आजकल बिहार के मुख्यमंत्री माननीय नितीशजी 'विकास यात्रा' पर निकले हैं. काफ़ी समय बाद किसी राजनेता या कहें तो प्रदेश के मुख्यमंत्री की कोई यात्रा निकली है. यूं तो जो लाव-लश्कर इस यात्रा में नितीशजी के साथ है शायद उतने के साथ कितनी ही बार वे मुख्यमंत्री बनने के बाद बिहार के किसी न किसी हिस्से में जाते रहे हैं. पर यात्रा नामक संबोधन उन्होंने अपनी इस यात्रा को ही दी. ज़ाहिर है, ये यात्रा उनके लिए अन्य यात्राओं से अलग है. अलग है क्योंकि पहले वाली यात्राएं आम तौर पर 'दौरा' कहे गए.
नितीशजी की इस विकास-यात्रा का पहला चरण कल समाप्त हुआ है. कल सीतामढ़ी के बखरी नामक किसी स्थान पर मीडियाकर्मियों (टेलीविज़न के रिपोर्टरों) को वे बता रहे थे कि इस बार बिहार की जनता को विकास का मतलब और रफ़्तार बताने निकले हैं. वे घूम-घूम कर जनता से सीधा संवाद स्थापित कर रहे हैं और उनके दु:ख-दर्द को सुन रहे हैं और बता रहे हैं कि सुशासन क्या है. उन्होंने बताया कि लोगों को राशन-किराशन मिलने लग जाए तो समझिए सुशासन आ गया. सुशासन सुनिश्चित करना उनका मुख्य ध्येय है.
उनकी ये बात किसी शायरी से कम नहीं थी. इरशाद ही कहा जा सकता है ऐसा सुनने के बाद. कितना सुखद होता ये कहना! न कहा गया. सोचा भी न गया. थोड़ी देर के लिए सड़क-बिज़ली-पानी, जच्चा-बच्चा, दवा-दारू, शिक्षा-रोज़गार, क़ानून-व्यवस्था, मान-सम्मान भूल कर जनता ख़ुश हो जाती; पर वो स्थिति न बन पायी. चार साल गुज़र गए, अभी तो राशन-किराशन की व्यवस्था ही शेष रहती है.
मुज़फ़्फ़रपुर बिहार के गिने-चुने शहरों में शुमार किया जाता है. वहां पिछले पांच-छह सालों से एक फ़्लाईओवर बन रहा है. बन ही रहा है. स्थानीय लोग बस बन जाने की आस लगाए बैठे हैं. मोतीझील बाज़ार के एक दुकानदार के मुताबिक़ शुरू हुआ है तो काम समाप्त भी हो ही जाएगा. वैसे ही जैसे कोई जीव पैदा होता है और एक न एक दिन मर जाता है. यानी नियति तय है. कब और कैसे, न पूछें तो बेहतर. मुज़फ़्फ़रपुर शहर से शिवहर के रास्ते में क़रीब 20 किलोमीटर में छोटे-बड़े लगभग 18 पुल और पुलियों का काम तक़रीबन तीन साल पहले शुरू हुआ था. इलाक़े के लोगों ने तब बताया था कि बरसात के पहले सारा काम हो जाएगा, ऐसा सरकारी एलान हुआ है. दिन-रात काम चल रहा है. सच कहा था लोगों ने. काम 24 घंटे हो रहा था. कुछ पुल-पुलिए तैयार भी हो गए थे समय से. ताम-झाम, अगड़म-बगड़म हटाया भी नहीं गया था कि उनमें से कई बिखर गए. साल भर पहले तक कुछ पुलियों पर दोपहिया चालक भी वाहन चलना मुनासिब नहीं समझते थे. इस बीच कोई करिश्मा हुआ हो तो मुझे उसकी जानकारी नहीं है. हां, नितीश की सवारी जिन-जिन इलाक़ों से गुज़रेगी; उम्मीद है वहां कुछ रंग-रोगन ज़रूर हुआ होगा और लाल टोपी वाले सलामी ठोकने के लिए धुले कपड़े पहने खड़े भी होंगे किनारे पर. सड़कों की हालत कमोबेश ऐसी है कि अस्पताल के लिए निकली गर्भवती महिला प्रसव-उसव के 'झंझट' से गाड़ी में ही मुक्त हो जाए. यही कारण है कि जो अस्पताल में बच्चा जनना चाहती हैं उनके परिवार वाले नियत समय से महीना-डेढ़ महीना पहले शहर में कमरा किराए पर ले लेते हैं या किसी रिश्तेदार के यहां डेरा डाल लेते हैं. सड़कें कितनी बेहाल है उसकी पुष्टि इस बात से हो जाती है कि पिछले सालों में वहां की सड़कों पर छह चक्कों वाली गाडियों की जगह छोटी-छोटी बसों और ऑटो जैसी सवारी गाडियों ने ले ली है.
अब वसूली, फिरौती, लूट-मार को नए ठिकाने मिल गए हैं गांवो में. अपराधशास्त्र में दिलचस्पी रखने वालों के लिए बस सूत्र छोड़ रहा हूं. लोगों के घरों पर चिट्ठियां पहुंच जाती हैं, रकम दर्ज होता है, पता बताया होता है; बस पहुंचा देने का आदेश होता है. न पहुंचाने और चालाकी करने की सूरत में ख़ामियाजा भुगतने के लिए तैयार रहने का संदेश भी होता है. कभी चिट्ठी किसी गिरोह की बतायी जाती है तो कभी माओवादियों की. अफ़वाह है या हक़ीकत, न मालूम. गांव जाने पर ऐसा सुनने को मिल जाता है. कहीं बदला तो कहीं सबक, हत्याएं तो हो ही रही हैं. जातीय फ़साद नए क्षेत्र और नए परिवेश में फैले जा रहे हैं. जाति-आधारित हिंसा बढ़ी है. अब भी वो संस्कार और संस्कृति विकसित नहीं हुई कि महिलाओं के खिलाफ़ हिंसा को जुबान मिल सके. फिर भी अति की ख़बरें अकसर 'लीक' हो जाती है.
सबसे भारी मार पड़ी है शिक्षा-व्यवस्था पर. पिछले सालों में स्कूलों में शिक्षकों की बहाली कुछ-कुछ 'राग-दरबारी' के अध्यापकों के तर्ज पर हुई है. जाने-अनजाने मुखियाजी और सरपंच साहब से लेकर ब्लॉक के अधिकारियों तक का कोटा तय हो गया है. अपना नाम ठीक-ठीक न लिख-बोल पाने नौजवान भी अध्यापक नियुक्त हो गए हैं. बड़ी संख्या में ऐसे अध्यापकों की जेबों में किसी भी समय दो-चार पुडिया 'शिखर' उपलब्ध रहता है. अध्यापकी पाने के बाद उनकी जेबें और ज़्यादा पुडियों को थामने के क़ाबिल हो गयी हैं. प्राथमिक विद्यालयों को किसी योजना के तहत ट्रांजिस्टर सेट प्राप्त हो गए है. सोने पर सुहागा साबित हो रहे हैं ये ट्रांजिस्टर सेट. जब मर्जी होती है कान ऐंठ देते हैं और किसी बच्चे को उठाकर नचाना शुरू कर देते हैं. महिला शिक्षक तो निरीह बनी पति, पिता, भाई या देवर की फटफटी पर बैठकर आती हैं और घंटे-दो घंटे में ही उनके साथ वालों को जल्दी हो जाती है लौटने की. क्या करें, मन मसोस कर फिर फटफटी पर बैठ जाना पड़ता है. कहीं हेडमास्साहब ऐसा न करने देते हैं तो 'खचड़ा' कहलाते हैं. दोपहर के भोजन के नाम पर भी बच्चों को कुछ दिया जाता है लेकिन उसमें से काफ़ी कुछ विद्यालय के परिचालन के बनी समिति के लोग अपने-अपने मन माफिक चीज़ निकाल लेते हैं. हाई स्कूलों का स्टैंडर्ड बेहद लो हो चला है. कहां अपने ज़माने में दस-दस, बारह-बारह अध्यापकों पर चलने वाला स्कूल अब गिने-गुथे पांच-छह मास्टरों से काम चला रहे हैं. एक-एक मास्साहब पर तीन-तीन विषयों का बोझ लदा है. कलर्की-सलर्की अतिरिक्त. इधर प्रयोगशाला और पुस्तकालय के नाम पर कुछ पक्के कमरे भी जोड़वा दिए हैं सरकार ने. न पुस्तक है और न प्रयोग की सामग्री. चमत्कार ये कि कोई बच्चा प्रायोगिक परीक्षा में फ़ेल नहीं होता है. बाकी सारे विषयों से अच्छे नम्बर आते हैं प्रेक्टिकल में. कई विद्यालय सालों से इंचार्जजी के भरोसे चल रहे हैं. इंचार्ज बने आचार्यजी इतने से ख़ुश रहते हैं कि इंचार्जी के नाम पर उनको ऑफिशियल काम से जिला मुख्यालय तक आने-जाने का मौक़ा मिलता रहता है. वे नहीं कहते, लोग बताते हैं कि इस काम में कुछ टीए-सीए बन ही जाता होगा. आजकल वैसे भी पंचायती राज व्यवस्था में मुखियाजी और दो-एक अन्य ओहदाधारी पॉवर सेंटर बन निकले हैं. सो इनके साथ सेटिंग-वेटिंग हो जाने के बाद हाजिरी-उजरी का झमेला थोड़ा आसान हो जाता है.
अस्पतालों के रंगत में कुछ बदलाव दिखा है. पर शहरों तक ही. देहातों में न के बराबर. उपर वाली आखिरी दो-तीन पंक्तियां अस्पतालों के परिचालन और चाल-चलन पर भी लागू माना जा सकता है. कई अस्पताल खंडहर में तब्दील हो चुके हैं. भूतहा फिल्मों की शूटिंग के लिए मुकम्मल साईट. जहां रंगत बदली है वहां ग़ैर-सरकारी योगदान ज़्यादा दिखता है.
बिज़ली अपनी मर्जी से आती है और जाती भी अपनी मर्जी से ही है. गांव-कस्बों के लोग अब भी डीलर साहब के दरवाज़े पर महीने-दो महीने पर बंटने वाले मिट्टी तेल को ही ज़्यादा भरोसेमंद मानते हैं. बिजली का इस्तेमाल टीवी देखने या टीवी की बैटरी चार्ज करने के लिए होती है. अब एक और नया सिस्टम चल निकला है. शहरों में पहले से ही था गांवों में अब तेज़ी से लोकप्रिय हो रहा है. 'जेनरेटर वाला विद्युत बोर्ड'. कुछ निश्चित रकम प्रति माह, प्रति प्वायंट (सीएफ़एल बल्व और गर्मियों में पंखा, पर पंखे के लिए ज़्यादा रकम). बेरोज़गार नौजवानों को एक रोज़गार मिल गया है. पर इस तरह के विद्युत बोर्ड के परिचालन का काम प्रोपर्टी डीलिंग से कम झंझटिया नहीं है. समझ सकते हैं, किस तरह के लोग ये धंधा करते होंगे और कौन इसके उपभोक्ता होंगे.
दिल्ली और पटना वाली सरकारी योजनाएं ठिकाने तक आते-आते थक कर चूर हो जाती हैं. उन थकी हुई योजनाओं में से चुने और नियुक्त हुए जनप्रतिनिधि पहले अपना हिस्सा निकालते हैं या उसकी जुगत बिठा लेते हैं, उसके बाद जनता के लिए खोलते हैं. कई बेचारी तो टुकुर-टुकुर ताकती रह जाती हैं, खुल नहीं पाती हैं. जो खुल पाती हैं, भाई-भतीजो, यार-दोस्तों के कंधों पर सवारी करती जनता की ओर दो-चार क़दम चलती हैं और फिर दम तोड़ देती हैं. 'नरेगा' और 'सर्व शिक्षा अभियान' जैसी योजनाएं आईना की तरह साफ़ कर देती हैं हालात को. काम कोई कर रहा है भुगतान कोई और पा रहा है. जॉब-कार्ड उनके बने हैं जिन्हें जॉब से कोई लेना-देना नहीं है. नियम-क़ायदों को जिन ताक पर रखे जाने की बात होती रही है अब वो ताक भी नदारद है.
नितीशजी राशन-किराशन की बात कर रहे हैं. सुशासन की बात कर रहे हैं. कोसी को उन्होंने बार-बार महाप्रलय कहा है, अब भी कह देते हैं. बहुत से लोगों ने, जल और बांध विशेषज्ञों ने, हालांकि इस महाप्रलय की असलियत को पिछले पांच महीनों में कई बार देश और दुनिया के सामने रखा है. इंटरनेट पर भी सामग्री भरी पड़ी है. बहरहाल, इस बहस में फिलहाल न पड़ते हुए ये कहा जाए कि हर साल आने वाली रुटीनी बाढ़ से जो तबाही होती है वहां क़ायदे से मुआवज़ा क्यों नहीं पहुंच पाता है. न जाने देश के किस हिस्से में वो अन्न पैदा होता है जो राहत के दौरान बांटा जाता है. भले दिनों में जिसे जानवर भी सूंघकर छोड़ दिया करते हैं उसे इंसानों की झोली में तौल दिया जाता है. न जाने राहत-जोखाई में इस्तेमाल होने वाला बटखरा बनता कहां है जो तौलता तो पचास किलो है लेकिन चालिस-पैंतालिस किलो से ज़्यादा नहीं हो पाता है.
बातें बहुत है पर संकेत के लिए इतना काफ़ी है. इतनी दुर्दशा के बाद विकास यात्रा. जनता से सीधा संवाद बनाने के लिए यात्रा. सुशासन समझाने के लिए यात्रा. हम तो ठगा हुआ महसूस कर रहे हैं नितीशजी. राशन-किराशन तो आप न भी आए थे सत्ता में तब भी मिल रही थी. हमें तो आपसे उम्मीद थी कि आप आगे की सुविधाएं उपलब्ध कराएंगे. शुरू-शुरू में आपने कुछ संकेत दिया भी था. पर जल्दी ही बिसर गए. बिसर गए कहना ठीक नहीं होगा, भटक गए. नहीं कहना चाह रहा था लेकिन रोक नहीं पा रहा हूं. आपकी ये यात्रा एक चुनावी स्टंट-सी लग रही है. आपने कहा भी है कि चरणबद्ध चलेगी आपकी ये विकास-यात्रा. आखिरी चरण आते-आते चुनाव के दिन भी गिने ही रह जाएंगे. आपका कैंपेन ख़ुद-ब-ख़ुद औरों से आगे रहेगा. ये भी मैं कैसे कह सकता हूं. रामविलासजी और लालूजी भी अपने-अपने दिल्ली वाले एसाइन्मेंट्स के बहाने 'असली' काम कर ही रहे हैं. आप भी साफ़-साफ़ कह देते अमर सिंह और संजय दत्त की तरह कि आपने बिगूल फूंक दिया है.
24.1.09
22.1.09
ननिहाल जाना मेरे लिए हमेशा से एक सुखद अनुभव रहा है. 4 साल के बाद की उम्र के बाद का एक-एक ननिहाल प्रवास याद है मुझे. तब तो नानी के गांव में बसें नहीं जाया करती थीं. ननिहाल से लगभग 7-8 किलोमीटर पहले ही एक चौक हुआ करता था, हुआ क्या करता था आज भी है. 'कटरा'. कटरा पहुंचने के लिए मां मुज़फ़्फ़रपुर ज़ीरो माइल से बस लेती थीं. लगभग हर बार दीदी, मां और मेरे अलावा एक अटैची (जिसको आज तक मेरे घर में VIP बोलने का ही रिवाज़ है. अरिस्टोक्रेट या किसी और कंपनी की अटैची भी हमारे यहां 'भीआइपी' ही बोली जाती है. ), एक-आध चावल की बोरी और ठेकुआ-पेड़ा सरीखे कुछ घरेलू पकवानों का एक दउरा होता था हमारे साथ. और साथ में होते थे शंकर यानी शंकर मंडल. शंकर मंडल उस उस व्यवस्था के तहत हमा रे लिए घरेलू सदस्य थे जिसे बंधुआ मज़दूरी कहते हैं. ननिहाल यात्रा के दौरान सामानों को बैलगाड़ी, बस, रिक्शा, इत्यादि पर चढ़ाने-उतारने की जिम्मेदारी शंकर की होती थी.
एक मर्तबा नानाजी के देहांत के बाद हम ननिहाल जा रहे थे. मुज़फ़्फ़रपुर में जिस बस पर हम सवार हुए थे वो में कहीं ख़राब हो गयी थी. कटरा पहुंचते-पहुंचते काफ़ी देर हो चुकी थी. जाड़े में बेर डूब जाना ही काफ़ी देर माना जाता है गांव-देहात में, और बस ने तो हमें कटरा छोड़ा ही था सात-साढे सात के क़रीब. इतने समय तो देहात-उहात में चौक-चौराहे पर कुत्ते भी नज़र नहीं आते हैं. विकट समस्या आन पड़ी. मुझसे तीन साल बड़ी दीदी मुझे लगभग अपने साथ चिपकाए खड़ी थी माई (मां को हमारी पीढ़ी वाले परिवार में यही कहते हैं) के बग़ल में. और शंकर सामनों को एक बंद दुकान के आगे एक के उपर एक रख रहे थे. माई हम भाई-बहनों से पूछ कर इत्मिनान हो गयी थीं कि हमें भूख नहीं लगी है. कुछ देर बाद दूर कहीं से डिबिया की रोशनी दिखी शंकर को. शंकर ने माई से पूछकर कोनो बेबस्था करने चले गए. थोड़ी देर बाद शंकर के बाद एक अधेड़ उम्र के आदमी आए और माई से बातचीत करने लगे. माई ने मामा का नाम लिया और बताया कि उनके भाई डॉक्टर हैं. वो आदमी मामा को जानते थे. तत्काल वे हमारे आव-भगत में लग गए. थोड़ी देर में हम उनकी दुकान के पास चले आए थे. हमें वहां बिठाकर
एक मर्तबा नानाजी के देहांत के बाद हम ननिहाल जा रहे थे. मुज़फ़्फ़रपुर में जिस बस पर हम सवार हुए थे वो में कहीं ख़राब हो गयी थी. कटरा पहुंचते-पहुंचते काफ़ी देर हो चुकी थी. जाड़े में बेर डूब जाना ही काफ़ी देर माना जाता है गांव-देहात में, और बस ने तो हमें कटरा छोड़ा ही था सात-साढे सात के क़रीब. इतने समय तो देहात-उहात में चौक-चौराहे पर कुत्ते भी नज़र नहीं आते हैं. विकट समस्या आन पड़ी. मुझसे तीन साल बड़ी दीदी मुझे लगभग अपने साथ चिपकाए खड़ी थी माई (मां को हमारी पीढ़ी वाले परिवार में यही कहते हैं) के बग़ल में. और शंकर सामनों को एक बंद दुकान के आगे एक के उपर एक रख रहे थे. माई हम भाई-बहनों से पूछ कर इत्मिनान हो गयी थीं कि हमें भूख नहीं लगी है. कुछ देर बाद दूर कहीं से डिबिया की रोशनी दिखी शंकर को. शंकर ने माई से पूछकर कोनो बेबस्था करने चले गए. थोड़ी देर बाद शंकर के बाद एक अधेड़ उम्र के आदमी आए और माई से बातचीत करने लगे. माई ने मामा का नाम लिया और बताया कि उनके भाई डॉक्टर हैं. वो आदमी मामा को जानते थे. तत्काल वे हमारे आव-भगत में लग गए. थोड़ी देर में हम उनकी दुकान के पास चले आए थे. हमें वहां बिठाकर
21.1.09
'व' की जगह हम 'ब' या 'भ' से ही काम चला लेंगे ....
हिन्दी ही चलती है हमारे प्रदेश में भी. घर में चाहे बज्जिका बोलते हों या भोजपुरी या मैथिली या फिर अंगिका; घर से निकलते ही सब हिन्दी में तब्दील हो जाती है. पर इस बदली हुई हिन्दी पर घर के अंदर बोली जाने वाली बोली का वर्चस्व होता ही है, स्थापित नहीं करना पड़ता है. फिलहाल मैं उस बहस में नहीं पड़ना चाहता कि घर के अंदर बोली जाने वाली बोली भाषा विज्ञान की दृष्टि से ठीक होती है या बेठीक. इतना ज़रूर है कि उसे बोलने - बरतने में बड़ा मज़ा आता है. पर यही हिन्दी बनकर जब जबान से बाहर आती है कि उसमें एक अटपटापन होता है.
दादी कहती थीं, 'चल रे लडिका सS, महाबीरी धजा पूजे; सब कोने के पेरा देबउ'. बालपन की बात को याद करके आज भी बड़ा सामान्य लगता है दादी का हम सब बच्चों को उस तरह कहना. पर वही बात जब छुट्टियों के बाद वापस हॉस्टल लौट कर दोस्तों से कुछ इस तरह कहते थे :
'एक दिन अपनी दादी के साथ महाबीरी धाजा के पूजा में गये थे हम'
तो बिल्कुल ठीक-ठीक तो नहीं ही लगता था.
एक बोली के तौर पर घरों के अंदर बोली जाने वाली और घर से बाहर इस्तेमाल की जाने वाली हिंदी में से किसी की महत्ता को कम करके नहीं आंक रहा हूं. दोनों की अपनी जगह है. कई मर्तबे दोनों एक-दूसरे को समृद्ध बनाते हैं. पर यही लगता है कि दोनों के अंदाज़ को अगर अक्षुण्ण रखा जा सके तो क्या ही बढिया होगा.
ऐसा कहते वक्त मैं आम तौर पर बिहार में बरते जाने वाली हिन्दी को ज़रूर रेखांकित करना चाहूंगा. यह कहना कि हिंदी की वर्णमाला से बिहार में यदि 'व' निकाल भी लिया जाए तो वहां संप्रेषण की समस्या नहीं आएगी, ग़लत और अतिशयोक्ति नहीं मानी जानी चाहिए. लोग इस 'व' की जगह कहीं 'ब' से तो कहीं 'भ' से काम चला लेते हैं. धड़ल्ले से चल रहा है. मजाल है कि स्कूल या कॉलेज में मास्साहब टोक दें कि पट्ठा ग़लत बोल रहा है.
दादी कहती थीं, 'चल रे लडिका सS, महाबीरी धजा पूजे; सब कोने के पेरा देबउ'. बालपन की बात को याद करके आज भी बड़ा सामान्य लगता है दादी का हम सब बच्चों को उस तरह कहना. पर वही बात जब छुट्टियों के बाद वापस हॉस्टल लौट कर दोस्तों से कुछ इस तरह कहते थे :
'एक दिन अपनी दादी के साथ महाबीरी धाजा के पूजा में गये थे हम'
तो बिल्कुल ठीक-ठीक तो नहीं ही लगता था.
एक बोली के तौर पर घरों के अंदर बोली जाने वाली और घर से बाहर इस्तेमाल की जाने वाली हिंदी में से किसी की महत्ता को कम करके नहीं आंक रहा हूं. दोनों की अपनी जगह है. कई मर्तबे दोनों एक-दूसरे को समृद्ध बनाते हैं. पर यही लगता है कि दोनों के अंदाज़ को अगर अक्षुण्ण रखा जा सके तो क्या ही बढिया होगा.
ऐसा कहते वक्त मैं आम तौर पर बिहार में बरते जाने वाली हिन्दी को ज़रूर रेखांकित करना चाहूंगा. यह कहना कि हिंदी की वर्णमाला से बिहार में यदि 'व' निकाल भी लिया जाए तो वहां संप्रेषण की समस्या नहीं आएगी, ग़लत और अतिशयोक्ति नहीं मानी जानी चाहिए. लोग इस 'व' की जगह कहीं 'ब' से तो कहीं 'भ' से काम चला लेते हैं. धड़ल्ले से चल रहा है. मजाल है कि स्कूल या कॉलेज में मास्साहब टोक दें कि पट्ठा ग़लत बोल रहा है.
8.1.09
सामाजिक संघर्षों को संबल प्रदान करते ब्लॉग
'मीडियास्कैन' टीम के कहने पर अख़बार के जनवरी अंक के लिए ब्लॉग और सामाजिक सरोकारों पर एक लेख मैंने लिखा था. संभवत: स्थानाभाव के चलते अख़बार में लेख अधूरा छप पाया. हां, ज़रा ध्यान से संपादकीय कैंची चली होती तो कम-से-कम लेख का मूल तर्क पाठकों तक जा पाता. बहरहाल, संपादन के सांस्थानिक महत्त्व का आदर करते हुए 'मीडियास्कैन' में छपे 'सामाजिक संघर्षों को सबलता' का असली प्रारूप यहां पेश कर रहा हूं.
मान लेने में कोई हिचक नहीं होनी चाहिए कि ब्लॉग की ने तमाम किस्मों की अभिव्यलक्तियों को प्रबल और मुखर बनाया है. व्यक्तिगत तौर पर लोग ब्लॉगबाज़ी कर रहे हैं, जो लिखना है, जैसे लिखना है - लिख रहे हैं. अपने ब्लॉग पर लिख रहे हैं, मित्रों के ब्लॉग के लिख रहे हैं, सामुदायिक ब्लॉगों पर लिख रहे हैं. कई दफ़े ये लेखन असरदार साबित हो रहे हैं. निचोड़, कि ब्लॉगिंग हिट है.
सामाजिक सरोकारों, आंदोलनों या संघर्षों की रोशनी में ब्लॉग की हैसियत की पड़ताल से पहले एक बात साफ़ हो जानी चाहिए. अकसर सुनने में आता है कि ‘जी, मैं तो स्वांत: सुखाय लिखता हूं’ या ये कि ‘फलां तो लिखता ही अपने लिए है’. मेरी इससे असहमति है. लिखते होंगे दिल को ख़ुश करने के लिए, पर ब्लॉग पर प्रकाशित हो जाने के बाद उस लिखे हुए के साथ लेखक और प्रकाशक के अलावा पाठक भी जुड़ जाता है. यह पाठक पर निर्भर करता है कि वह अब उस लिखे पर सहमति-असहमति, ख़ुशी-नाख़ुशी, तारीफ़ या खिंचाई में से, जो चाहे करे. ऐसा तो हो नहीं सकता कि किसी सामग्री को पढ़ने के बाद उस पर किसी की कोई राय बने ही न. मेरी इस दलील का गरज इतना भर है कि किसी प्रकार की अभिव्य क्ति के सार्वजनिक हो जाने के बाद उसका एक सामाजिक असर होता है. हर ब्लॉगलिखी किसी न किसी सामाजिक पहलू, प्रक्रिया, प्रवृत्ति, परिस्थिति या परिघटना पर उंगली रख रही होती है, उकेर रही होती है, उकसा रही होती है, या फिर उलझा या सुलझा रही होती है.
उपर वाले तर्क से यह साफ़ हो जाता है ब्लॉगगिरी अभिव्यक्ति के माध्य म से आगे बढ़ कर सामाजिक सरोकारों, संघर्षों और संस्थाहओं को संबल प्रदान करने का औज़ार भी बन चुका है. रोज़ नहीं तो कम-से-कम हफ़्ते में कोई न कोई मुद्दा आधारित ब्लॉग जनम रहा है. कहीं दलितमुक्ति पर लिखा जा रहा है तो कहीं महिलामुक्ति पर, कोई सूचना के अधिकार पर जानकारी बांट रहा है तो कोई पर्यावरण को लेकर चिंतित है, कोई कला और संस्कृगति जगत की हलचल से रू-ब-रू करा रहा है तो कहीं सरकार की जनविरोधी विकास नीतियों का प्रतिरोध दर्ज हो रहा है, कहीं राजनीति मसला है तो कहीं भ्रष्टारचार, कोई अपनी सामाजिक प्रतिबद्धताओं व गतिविधियों को साझा कर रहा है तो कोई ख़ालिस विचार-प्रचार में लीन है. अरज ये कि जितने नाम उतने रंग और जितने रंग उतने ढंग.
मिसाल के तौर पर सफ़र की स्वयंकबूली देखिए, ‘एक ऐसी यात्रा जिसमें बेहतर समाज के निमार्ण और संघर्ष की कोशिशें जारी हैं ...’. सरसरी निगाह डालने पर पता चलता है कि शिक्षा, क़ानून, मीडिया और संस्कृति को लेकर सफ़र न केवल प्रतिबद्ध है बल्कि यत्र-तत्र प्रयोगात्मक कार्यक्रम भी चला रहा है. इसकी दायीं पट्टी पर त्वरित क़ानूनी सलाह के लिए हेल्पलाइन नं. +91 9899 870597 भी है. ख़ुद को आम आदमी का हथियार .... बताता सूचना का अधिकार संबंधित क़ानून, इसके इस्तेमाल और असर से जुड़े लेख, संस्मारण, रपट, इत्यादि का एक बड़ा जखीरा है. इसकी बायीं पट्टी पर आरटीआई हेल्पसलाइन नंबर 09718100180 दर्ज है. जमघट सड़कों पर भटकते बच्चों के एक अनूठे समूह के रचनात्मक कारनामों का सिलसिलेवार ब्यौरा पेश करता है. मैं जमघट को शुरुआत से जानता हूं और यह कह सकता हूं कि ब्लॉग ने जमघट को सहयोगियों व शुभचिंतकों का एक बड़ा दायरा दिया है.
वक़्त हो तो एक मर्तबा यमुना जीए अभियान पर हो आइए. यहां आपको दिल्ली में यमुना के साथ लगातार बढ़ते दुर्व्यवहार पर अख़बारी रपटों, सरकार के साथ किए जा रहे संवादों, लेखों, इत्या़दि के ज़रिए ज़ाहिर की जाने वाली चिंताएं मिलेंगी. पर्यावरण के मसले पर गहन-चिंतन में लीन दिल्ली ग्रीन पर निगाह डालें, पता चलेगा कि हिन्दीं में लिखा-पढ़ी करने वालों ने शहरीकरण के मौज़ूदा तौर-तरीक़ों व उसके समानंतर उभर रहे पर्यावरणीय जोखिमों पर किस तरह चुप्पी साध रखी हैं.
समता इंडिया दलित प्रश्नों व ख़बरों से जुड़े ब्लॉगों का एक बेहद प्रभावी मंच है. दलित मसले पर देश में क्या कुछ घटित हो रहा है, यहां से आपको मालूम हो जाएगा और विदेशी हलचलों की कडि़यां मिल जाएंगी. स्वरच्छकार डिग्निटी पर आपको सफ़ाईकर्मियों व सिर पर मैला ढोने वालों के मानवाधिकार के सवालों पर विद्याभूषण रावतजी के लेखों और उनके द्वारा संकलित सामग्रियों का एक बड़ा भंडार मिलेगा. ज़रा इस आत्मरपरिचय पर ग़ौर कीजिए, ‘धूल तब तक स्तुत्य है जब तक पैरों तले दबी है ... उडने लगे ... आँधी बन जाए ... तो आँख की किरकिरी है ..चोखेर बाली है’. जी हां, अत्यल्प समय में चोखेर बाली स्त्री-साहित्य पर बहस-मुबाहिसों के सायबरी केंद्र के रूप में स्थापित हो चुकी है.
छत्तीसगढ़ में सरकार द्वारा आंतरिक आंतकवाद से निबटने के नाम पर ज़मीनी स्तर पर सक्रिय मानवाधिकार कार्यकर्ताओं के
साथ की जा रही अमानवीय कार्रवाइयों के विरोध में नागरिकों व संगठनों का एक सामूहिक प्रयास है कैंपेन फ़ॉर पीस ऐंड जस्टिस इन छत्तीसगढ़. इस पर सलवा-जुड़म समेत तमाम सरकारी कार्यक्रमों व जनविरोधी क़ानूनों के बारे में पर्याप्त जानकारी संग्रहित है. आनि सिक्किम रंचा उस रोते हुए सिक्किम की दर्दनाक कहानी बयां करता है जहां पांच सौ से भी ज्यादा दिनों से स्थानीय लोग तीस्ता नदी को बांधने के सरकारी फ़ैसले के विरोध में अनशन पर बैठे हैं. यह नाता-रिश्ता, गांव-समाज और आजीविका के स्रोतों के तबाह होने की कारूणिक कहानियों और उसके खिलाफ़ एकजुट प्रतिरोध का हरपल अपडेटेड दस्तावेज़ है. काफिला अंग्रेजी में सक्रिय एक विशिष्ट किस्म का ब्लॉग है. आज की दुनिया के ज्वलंत प्रश्नों, मसलों और विचारों पर चिंतन-मनन करने वालों की एक टीम विचारोत्तेजक लेख, विवरण, संस्मरण, इत्यादि के मार्फ़त नियमित रूप से इसे संवर्द्धित करती रहती है, और जमकर बहसें होती हैं.
सामाजिक सरोकारों को लेकर कई बार आनन-फ़ानन में भी कुछ ब्लॉंग्स अस्तित्व में आते हैं और अपना छाप छोड़ जाते हैं. पिछले सालों में आए सुनामी, भूकंप और हालिया बाढ़ के बाद ऐसे कई ब्लॉगों का जन्म हुआ. इनमें से कुछ असरदार भी रहे. मिसाल के तौर पर दिल्ली स्कूल ऑफ़ सोशल वर्क द्वारा आरंभ किए गया बिहार फ़्लड रिलीफ़ बाढ़ग्रस्त इलाक़ों में तबाही की मंज़रबयानी और वहां चलाए जा रहे राहत और पुनर्वास कार्यों का एक अक्षुण्ण दस्ता़वेज़ बन चुका है. दास्तानगोई किस्सागोई की लुप्तमप्राय हो चुकी परंपरा को पुनर्जीवित करने का एक अनूठा प्रयास है.
खालिस विचार प्रचार और अपने एजेंडे को आगे बढ़ाने की जमात में जनवादी लेखक संघ और हितचिंतक जैसे ब्लॉगों का नाम शामिल है. पहले वाला जनवादी लेखन का सायबरी अभिलेखागार तैयार कर रहा है और बाद वाला ख़ुद को कट्टर दक्षिणपंथी विचारों के मार्फ़त राष्ट्रखवाद एवं लोकतंत्र की रक्षा में समर्पित बताता है.
यहां यह ग़ौरतलब है कि सामाजिक सरोकारों पर जितने ब्लॉग अंग्रेज़ी में दिखते हैं उतने हिन्दी में नहीं. सामाजिक संघर्षों, आंदोलनों या संस्थाओं के द्वारा चलाए जा रहे ब्लॉगों की कुछ सीमाएं भी हैं. मसलन, कई तो महीनों बाद अपडेट होते हैं, कईयों की पक्षधरता इतनी कट्टर होती है कि वे विवेकशीलता और तर्कपरकता से कोसों दूर चलते नज़र आते हैं. मैं एक बार फिर अपने शुरुआती दलीलों की ओर लौटना चाहता हूं. वो ये कि ख़ुद को किसी मुद्दा विशेष पर समर्पित होने का दावा करने वाला ब्लॉग ही उस मसले को नहीं उठा रहा होता है, कभी-कभी व्यक्तिगत ब्लॉगों पर छप रहे लोगों के अनुभवों से भी उस मसले को बल मिल रहा होता है और संघर्ष की ज़मीन तैयार हो रही होती है. ऐसे तमाम ब्लॉग मेरे लिए बेहद महत्त्वपूर्ण हैं.
ज़रूरी तकनीकि और शब्दावली की अनुपस्थिति में इंटरनेट पर हिंदी आज भी सपना ही होता. और इस लिहाज़ से कुछ लोगों के काम संस्थाओं पर भी भारी पड़ते हैं. रविशंकर श्रीवास्वर उर्फ़ रवि रतलामी और देवाशीष चक्रवर्ती उन गिने-चुने लोगों में से हैं जिन्होंने इंटरनेट पर हिंदी के लिए आवश्यक तकनीकि और भाषाई विकास में ऐतिहासित भूमिका अदा की और आज भी कर रहे हैं. हिन्दी के ब्लॉगल खिलाडि़यों को जब कोई परेशानी होती है तब रवि रतलामी का हिन्दी ब्लॉग उनको राहत प्रदान करता है, जबकि देवाशीष के नुक्ताचीनी पर नए-नए तकनीकि संबंधी पर्याप्त जानकारी होती है और निरंतर तो ठीक-ठाक ब्लॉगज़ीन बन चुका है.
सामाजिक सरोकारों की रोशनी में ब्लॉग पर चर्चा करते पर मोहल्ला को नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता है और न ही हिन्दयुग्म को. वृहत्तर सामाजिक हित के मसलों पर चर्चा और उतनी ही तीखी टिप्पणियां मोहल्ला पर ही संभव है. जबकि हिन्दमयुग्म ने ख़ुद को इंटरनेट पर हिन्दी की रफ़्तार बढ़ाने के लिए प्रशिक्षण से लेकर साहित्य-सृजन के अद्भुत मंच के रूप में स्थापित किया है.
2.1.09
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