केवल सुना ही था माघ मेला के बारे में, अबकी देखने का मौक़ा मिला. आज सुबह ही लौटा हूं इलाहाबाद से. हालांकि बहुत कुछ नहीं जानता मेला के बारे में, बस इतना जान पाया कि गंगा-यमुना के मिलानस्थल का बड़ा धार्मिक महत्त्व है. माघ में मकर संक्रान्ति से लेकर वसंतपंचमी तक दो-चार 'संगम-स्नान' बड़ा महत्त्वपूर्ण माना जाता है. समूचे माघ भर 'संगम-सेवन' (संगम-प्रवास) का संबंध भी पुण्य-कर्मों से जोड़कर बताया जाता है. 'कल्पवास' के तौर पर जाने जाने वाले इस प्रवास के लिए हज़ारों की तादाद में लोग देश के विभिन्न हिस्सों से वहां पहुंचते हैं.
अपने इलाहाबादी मित्र अंशु और उत्पला के कारण हमें भी ढलते मघ-मेला का सहभागी होने का मौक़ा मिला. 29 जनवरी को हम सपरिवार मेला पहुंचे. आगे बढ़ने से पहले ये बता देना अच्छा रहेगा कि मेला का अनुभव इतना व्यापक और सघन है कि एक-या दो पोस्ट में साझा करना मुश्किल होगा. कम-से-कम तीन किस्तें तो लिखनी ही पड़ेंगी. प्रस्तुत पोस्ट भूमिका भर बन जाए तो भला जानें.
मेला-स्थल केवल गंगा-यमुना (संगम में चप्पू चलाने वाले केवट और गंगा यमुना सरस्वती फिल्म के हिसाब से सरस्वती का संगम ही नहीं है, यह अपने दमदार लोकतांत्रिक समाज और साझी विरात की एक जबरदस्त मिसाल भी है. माथे पर अपने वज़न के बराबर बोझा लादे चलते चले जाने वाले हों या लग्ज़री कार वाले: जब गंगा नहाने की बात होती है तो घाट एक ही होता है. एक ही पंडा एक ही पुजारी नाई और केवट भी एक ही. लाखों की भीड़, और एक भी लफ़ड़ा-रगड़ा नहीं. सीखने के लिए काफ़ी कुछ था मेले में. पर कुछ चीज़ें ऐसी भी दिखीं, मन खिन्न हो गया. धर्मान्धता और धरम की आड़ में फलने वाले व्यवसाय भी दिखे. कोशिश रहेगी तीन-चार दिनों के दौरान देखे-भोगे को आपसे जल्दी ही साझा करूं. तब तक कुछ प्रतिनिधि तस्वीरें.
सारांश यहाँ आगे पढ़ें के आगे यहाँ
आपकी पोस्ट का इंतजार रहेगा ....
ReplyDeleteआप सादर आमंत्रित हैं, आनन्द बक्षी की गीत जीवनी का दूसरा भाग पढ़ें और अपनी राय दें!
ReplyDeleteदूसरा भाग | पहला भाग
सरजी, भूमिका बांध के ऐसे न ललचाइए,आलस तजिए और हाली-हाली लिख मारिए। औऱ जो धर्मांधता वाली बात लिखे हैं, कोशिश रहे कि उस पर कुछ विसेस रहे बात, संपादकीय टिप्पणी साथे-साथ
ReplyDeleteन भैया, ललचा नहीं रहा हूं. बस दो दिन की मोहलत चाहिए. फेर देखिए कितना आनंद आता है. :)
ReplyDeleteहमने तो भूमिका अब पढी और पहला पेच पहले पढ लिया खैर फोटो अच्छे है। वहाँ जाकर तो इतने अनुभव मिलते है कि आपका झोला भी छोटा पड जाता है। राकेश जी हम तो बडे ही बेसब्र इंसान है जल्दी से दूसरी कडी भी लिख दीजिए।
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