइयों ने जिक्र किया था कि कुतुब मी‍नार के कारण मेट्रो का रास्ता बदल दिया गया, ताजमहल की सफ़ाई के नाम पर जनता के जुल्म हो रहा है उधर आगरा में, लेकिन उस पर 'अनुभव' वाले भाई या इन जैसे लोग कुछ नहीं लिखते हैं. मेरा उन भाइयों से कहना है कि मेट्रो की चपेट में कितने घर, कितने परिवार, कितने लोग आए - आपने सोचा नहीं होगा. सोचा भी होगा तो उस पर कभी बोलने की नहीं सोची होगी. जहां तक कुतुबर मीनार के कारण मेट्रो का रास्ता मोड़ने की बात है, तो मेरा कोई ख़ास आग्रह नहीं है रास्ता आपके सुझाए रखने के खिलाफ या जो हो रहा है उसके खिलाफ. भई, मुझे तो यही लग रहा है कि देसी-विदेशी लोग आते हैं - सरकारी कोष में कुछ पैसा चढ़ा जाते हैं. कुल मिला कर कुछ फायदा, अगर आप ख़ुद को भी देश का हिस्सा मानते हैं तो, हमारे नाम भी आ जाता है. ये अलग बात है कि जिस तरह उसे ख़र्च होना चाहिए था - वो नहीं हो पा रहा है. रही ताजमहल वाली बात, तो भइया, वहां भी यही बात लागू होती है. लेकिन वहां ताजमहल के गंदा होने के नाम पर कल-कारखाने हटाए जाते हैं या लोगों को परेशान किया जाता है, तो तकलीफ वाली बात तो है ही. पर इससे भी दुख की बात ये है कि RSS & Party को कभी इस बात से ऐतराज हुई हो और उसने कभी अपने सांसदो, विधायकों, या सभासदों को इस्तीफ़ा देने के लिए एक बार भी कहा हो - कहीं पढ़ने या सुनने को नहीं मिला.

    तो अपने परिचित, मित्र, और कार्यकर्ता के तौर पर मैं संजीव जी (अनुभव पर प्रतिक्रिया देने वाले) या ऐसे भाइयों की बहुत इज़्ज़त करता हूं, पर आप और आप जैसे मुट्ठी भर बंधुओं (क्योंकि ज्यादातर को तो इन फूसफास में यकीन ही नहीं है) की भावनाओं का कद्र कर पाने में ख़ुद को असमर्थ पाता हूं क्योंकि आपकी भावनाएं बेहद कमज़ोर हैं. बात-बात में आहत हो जाती हैं. कभी पुल से, कभी पेंटिंग से, कभी भोजन से, कभी ड्रेस से, कभी किताब से तो कभी वेलेंटाइन से. फिल्म और संगीत से तो अकसर आप जैसे मित्रों की भावनाएं ठेस खा जाती हैं. हर ठेस के बाद ऐसे ही कभी आप जैसे लोग जाम करते हैं, कभी पुतला फूंकते हैं (चाहते तो हैं वैसे आप पुतले के असली रूप को ही फूंकना), कभी लाठी चला देते हैं, कभी गोली चला देते हैं, कभी आग लगा देते हैं, कभी दंगा भड़का देते हैं. कभी-कभी तो आप जैसे कुछ मित्र सामूहिक बलात्कार भी कर लेते हैं महिलाओं के साथ. गिरिन्द्र भाई आपके माध्यम से मैं भाई संजीव और उन जैसे और भाइयों को यह सलाह देना चाहता हूं कि कृपया किसी अच्छे अस्पताल में अच्छे डॉक्टर से वे अपनी भावनाओं का इलाज कराएं. क्योंकि देखने में आया कि है कि पिछले कुछ सालों में दुनिया भर में और ख़ासकर के हिन्दुस्तान के कुछ ख़ास हिस्सों में कुछ ख़ास तरह के लोगों में यह रोग तेज़ी से फैलाया जा रहा है. ख़बर ये भी है कि इस रोग को फैलाने में गुजरात प्रांत में एक अंग्रेजी पद्ध्‍ति से इलाज करने वाले एक डॉक्टर की बड़ी भूमिका है. बिना टैबलेट और इंजेक्शन के डॉक्टर साहब इस रोग का किटाणु दुनिया भर में फैला रहे हैं. सुना है कि उनकी वाणि विषैली है और यह अदृश्य किटाणु उनकी जिह्वा पर निवास करता है। अब तो ये भी सुनने में आया है कि डॉक्टर साहब हथियार भी बांटने लगे हैं. बताया जाता है कि तीन नोंक वाले इस हथियार से किटाणु की रक्षा होती है, और जो लोग इस किटाणु से बचने का उपाय करते हैं उनको ठंडा गोश्त में तब्दील कर देने में सुविधा होती है.

    ReplyDelete
  5. राम सेतू, हेतु किसके ?
    अपने भाई गिरिन्द्र ने अपने ब्लॉग पर पिछले हफ्ते का एक तजुर्बा शेयर किया था. वही रामसेतू के रखवालों? द्वारा किए गए जाम के बारे में दो-चार पंक्तियों में अपनी बात कहकर उन्होंने बीबीसी से साभार ख़बर का एक टुकड़ा भी लगाया था. उस पर कुछ 'राष्ट्रीय' प्रतीकों' के चौकीदारों (दावा तो यही करते हैं) ने अपनी प्रतिक्रियाएं दागी. दागीं इसलिए कह रहा हूं कि वे गोलियों से कम न मारक न थे. बचते-बचाते मैंने भी आत्मरक्षार्थ एक गोला तैयार किया. वैसे तो गिरिन्द्र भाई ने पहले ही इसे ब्लॉगल-विचरकों के लिए 'अनुभव' पर लगा दिया था. तरमीम के साथ मैं फिर एक आर आपके हवाले:

    गिरीन्द्र, चलिए आपने बीबीसी से साभार एक ऐसा टुकड़ा अपने ब्लॉग पर लगा दिया कि हमारे रामभक्तों को लगने लगा कि उनके राम की छुट्टी की जा रही है। संजीवजी या हमारे ऐसे जितने मित्र हैं उनसे अनुरोध है कि इतने सशंकित न हों. राम को अपनी हिफ़ाजत के लिए कम से कम आप या भाई तोगडिया या उन जैसे लोगों की ज़रूरत नहीं पड़ेगी. आपकी सहुलियत के लिए बता दूं कि जब हम अभिवादन में राम-राम करते हैं तो उसका मतलब ये नहीं होता है कि हम आपके एजेंडे में शरीक हो रहे हैं, उसके वाहक हो रहे हैं.

    भाई हमारा राम जो है, बड़ा भला इंसान है. वो यहां के हज़ारों-लाखों के दिलों में है. वो लड़ाकू तो बिल्कुल ही नहीं है. RSS Pt. Ltd. ने तो उसको गुंडा-मवाली टाइप बना दिया है. उससे ज़मीन क़ब्ज़ा करवाते हैं.‍ जहां-तहां हुड़दंग करवाते हैं. हमारा राम सीधा-साधा था. पता नहीं किस चक्कर में पड़ के समाज-विरोधी गतिविधियों में शामिल हो गया. मुझे लगता है वो ख़ुद ऐसी हरकत करता नहीं होगा, उसे ज़रूर कुछ गुण्डे उठा ले गए होंगे, या फिर किसी उसकी कनपटी में कट्टा लगा दिया होगा या गले में रामपुरी.

    वैसे भी हमारे समाज में अपनी काया और अपने मेहनत पर भरोसा करने वाले अल्पसंख्यक हैं, बेचारे टाईप. जिन्हें अपनी काया और मेहनत पर यक़ीन नहीं है वे ही लोग ब्राह्मणवाद, देवी-देवता, ओझा-भगत, डाइन-जोगिन, भूत-पिशात, छूत-अछूत ... में भारी यक़ीन करते हैं, और दुसरों को ऐसा करने के लिए उकसाते हैं. अब तो तरह-तरह से मजबूर भी करने लगे हैं. हैरत देखिए कि जब कोई इनका भेद खोलने की कोशिश करता है तो ये उसके पूर्जे खोलने के चक्कर में लग जाते हैं. पूर्जा खोलना माने, अस्थि - पंजर छिटकाना. इसकी कई तरक़ीब हैं उनके पास जिसके बारे में खुलासा कभी और करेंगे.

    असल में राम वैसे तो था बड़ा सीधा-साधा लेकिन राजगद्दी के चक्कर में उसने भी कम दाव-पेंच नहीं खेले. क्या है कि राजनीति में तो ये सब करना पड़ता है. गद्दी सामने देखकर लोग राजधर्म के नाम पर कभी-कभी ग़लती भी कर जाते हैं. तो अपना राम भी एक बार बताया कि भइया हमारे बारे में ग्रंथ वग़ैरह में काफ़ी कुछ फ़िक्शन भी लिखा है. इतना बड़ा मैं था नहीं लेकिन कुछ लोग तब भी मेरे नाम पर रोटी सेंकने की फिराक में था. मुझे पुरुषोत्तम बना दिया. भइया, मैंने स्त्री विरोध का काम भी ख़ूब किया, नहीं? सबसे बड़ा प्रमाण गर्भवती पत्नी सीता को जंगल भेज दिया. बाल-बच्च भी साधु के जिम्मे ही रहे. जब तक चाहा भाइयों को भी नचाया. ज्यादा से ज्यादा सेनापति वगैरह की जिम्मेदारी दी उन्हें, और शंबूक वाला प्रकरण तो तुम जानते ही हो, करना पड़ा.

    तो क्या है कि आज भी रातोंरात रातोंरात अमीर, दबंग, प्रतिष्ठित, प्रभावशाली, वर्चस्वशाली बनने के लिए हमारे आस-पास के लोग कुछ भी छल-प्रपंच रच लेते हैं. आप ही बताइए जिसको कुछ लोग राम सेतू कह रहे हैं, अगर अपने रामजी ही बनवाए थे वानरों के लंका प्रवेश के लिए तो ठीक ही किया होगा. लेकिन देखिए, राम कितने कमज़ोर विवेक वाले राजा निकले. काम हो गया, सीताजी को ले आए, साथ में रावणजी का घर भी तोड़ दिया, उनके भाई को अपने में मिला लिया - उसके बाद तो उस ब्रिज को तो तोड़ देना चाहिए था न। नहीं किए, क्यों? सोचा होगा बाद में फिर कोई लफ़डा होगा? असल में उस समय का प्रोपर्टी डीलर, ठेकेदार वगैरह भारी पड़ गया होगा. मुझे तो ऐसा ही लगता है. देखिए न, आज भी यही हो रहा है न. अब उस दिन जो रामसेतू के नाम पर उधम-कूद मची दिल्ली में, क्या लगता है आपको सब जायज था?

    इतने सारे पुल टूट रहे हैं या तोड़े जा रहे हैं - उसके खिलाफ़ देशभक्तों के मुंह से कभी बकार नहीं निकलती है. और तो और मंदिरों को बांध-वांध के चक्कर में डूबोया जा रहा है. गुजरात में ही ऐसा हुआ है. सरेआम मंदिरों और मजारों को ध्वस्त किया गया. महानायकों और ईश्वरों की पीढियों का हिसाब-किताब रखने वाली कंपनी का कोई कमांडर तक नहीं बोला कभी.

    'अनुभव' पर अपने कुछ ऐसे ही भाइयों ने जिक्र किया था कि कुतुब मी‍नार के कारण मेट्रो का रास्ता बदल दिया गया, ताजमहल की सफ़ाई के नाम पर जनता के जुल्म हो रहा है उधर आगरा में, लेकिन उस पर 'अनुभव' वाले भाई या इन जैसे लोग कुछ नहीं लिखते हैं. मेरा उन भाइयों से कहना है कि मेट्रो की चपेट में कितने घर, कितने परिवार, कितने लोग आए - आपने सोचा नहीं होगा. सोचा भी होगा तो उस पर कभी बोलने की नहीं सोची होगी. जहां तक कुतुबर मीनार के कारण मेट्रो का रास्ता मोड़ने की बात है, तो मेरा कोई ख़ास आग्रह नहीं है रास्ता आपके सुझाए रखने के खिलाफ या जो हो रहा है उसके खिलाफ. भई, मुझे तो यही लग रहा है कि देसी-विदेशी लोग आते हैं - सरकारी कोष में कुछ पैसा चढ़ा जाते हैं. कुल मिला कर कुछ फायदा, अगर आप ख़ुद को भी देश का हिस्सा मानते हैं तो, हमारे नाम भी आ जाता है. ये अलग बात है कि जिस तरह उसे ख़र्च होना चाहिए था - वो नहीं हो पा रहा है. रही ताजमहल वाली बात, तो भइया, वहां भी यही बात लागू होती है. लेकिन वहां ताजमहल के गंदा होने के नाम पर कल-कारखाने हटाए जाते हैं या लोगों को परेशान किया जाता है, तो तकलीफ वाली बात तो है ही. पर इससे भी दुख की बात ये है कि RSS & Party को कभी इस बात से ऐतराज हुई हो और उसने कभी अपने सांसदो, विधायकों, या सभासदों को इस्तीफ़ा देने के लिए एक बार भी कहा हो - कहीं पढ़ने या सुनने को नहीं मिला.

    तो अपने परिचित, मित्र, और कार्यकर्ता के तौर पर मैं संजीव जी (अनुभव पर प्रतिक्रिया देने वाले) या ऐसे भाइयों की बहुत इज़्ज़त करता हूं, पर आप और आप जैसे मुट्ठी भर बंधुओं (क्योंकि ज्यादातर को तो इन फूसफास में यकीन ही नहीं है) की भावनाओं का कद्र कर पाने में ख़ुद को असमर्थ पाता हूं क्योंकि आपकी भावनाएं बेहद कमज़ोर हैं. बात-बात में आहत हो जाती हैं. कभी पुल से, कभी पेंटिंग से, कभी भोजन से, कभी ड्रेस से, कभी किताब से तो कभी वेलेंटाइन से. फिल्म और संगीत से तो अकसर आप जैसे मित्रों की भावनाएं ठेस खा जाती हैं. हर ठेस के बाद ऐसे ही कभी आप जैसे लोग जाम करते हैं, कभी पुतला फूंकते हैं (चाहते तो हैं वैसे आप पुतले के असली रूप को ही फूंकना), कभी लाठी चला देते हैं, कभी गोली चला देते हैं, कभी आग लगा देते हैं, कभी दंगा भड़का देते हैं. कभी-कभी तो आप जैसे कुछ मित्र सामूहिक बलात्कार भी कर लेते हैं महिलाओं के साथ. गिरिन्द्र भाई आपके माध्यम से मैं भाई संजीव और उन जैसे और भाइयों को यह सलाह देना चाहता हूं कि कृपया किसी अच्छे अस्पताल में अच्छे डॉक्टर से वे अपनी भावनाओं का इलाज कराएं. क्योंकि देखने में आया कि है कि पिछले कुछ सालों में दुनिया भर में और ख़ासकर के हिन्दुस्तान के कुछ ख़ास हिस्सों में कुछ ख़ास तरह के लोगों में यह रोग तेज़ी से फैलाया जा रहा है. ख़बर ये भी है कि इस रोग को फैलाने में गुजरात प्रांत में एक अंग्रेजी पद्ध्‍ति से इलाज करने वाले एक डॉक्टर की बड़ी भूमिका है. बिना टैबलेट और इंजेक्शन के डॉक्टर साहब इस रोग का किटाणु दुनिया भर में फैला रहे हैं. सुना है कि उनकी वाणि विषैली है और यह अदृश्य किटाणु उनकी जिह्वा पर निवास करता है। अब तो ये भी सुनने में आया है कि डॉक्टर साहब हथियार भी बांटने लगे हैं. बताया जाता है कि तीन नोंक वाले इस हथियार से किटाणु की रक्षा होती है, और जो लोग इस किटाणु से बचने का उपाय करते हैं उनको ठंडा गोश्त में तब्दील कर देने में सुविधा होती है.

    ReplyDelete
  6. राम सेतू, हेतु किसके ?
    अपने भाई गिरिन्द्र ने अपने ब्लॉग पर पिछले हफ्ते का एक तजुर्बा शेयर किया था. वही रामसेतू के रखवालों? द्वारा किए गए जाम के बारे में दो-चार पंक्तियों में अपनी बात कहकर उन्होंने बीबीसी से साभार ख़बर का एक टुकड़ा भी लगाया था. उस पर कुछ 'राष्ट्रीय' प्रतीकों' के चौकीदारों (दावा तो यही करते हैं) ने अपनी प्रतिक्रियाएं दागी. दागीं इसलिए कह रहा हूं कि वे गोलियों से कम न मारक न थे. बचते-बचाते मैंने भी आत्मरक्षार्थ एक गोला तैयार किया. वैसे तो गिरिन्द्र भाई ने पहले ही इसे ब्लॉगल-विचरकों के लिए 'अनुभव' पर लगा दिया था. तरमीम के साथ मैं फिर एक आर आपके हवाले:

    गिरीन्द्र, चलिए आपने बीबीसी से साभार एक ऐसा टुकड़ा अपने ब्लॉग पर लगा दिया कि हमारे रामभक्तों को लगने लगा कि उनके राम की छुट्टी की जा रही है। संजीवजी या हमारे ऐसे जितने मित्र हैं उनसे अनुरोध है कि इतने सशंकित न हों. राम को अपनी हिफ़ाजत के लिए कम से कम आप या भाई तोगडिया या उन जैसे लोगों की ज़रूरत नहीं पड़ेगी. आपकी सहुलियत के लिए बता दूं कि जब हम अभिवादन में राम-राम करते हैं तो उसका मतलब ये नहीं होता है कि हम आपके एजेंडे में शरीक हो रहे हैं, उसके वाहक हो रहे हैं.

    भाई हमारा राम जो है, बड़ा भला इंसान है. वो यहां के हज़ारों-लाखों के दिलों में है. वो लड़ाकू तो बिल्कुल ही नहीं है. RSS Pt. Ltd. ने तो उसको गुंडा-मवाली टाइप बना दिया है. उससे ज़मीन क़ब्ज़ा करवाते हैं.‍ जहां-तहां हुड़दंग करवाते हैं. हमारा राम सीधा-साधा था. पता नहीं किस चक्कर में पड़ के समाज-विरोधी गतिविधियों में शामिल हो गया. मुझे लगता है वो ख़ुद ऐसी हरकत करता नहीं होगा, उसे ज़रूर कुछ गुण्डे उठा ले गए होंगे, या फिर किसी उसकी कनपटी में कट्टा लगा दिया होगा या गले में रामपुरी.

    वैसे भी हमारे समाज में अपनी काया और अपने मेहनत पर भरोसा करने वाले अल्पसंख्यक हैं, बेचारे टाईप. जिन्हें अपनी काया और मेहनत पर यक़ीन नहीं है वे ही लोग ब्राह्मणवाद, देवी-देवता, ओझा-भगत, डाइन-जोगिन, भूत-पिशात, छूत-अछूत ... में भारी यक़ीन करते हैं, और दुसरों को ऐसा करने के लिए उकसाते हैं. अब तो तरह-तरह से मजबूर भी करने लगे हैं. हैरत देखिए कि जब कोई इनका भेद खोलने की कोशिश करता है तो ये उसके पूर्जे खोलने के चक्कर में लग जाते हैं. पूर्जा खोलना माने, अस्थि - पंजर छिटकाना. इसकी कई तरक़ीब हैं उनके पास जिसके बारे में खुलासा कभी और करेंगे.

    असल में राम वैसे तो था बड़ा सीधा-साधा लेकिन राजगद्दी के चक्कर में उसने भी कम दाव-पेंच नहीं खेले. क्या है कि राजनीति में तो ये सब करना पड़ता है. गद्दी सामने देखकर लोग राजधर्म के नाम पर कभी-कभी ग़लती भी कर जाते हैं. तो अपना राम भी एक बार बताया कि भइया हमारे बारे में ग्रंथ वग़ैरह में काफ़ी कुछ फ़िक्शन भी लिखा है. इतना बड़ा मैं था नहीं लेकिन कुछ लोग तब भी मेरे नाम पर रोटी सेंकने की फिराक में था. मुझे पुरुषोत्तम बना दिया. भइया, मैंने स्त्री विरोध का काम भी ख़ूब किया, नहीं? सबसे बड़ा प्रमाण गर्भवती पत्नी सीता को जंगल भेज दिया. बाल-बच्च भी साधु के जिम्मे ही रहे. जब तक चाहा भाइयों को भी नचाया. ज्यादा से ज्यादा सेनापति वगैरह की जिम्मेदारी दी उन्हें, और शंबूक वाला प्रकरण तो तुम जानते ही हो, करना पड़ा.

    तो क्या है कि आज भी रातोंरात रातोंरात अमीर, दबंग, प्रतिष्ठित, प्रभावशाली, वर्चस्वशाली बनने के लिए हमारे आस-पास के लोग कुछ भी छल-प्रपंच रच लेते हैं. आप ही बताइए जिसको कुछ लोग राम सेतू कह रहे हैं, अगर अपने रामजी ही बनवाए थे वानरों के लंका प्रवेश के लिए तो ठीक ही किया होगा. लेकिन देखिए, राम कितने कमज़ोर विवेक वाले राजा निकले. काम हो गया, सीताजी को ले आए, साथ में रावणजी का घर भी तोड़ दिया, उनके भाई को अपने में मिला लिया - उसके बाद तो उस ब्रिज को तो तोड़ देना चाहिए था न। नहीं किए, क्यों? सोचा होगा बाद में फिर कोई लफ़डा होगा? असल में उस समय का प्रोपर्टी डीलर, ठेकेदार वगैरह भारी पड़ गया होगा. मुझे तो ऐसा ही लगता है. देखिए न, आज भी यही हो रहा है न. अब उस दिन जो रामसेतू के नाम पर उधम-कूद मची दिल्ली में, क्या लगता है आपको सब जायज था?

    इतने सारे पुल टूट रहे हैं या तोड़े जा रहे हैं - उसके खिलाफ़ देशभक्तों के मुंह से कभी बकार नहीं निकलती है. और तो और मंदिरों को बांध-वांध के चक्कर में डूबोया जा रहा है. गुजरात में ही ऐसा हुआ है. सरेआम मंदिरों और मजारों को ध्वस्त किया गया. महानायकों और ईश्वरों की पीढियों का हिसाब-किताब रखने वाली कंपनी का कोई कमांडर तक नहीं बोला कभी.

    'अनुभव' पर अपने कुछ ऐसे ही भाइयों ने जिक्र किया था कि कुतुब मी‍नार के कारण मेट्रो का रास्ता बदल दिया गया, ताजमहल की सफ़ाई के नाम पर जनता के जुल्म हो रहा है उधर आगरा में, लेकिन उस पर 'अनुभव' वाले भाई या इन जैसे लोग कुछ नहीं लिखते हैं. मेरा उन भाइयों से कहना है कि मेट्रो की चपेट में कितने घर, कितने परिवार, कितने लोग आए - आपने सोचा नहीं होगा. सोचा भी होगा तो उस पर कभी बोलने की नहीं सोची होगी. जहां तक कुतुबर मीनार के कारण मेट्रो का रास्ता मोड़ने की बात है, तो मेरा कोई ख़ास आग्रह नहीं है रास्ता आपके सुझाए रखने के खिलाफ या जो हो रहा है उसके खिलाफ. भई, मुझे तो यही लग रहा है कि देसी-विदेशी लोग आते हैं - सरकारी कोष में कुछ पैसा चढ़ा जाते हैं. कुल मिला कर कुछ फायदा, अगर आप ख़ुद को भी देश का हिस्सा मानते हैं तो, हमारे नाम भी आ जाता है. ये अलग बात है कि जिस तरह उसे ख़र्च होना चाहिए था - वो नहीं हो पा रहा है. रही ताजमहल वाली बात, तो भइया, वहां भी यही बात लागू होती है. लेकिन वहां ताजमहल के गंदा होने के नाम पर कल-कारखाने हटाए जाते हैं या लोगों को परेशान किया जाता है, तो तकलीफ वाली बात तो है ही. पर इससे भी दुख की बात ये है कि RSS & Party को कभी इस बात से ऐतराज हुई हो और उसने कभी अपने सांसदो, विधायकों, या सभासदों को इस्तीफ़ा देने के लिए एक बार भी कहा हो - कहीं पढ़ने या सुनने को नहीं मिला.

    तो अपने परिचित, मित्र, और कार्यकर्ता के तौर पर मैं संजीव जी (अनुभव पर प्रतिक्रिया देने वाले) या ऐसे भाइयों की बहुत इज़्ज़त करता हूं, पर आप और आप जैसे मुट्ठी भर बंधुओं (क्योंकि ज्यादातर को तो इन फूसफास में यकीन ही नहीं है) की भावनाओं का कद्र कर पाने में ख़ुद को असमर्थ पाता हूं क्योंकि आपकी भावनाएं बेहद कमज़ोर हैं. बात-बात में आहत हो जाती हैं. कभी पुल से, कभी पेंटिंग से, कभी भोजन से, कभी ड्रेस से, कभी किताब से तो कभी वेलेंटाइन से. फिल्म और संगीत से तो अकसर आप जैसे मित्रों की भावनाएं ठेस खा जाती हैं. हर ठेस के बाद ऐसे ही कभी आप जैसे लोग जाम करते हैं, कभी पुतला फूंकते हैं (चाहते तो हैं वैसे आप पुतले के असली रूप को ही फूंकना), कभी लाठी चला देते हैं, कभी गोली चला देते हैं, कभी आग लगा देते हैं, कभी दंगा भड़का देते हैं. कभी-कभी तो आप जैसे कुछ मित्र सामूहिक बलात्कार भी कर लेते हैं महिलाओं के साथ. गिरिन्द्र भाई आपके माध्यम से मैं भाई संजीव और उन जैसे और भाइयों को यह सलाह देना चाहता हूं कि कृपया किसी अच्छे अस्पताल में अच्छे डॉक्टर से वे अपनी भावनाओं का इलाज कराएं. क्योंकि देखने में आया कि है कि पिछले कुछ सालों में दुनिया भर में और ख़ासकर के हिन्दुस्तान के कुछ ख़ास हिस्सों में कुछ ख़ास तरह के लोगों में यह रोग तेज़ी से फैलाया जा रहा है. ख़बर ये भी है कि इस रोग को फैलाने में गुजरात प्रांत में एक अंग्रेजी पद्ध्‍ति से इलाज करने वाले एक डॉक्टर की बड़ी भूमिका है. बिना टैबलेट और इंजेक्शन के डॉक्टर साहब इस रोग का किटाणु दुनिया भर में फैला रहे हैं. सुना है कि उनकी वाणि विषैली है और यह अदृश्य किटाणु उनकी जिह्वा पर निवास करता है। अब तो ये भी सुनने में आया है कि डॉक्टर साहब हथियार भी बांटने लगे हैं. बताया जाता है कि तीन नोंक वाले इस हथियार से किटाणु की रक्षा होती है, और जो लोग इस किटाणु से बचने का उपाय करते हैं उनको ठंडा गोश्त में तब्दील कर देने में सुविधा होती है.

    ReplyDelete
  7. Jis ne bhi ye likha hai..
    Bhagwan Ram ke prati achhe vakya ka upyog nahi kiya hai..
    pahale usake kanpatti pe banduk rakhake 2~3 bheje me uatarana hoga..

    ReplyDelete