कवना नंबर पर चल के बा?
’चार पर’
कवन गाड़ी?
‘ग़रीब रथ.’
हं चलिए न. इ समान है, दु आदमी से जाई. अस्सी रूपइय्या लागि.
‘अच्छा चलिए’
बंदा सामान उठाने में उनकी मदद करने लगा. अचानक बाजुओं पर निगाह पड़ी. कहा, ‘एक मिनट रुकिए, आपका बैज कहां है?’
‘का पूछ रहे हैं आप?’ अधेड़ कुली ने अचरज से पूछा.
‘बिल्ला.’
’नहीं बान्हते हैं, कवनो बड़का हाकिम आता है तबे बिल्ला बान्हते हैं हमलोग’ दूर खड़े कुलियों की ओर इशारा करते हुए उन्होंने कहा, ‘देखिए, है कौनो के बांह में?’
‘कोई बात नहीं, हम और कुली देख लेते हैं’ कहकर बंदा स्टेशन छोड़ने आए अपने माता-पिता और बीवी-बच्चे से ‘थोड़ी देर रुकिए यहीं’ कहकर कुलियों के दूसरे झूंड की ओर चल पड़ा. दस-बारह झूंडों के पास गया. नाकामयाब रहा. आखिरकार बंदा बग़ल के रेलवे थाने में दाखिल हुआ.
पहले दरवाज़े पर लाल-नीली पट्टी पर किसी साहब का नाम और ओहदा दर्ज था. साहब नदारद थे. थाने के हाते में था, लिहाज़ा बंदा सहम भी रहा था. दूसरे कमरे में आमने-सामने मेज़ें लगी थीं और उनके चारो तरफ़ कुर्सियां. अलग-अलग मुद्राओं में तीन सज्जन इतनी ही कुर्सियों पर विराजमान थे. दो ‘बर्दीधारी’ और एक गुलाबी बुश्शट में. गुलाबी बुश्शट वाले जनाब के दाएं गाल में पान की गिलौरी थी. बयीं तरफ़, सज्जन गिलौरी दबा चुकने के बाद कागज पर से दायीं हाथ के अंगूठे की नाखून से चूना खरोंच रहे थे और तीसरे साहब ख़ैनी की रगड़ाई.
अंदर पहुंचा भी नहीं था कि ‘केकरो खोज रहा है का?’ गुलाबी कमीजधारी के मुंह से पिक के साथ छलका. ‘नहीं, शिकायत लिखाने आया हूं कुलियों के खिलाफ़.’ कहकर बंदे ने कमरे का एक संक्षिप्त-सा मुआयना किया. कमर के नीचे कमरे में बैठने वालों द्वारा उगले पान, गुटखे और तम्बाकू और इन्हीं के पिक, थूक, इत्यादि का निरंतर सेवन करती अलमारी माफिक कोई आकार दीन-हीन अवस्था में पीछे खड़ी थी, जिसके सिर पर डोरियों में लिपटे दो-चार टॉर्च रखे थे. दीवार पर लक्ष्मी माई की तस्वीर वाला कैलेंडर चिपका था जिस पर किसी साड़ी शो रूम का नाम दर्ज था, और बंदे के ठीक सामने, दीवार पर चिर-परिचित मुस्कुराहट वाली राष्ट्रपिता की तस्वीर टंगी थी जिस पर ख़ूब सारा गर्द जमा था और नीचे जाले भी थे.
‘गुलबदनजी’ ने फिर उगला, ‘का बात है, कउ ची के शिकायत लिखाना है?’ बंदे ने कहा, ‘कुलियों का.’ गर्दन पीछे मोड़ी, पिच्च मारी, फिर मुख़ातिब हुए, ‘बेसी पइसा मांग रहा है?’ बंदे ने कहा, ‘पैसा तो ज्यादा मांग ही रहे हैं, उनकी बाजुओं पर बिल्ला भी नहीं बंधा है. बता सकते हैं तो प्लीज़ बताएं, किधर लिखी जाएगी शिकायत?’ ज़ायका ख़राब हो जाने का डर था. न बोले. दांतों को पान की कतराई में भिड़ा दिया.
‘काहे का नागरिक, कौन-सी नागरिक सेवा. शिकायत नहीं लिखना है, न लिखो, क़ायदे से पेश तो आओ. थोड़े-बहुत पढ़े-लिखों के साथ ऐसे पेश आ रहे हो तो अनपढ़ भोले-भाले ग़रीबों की तो रेल बना देते होगे’ सोचते हुए बंदा अब तक खैनी की खेल में मस्त ‘बर्दीधारी’ से पूछ बैठा, ‘लगता है आप यहीं के स्टाफ़ हैं, इतनी देर से ये जनाब मुझसे किस हैसियत से उलझ रहे हैं? खैनी फांक कर अपनी हथेलियों को रगड़ते हुए उन्होंने जवाब उछाला, ‘हूं, का कष्ट हव?’
‘आप यहीं तो बैठे हैं. कितनी बार मैं यहां आने का मक़सद बता चुका हूं’, बंदे ने थोड़े और धैर्य के साथ कहा. ‘सुनले रहतीं तो काहे कष्ट देतीं तोहरा के हम. जिन गुस्सीया अब, दोहरा द.’ इस उबाच के साथ उनके जूते जडित पांव मेज पर पसर गए.
गुलबदनजी ने चुप्पी तोड़ी, ‘आच्छा, त अब नामोपाता चाहिं, एसे पहिले कि धोआ जा इहवां, निकल ल.’ सुनते ही बंदे का ख़ून खौल उठा. धैर्य-वैर्य फेंक पड़ा, ‘थाना ही है न ये? फिर ये गुण्डागर्दी कैसी? बिल्ला न बांधे जाने की शिकायत लाकर मैंने अपराध कर दिया? भीड़ में कोई सामान हेरफेर हो जाए, कुली से बिछुड़ जाएं तो क्या उपाय रह जाएगा? ‘बिना बिल्ला वाले कुली से अपना सामान न ढुलवाएं और ऐसे कुलियों की शिकायत रेल पुलिस अथवा स्टेशन अधीक्षक से अवश्य करें’. सुनते तो होंगे ये अनाउंसमेंट? सूरत, लुधियाना, दिल्ली, पता नहीं किस-किस शहर से लोग यहां पहुंच जाते हैं, लेकिन नशा खिलाकर, सुंधाकर यहां उनका सामान लूट लिया जाता है. आज का ‘हिन्दुस्तान’ देखा है? इस स्टेशन पर ऐसे डेढ दर्जन मामलों की ख़बर तस्वीर के साथ छपी है. क्या जाने, कुछ कुली भी इस अपराध में शामिल हों. ठीक है, न कीजिए मेरी शिकायत दर्ज, मत बताइए अपना नाम. अधिकारियों को ये तो बता ही सकता हूं कि 18 मई को शाम 5.30 से 6.30 के बीच दो वर्दीधारी और एक गुलाबी कमीज़ वाले साहब ने रेलवे थाने के उस कमरे में मेरे साथ ऐसा सलूक किया था.’
हेठी का नायाब नमूना था वह. ‘त आप चाहते हैं कि हम कुलीअन से लड़ाई करे जाएं? अइसन होगा त हम दिन भर लड़ते रहेंगे,’ ख़ैनी के साथ सिपाहीजी ने थूका. ‘ना भइया, ये उम्मीद से रउआ पास ना आइल रहिं, बाकी जब मूड बनाइए लेले बानि त कवनो बात ना अब स्टेशने सुप्रीटेंडेंट के लगे होखि सुनवाई,’ कहकर बंदा फ्रीज हो गया.
बढ़िया लिखा है राकेश भाई. एकदम चुस्त. मेरा दोपहिया वाहन चोरी हो गया था कोई दसेक साल पहले तो थाने का दृष्य कुछ ऐसा ही था. और कोर्ट की तो बात ही न पूछें! याद दिला दी आपने.
ReplyDeleteशुक्रिया रविजी
ReplyDeleteऐसे ही कभी-कभार टहल लिया कीजिएगा. हौसलाअफ़ज़ाई होती है.