22.1.09

ननिहाल जाना मेरे लिए हमेशा से एक सुखद अनुभव रहा है. 4 साल के बाद की उम्र के बाद का एक-एक ननिहाल प्रवास याद है मुझे. तब तो नानी के गांव में बसें नहीं जाया करती थीं. ननिहाल से लगभग 7-8 किलोमीटर पहले ही एक चौक हुआ करता था, हुआ क्या करता था आज भी है. 'कटरा'. कटरा पहुंचने के लिए मां मुज़फ़्फ़रपुर ज़ीरो माइल से बस लेती थीं. लगभग हर बार दीदी, मां और मेरे अलावा एक अटैची (जिसको आज तक मेरे घर में VIP बोलने का ही रिवाज़ है. अरिस्टोक्रेट या किसी और कंपनी की अटैची भी हमारे यहां 'भीआइपी' ही बोली जाती है. ), एक-आध चावल की बोरी और ठेकुआ-पेड़ा सरीखे कुछ घरेलू पकवानों का एक दउरा होता था हमारे साथ. और साथ में होते थे शंकर यानी शंकर मंडल. शंकर मंडल उस उस व्यवस्था के तहत हमा रे लिए घरेलू सदस् थे जिसे बंधुआ मज़दूरी कहते हैं. ननिहाल यात्रा के दौरान सामानों को बैलगाड़ी, बस, रिक्शा, इत्यादि पर चढ़ाने-उतारने की जिम्मेदारी शंकर की होती थी.
एक मर्तबा नानाजी के देहांत के बाद हम ननिहाल जा रहे थे. मुज़फ़्फ़रपुर में जिस बस पर हम सवार हुए थे वो में कहीं ख़राब हो गयी थी. कटरा पहुंचते-पहुंचते काफ़ी देर हो चुकी थी. जाड़े में बेर डूब जाना ही काफ़ी देर माना जाता है गांव-देहात में, और बस ने तो हमें कटरा छोड़ा ही था सात-साढे सात के क़रीब. इतने समय तो देहात-उहात में चौक-चौराहे पर कुत्ते भी नज़र नहीं आते हैं. विकट समस्या आन पड़ी. मुझसे तीन साल बड़ी दीदी मुझे लगभग अपने साथ चिपकाए खड़ी थी माई (मां को हमारी पीढ़ी वाले परिवार में यही कहते हैं) के बग़ल में. और शंकर सामनों को एक बंद दुकान के आगे एक के उपर एक रख रहे थे. माई हम भाई-बहनों से पूछ कर इत्मिनान हो गयी थीं कि हमें भूख नहीं लगी है. कुछ देर बाद दूर कहीं से डिबिया की रोशनी दिखी शंकर को. शंकर ने माई से पूछकर कोनो बेबस्‍था करने चले गए. थोड़ी देर बाद शंकर के बाद एक अधेड़ उम्र के आदमी आए और माई से बातचीत करने लगे. माई ने मामा का नाम लिया और बताया कि उनके भाई डॉक्‍टर हैं. वो आदमी मामा को जानते थे. तत्‍काल वे हमारे आव-भगत में लग गए. थोड़ी देर में हम उनकी दुकान के पास चले आए थे. हमें वहां बिठाकर

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