24.1.09

राशन + किराशन = सुशासन

आजकल बिहार के मुख्‍यमंत्री माननीय नितीशजी 'विकास यात्रा' पर निकले हैं. काफ़ी समय बाद किसी राजनेता या कहें तो प्रदेश के मुख्‍यमंत्री की कोई यात्रा निकली है. यूं तो जो लाव-लश्‍कर इस यात्रा में नितीशजी के साथ है शायद उतने के साथ कितनी ही बार वे मुख्‍यमंत्री बनने के बाद बिहार के किसी न किसी हिस्‍से में जाते रहे हैं. पर यात्रा नामक संबोधन उन्‍होंने अपनी इस यात्रा को ही दी. ज़ाहिर है, ये यात्रा उनके लिए अन्‍य यात्राओं से अलग है. अलग है क्‍योंकि पहले वाली यात्राएं आम तौर पर 'दौरा' कहे गए.
नितीशजी की इस विकास-यात्रा का पहला चरण कल समाप्‍त हुआ है. कल सीतामढ़ी के बखरी नामक किसी स्‍थान पर मीडियाकर्मियों (टेलीविज़न के रिपोर्टरों) को वे बता रहे थे कि इस बार बिहार की जनता को विकास का मतलब और रफ़्तार बताने निकले हैं. वे घूम-घूम कर जनता से सीधा संवाद स्‍थापित कर रहे हैं और उनके दु:ख-दर्द को सुन रहे हैं और बता रहे हैं कि सुशासन क्‍या है. उन्‍होंने बताया कि लोगों को राशन-किराशन मिलने लग जाए तो समझिए सुशासन आ गया. सुशासन सुनिश्चित करना उनका मुख्‍य ध्‍येय है.
उनकी ये बात किसी शायरी से कम नहीं थी. इरशाद ही कहा जा सकता है ऐसा सुनने के बाद. कितना सुखद होता ये कहना! न कहा गया. सोचा भी न गया. थोड़ी देर के लिए सड़क-बिज़ली-पानी, जच्‍चा-बच्‍चा, दवा-दारू, शिक्षा-रोज़गार, क़ानून-व्‍यवस्‍था, मान-सम्‍मान भूल कर जनता ख़ुश हो जाती; पर वो स्थिति न बन पायी. चार साल गुज़र गए, अभी तो राशन-किराशन की व्‍यवस्‍था ही शेष रहती है.
मुज़फ़्फ़रपुर बिहार के गिने-चुने शहरों में शुमार किया जाता है. वहां पिछले पांच-छह सालों से ए फ़्लाईओवर बन रहा है. बन ही रहा है. स्‍थानीय लोग बस बन जाने की आस लगाए बैठे हैं. मोतीझील बाज़ार के एक दुकानदार के मुताबिक़ शुरू हुआ है तो काम समाप्‍त भी हो ही जाएगा. वैसे ही जैसे कोई जीव पैदा होता है और एक न एक दिन मर जाता है. यानी नियति तय है. कब और कैसे, न पूछें तो बेहतर. मुज़फ़्फ़रपुर शहर से शिवहर के रास्‍ते में क़रीब 20 किलोमीटर में छोटे-बड़े लगभग 18 पुल और पुलियों का काम तक़रीबन तीन साल पहले शुरू हुआ था. इलाक़े के लोगों ने तब बताया था कि बरसात के पहले सारा काम हो जाएगा, ऐसा सरकारी एलान हुआ है. दिन-रात काम चल रहा है. सच कहा था लोगों ने. काम 24 घंटे हो रहा था. कुछ पुल-पुलिए तैयार भी हो गए थे समय से. ताम-झाम, अगड़म-बगड़म हटाया भी नहीं गया था कि उनमें से कई बिखर गए. साल भर पहले तक कुछ पुलियों पर दोपहिया चालक भी वाहन चलना मुनासिब नहीं समझते थे. इस बीच कोई करिश्‍मा हुआ हो तो मुझे उसकी जानकारी नहीं है. हां, नितीश की सवारी जिन-जिन इलाक़ों से गुज़रेगी; उम्‍मीद है वहां कुछ रंग-रोगन ज़रूर हुआ होगा और लाल टोपी वाले सलामी ठोकने के लिए धुले कपड़े पहने खड़े भी होंगे किनारे पर. सड़कों की हालत कमोबेश ऐसी है कि अस्‍पताल के लिए निकली गर्भवती महिला प्रसव-उसव के 'झंझट' से गाड़ी में ही मुक्‍त हो जाए. यही कारण है कि जो अस्‍पताल में बच्‍चा जनना चाहती हैं उनके परिवार वाले नियत समय से महीना-डेढ़ महीना पहले शहर में कमरा किराए पर ले लेते हैं या किसी रिश्‍तेदार के यहां डेरा डाल लेते हैं. सड़कें कितनी बेहाल है उसकी पुष्टि इस बात से हो जाती है कि पिछले सालों में वहां की सड़कों पर छह चक्‍कों वाली गाडियों की जगह छोटी-छोटी बसों और ऑटो जैसी सवारी गाडियों ने ले ली है.
अब वसूली, फिरौती, लूट-मार को नए ठिकाने मिल गए हैं गांवो में. अपराधशास्‍त्र में दिलचस्‍पी रखने वालों के लिए बस सूत्र छोड़ रहा हूं. लोगों के घरों पर चिट्ठियां पहुंच जाती हैं, रकम दर्ज होता है, पता बताया होता है; बस पहुंचा देने का आदेश होता है. न पहुंचाने और चालाकी करने की सूरत में ख़ामियाजा भुगतने के लिए तैयार रहने का संदेश भी होता है. कभी चिट्ठी किसी गिरोह की बतायी जाती है तो कभी माओवादियों की. अफ़वाह है या हक़ीकत, न मालूम. गांव जाने पर ऐसा सुनने को मिल जाता है. कहीं बदला तो कहीं सबक, हत्‍याएं तो हो ही रही हैं. जातीय फ़साद नए क्षेत्र और नए परिवेश में फैले जा रहे हैं. जाति-आधारित हिंसा बढ़ी है. अब भी वो संस्‍कार और संस्‍कृति विकसित नहीं हुई कि महिलाओं के खिलाफ़ हिंसा को जुबान मिल सके. फिर भी अति की ख़बरें अकसर 'लीक' हो जाती है.
सबसे भारी मार पड़ी है शिक्षा-व्‍यवस्‍था पर. पिछले सालों में स्‍कूलों में शिक्षकों की बहाली कुछ-कुछ 'राग-दरबारी' के अध्‍यापकों के तर्ज पर हुई है. जाने-अनजाने मुखियाजी और सरपंच साहब से लेकर ब्‍लॉक के अधिकारियों तक का कोटा तय हो गया है. अपना नाम ठीक-ठीक न लिख-बोल पाने नौजवान भी अध्‍यापक नियुक्‍त हो गए हैं. बड़ी संख्‍या में ऐसे अध्‍यापकों की जेबों में किसी भी समय दो-चार पुडिया 'शिखर' उपलब्‍ध रहता है. अध्‍यापकी पाने के बाद उनकी जेबें और ज्‍़यादा पुडियों को थामने के क़ाबिल हो गयी हैं. प्राथमिक विद्यालयों को किसी योजना के तहत ट्रांजिस्‍टर सेट प्राप्‍त हो गए है. सोने पर सुहागा साबित हो रहे हैं ये ट्रांजिस्‍टर सेट. जब मर्जी होती है कान ऐंठ देते हैं और किसी बच्‍चे को उठाकर नचाना शुरू कर देते हैं. महिला शिक्षक तो निरीह बनी पति, पिता, भाई या देवर की फटफटी पर बैठकर आती हैं और घंटे-दो घंटे में ही उनके साथ वालों को जल्‍दी हो जाती है लौटने की. क्‍या करें, मन मसोस कर फिर फटफटी पर बैठ जाना पड़ता है. कहीं हेडमास्‍साहब ऐसा न करने देते हैं तो 'खचड़ा' कहलाते हैं. दोपहर के भोजन के नाम पर भी बच्‍चों को कुछ दिया जाता है लेकिन उसमें से काफ़ी कुछ विद्यालय के परिचालन के बनी समिति के लोग अपने-अपने मन माफिक चीज़ निकाल लेते हैं. हाई स्‍कूलों का स्‍टैंडर्ड बेहद लो हो चला है. कहां अपने ज़माने में दस-दस, बारह-बारह अध्‍यापकों पर चलने वाला स्‍कूल अब गिने-गुथे पांच-छह मास्‍टरों से काम चला रहे हैं. एक-एक मास्‍साहब पर तीन-तीन विषयों का बोझ लदा है. कलर्की-सलर्की अतिरिक्‍त. इधर प्रयोगशाला और पुस्‍तकालय के नाम पर कुछ पक्‍के कमरे भी जोड़वा दिए हैं सरकार ने. न पुस्‍तक है और न प्रयोग की सामग्री. चमत्‍कार ये कि कोई बच्‍चा प्रायोगिक परीक्षा में फ़ेल नहीं होता है. बाकी सारे विषयों से अच्‍छे नम्‍बर आते हैं प्रेक्टिकल में. कई विद्यालय सालों से इंचार्जजी के भरोसे चल रहे हैं. इंचार्ज बने आचार्यजी इतने से ख़ुश रहते हैं कि इंचार्जी के नाम पर उनको ऑफिशियल काम से जिला मुख्‍यालय तक आने-जाने का मौक़ा मिलता रहता है. वे नहीं कहते, लोग बताते हैं कि इस काम में कुछ टीए-सीए बन ही जाता होगा. आजकल वैसे भी पंचायती राज व्‍यवस्‍था में मुखियाजी और दो-एक अन्‍य ओहदाधारी पॉवर सेंटर बन निकले हैं. सो इनके साथ सेटिंग-वेटिंग हो जाने के बाद हाजिरी-उजरी का झमेला थोड़ा आसान हो जाता है.
अस्‍पतालों के रंगत में कुछ बदलाव दिखा है. पर शहरों तक ही. देहातों में न के बराबर. उपर वाली आखिरी दो-तीन पंक्तियां अस्‍पतालों के परिचालन और चाल-चलन पर भी लागू माना जा सकता है. कई अस्‍पताल खंडहर में तब्‍दील हो चुके हैं. भूतहा फिल्‍मों की शूटिंग के लिए मुकम्‍मल साईट. जहां रंगत बदली है वहां ग़ैर-सरकारी योगदान ज्‍़यादा दिखता है.
बिज़ली अपनी मर्जी से आती है और जाती भी अपनी मर्जी से ही है. गांव-कस्‍बों के लोग अब भी डीलर साहब के दरवाज़े पर महीने-दो महीने पर बंटने वाले मिट्टी तेल को ही ज्‍़यादा भरोसेमंद मानते हैं. बिजली का इस्‍तेमाल टीवी देखने या टीवी की बैटरी चार्ज करने के लिए होती है. अब एक और नया सिस्‍टम चल निकला है. शहरों में पहले से ही था गांवों में अब तेज़ी से लोकप्रिय हो रहा है. 'जेनरेटर वाला विद्युत बोर्ड'. कुछ निश्चित रकम प्रति माह, प्रति प्‍वायंट (सीएफ़एल बल्‍व और गर्मियों में पंखा, पर पंखे के लिए ज्‍़यादा रकम). बेरोज़गार नौजवानों को एक रोज़गार मिल गया है. पर इस तरह के विद्युत बोर्ड के परिचालन का काम प्रोपर्टी डीलिंग से कम झंझटिया नहीं है. समझ सकते हैं, किस तरह के लोग ये धंधा करते होंगे और कौन इसके उपभोक्‍ता होंगे.
दिल्‍ली और पटना वाली सरकारी योजनाएं ठिकाने तक आते-आते थक कर चूर हो जाती हैं. उन थकी हुई योजनाओं में से चुने और नियुक्‍त हुए जनप्रतिनिधि पहले अपना हिस्‍सा निकालते हैं या उसकी जुगत बिठा लेते हैं, उसके बाद जनता के लिए खोलते हैं. कई बेचारी तो टुकुर-टुकुर ताकती रह जाती हैं, खुल नहीं पाती हैं. जो खुल पाती हैं, भाई-भतीजो, यार-दोस्‍तों के कंधों पर सवारी करती जनता की ओर दो-चार क़दम चलती हैं और फिर दम तोड़ देती हैं. 'नरेगा' और 'सर्व शिक्षा अभियान' जैसी योजनाएं आईना की तरह साफ़ कर देती हैं हालात को. काम कोई कर रहा है भुगतान कोई और पा रहा है. जॉब-कार्ड उनके बने हैं जिन्‍हें जॉब से कोई लेना-देना नहीं है. नियम-क़ायदों को जिन ताक पर रखे जाने की बात होती रही है अब वो ताक भी नदारद है.
नितीशजी राशन-किराशन की बात कर रहे हैं. सुशासन की बात कर रहे हैं. कोसी को उन्‍होंने बार-बार महाप्रलय कहा है, अब भी कह देते हैं. बहुत से लोगों ने, जल और बांध विशेषज्ञों ने, हालांकि इस महाप्रलय की असलियत को पिछले पांच महीनों में कई बार देश और दुनिया के सामने रखा है. इंटरनेट पर भी सामग्री भरी पड़ी है. बहरहाल, इस बहस में फिलहाल न पड़ते हुए ये कहा जाए कि हर साल आने वाली रुटीनी बाढ़ से जो तबाही होती है वहां क़ायदे से मुआवज़ा क्‍यों नहीं पहुंच पाता है. न जाने देश के किस हिस्‍से में वो अन्‍न पैदा होता है जो राहत के दौरान बांटा जाता है. भले दिनों में जिसे जानवर भी सूंघकर छोड़ दिया करते हैं उसे इंसानों की झोली में तौल दिया जाता है. न जाने राहत-जोखाई में इस्‍तेमाल होने वाला बटखरा बनता कहां है जो तौलता तो पचास किलो है लेकिन चालिस-पैंतालिस किलो से ज्‍़यादा नहीं हो पाता है.
बातें बहुत है पर संकेत के लिए इतना काफ़ी है. इतनी दुर्दशा के बाद विकास यात्रा. जनता से सीधा संवाद बनाने के लिए यात्रा. सुशासन समझाने के लिए यात्रा. हम तो ठगा हुआ महसूस कर रहे हैं नितीशजी. राशन-किराशन तो आप न भी आए थे सत्ता में तब भी मिल रही थी. हमें तो आपसे उम्‍मीद थी कि आप आगे की सुविधाएं उपलब्‍ध कराएंगे. शुरू-शुरू में आपने कुछ संकेत दिया भी था. पर जल्‍दी ही बिसर गए. बिसर गए कहना ठीक नहीं होगा, भटक गए. नहीं कहना चाह रहा था ल‍ेकिन रोक नहीं पा रहा हूं. आपकी ये यात्रा एक चुनावी स्‍टंट-सी लग रही है. आपने कहा भी है कि चरणबद्ध चलेगी आपकी ये विकास-यात्रा. आखिरी चरण आते-आते चुनाव के दिन भी गिने ही रह जाएंगे. आपका कैंपेन ख़ुद-ब-ख़ुद औरों से आगे रहेगा. ये भी मैं कैसे कह सकता हूं. रामविलासजी और लालूजी भी अपने-अपने दिल्‍ली वाले एसाइन्‍मेंट्स के बहाने 'असली' काम कर ही रहे हैं. आप भी साफ़-साफ़ कह देते अमर सिंह और संजय दत्त की तरह कि आपने बिगूल फूंक दिया है.

3 comments:

  1. rashan-kirashan ke khel kafi thik dhang se samjhaya aapne........ kul milakar bihar ki taswir aaj bhi wahi ki wahi hai ..............
    nitish ke c.m banne ke baad ummid jagi to thi lakin natija sifar hi raha .u.p ,bihar hi gati ek jaisi hi hai ....... jaise u.p main saykil ke gunde haathi par chadh gaye waise hi bihar main jhopdi aur lalten ke sahare ji rahi janta to waisi ki waisi hai par sare chor uchakke aaj kal nitish raj main sarkari aawas main jarur rahne lage hain.....................................
    bihar main jald naye wikalpo ko khade karne ki jarurat hai ...............


    kabhi www.sachbolnamanahai.blogspot.com par bhi aayeye

    ReplyDelete
  2. दो महीने पहले बिहार जाने का मौका मिला.... कुछ अंतर तो दिखाई पड रहा है....पर अभी बहुत समय लगेगा......बिहार के संदर्भ में विकास का नाम भी लेने में।

    ReplyDelete
  3. सरजी, आप 26 जनवरी के नाम पर काहे नितीशजी की योजना पर मठ्ठा घोलने का काम कर रहे हैं। बोलकर गए होंगे, कलफ़ लगे कुर्ते पर हार्ड प्रेस करे...जनता से कहो कि एक-दो दिन एहसास करे कि वो खुश है, आगे का देखा जाएगा

    ReplyDelete