अपने पंडाल में लौटने से पहले मैं दो-चार बड़े बाबाओं के पंडालों की ओर आपको ले चलना चाहूंगा. फर्ज कीजिए अभी आप स्वामी राकेशदेवजी के पंडाल के मुख्य द्वार पर आ पहुंचे हैं. (स्पष्ट कर लें कि हर पंडाल एक अस्थायी घर ही होते हैं, कई तो इतने आलीशान होते हैं कि पांच सितारा भी पीछे रह जाएं) तो स्वामी राकेशदेवजी के पंडाल का मुख्यद्वार एक तोड़नद्वार-सा है जिस पर आप स्वामीजी की प्रवचन मुद्रा वाली तस्वीर और कुछ संदेश (मसलन, मानवजीवन अमूल्य है, नष्ट न होने दो इसे; प्रभुभक्ति ही जीवन का सत्य है, इत्यादि) युक्त फ़्लैक्स वाला वृहदाकार पोस्टर टंगा पाते हैं. यह सोचते हुए आप अंदर झांक कर देखने की कोशिश करते हैं कि अंदर का नज़ारा क्या है. अंदर से एक आदमी आता है आपसे आपके बारे में पूछता है और ये जानने पर कि आप अंदर के बारे में कुछ जानना चाहते हैं आपसे कहता है, 'अभी विश्राम का समय है; शाम 4 बजे से प्रवचन होगा, तब आइएगा'. उस आदमी की कद-काठी और डील-डौल को देखकर आप वहां से चुपचाप आगे बढ़ जाना ही बेहतर समझते हैं.
आगे वाला पंडाल किसी बाबा रमेशजी का पाते हैं. वहां आप कोई प्रवचन हो रहा पाते हैं. थोड़ा ठहर कर सुनते हैं आप, फिर पता चलता है इनकी भक्ति राम से नहीं है इनका इष्ट तो कोई मुरलीवाला है. उसकी कारस्तानियों को रासलीला कहकर पेश किया जा रहा है. जितनी बातें कही जा रही है उस मुरलीवाले के बारे में, कम से कम आज के 'श्रीराम सेना' वाले तो उसे कब का टांग चुके होते!
आप कुछ मिनट बाद आगे बढ़ जाते हैं. एक घेरे में पहुंचते हैं. दिलचस्प नज़ारा दरपेश होता है आपके सामने. कुछ मंचासीन महिलाएं भजन गा रही होती हैं और नीचे बिछे पुआल पर कुछ लोग गर्दन हिला-हिला कर हल्की थपडियों के साथ उन साध्वियों के उत्साहवर्द्धन में लीन दिखने हैं. क्षण भर वहां विलमने के बाद आप जैसे बाहर निकलने के लिए यू-टर्न लेते हैं, कोने में उन साध्वियों की चेहरों वाली तस्वीरों के साथ भजनों की सीडियां बिक्री के लिए उपलब्ध पाते हैं. आपको अपने पंडाल की याद आने लगती है क्योंकि बाल-मज़दूरी पर पंजाब से आए साथीसुप्रीत और सैमुएल की नाट्य-प्रस्तुति का समय होने ही वाला है.
मेला प्रशासन का पंडाल. दिल्ली से आए ख़ुर्शीद भाई इलाहाबाद के कुछ नौजवानों के साथ 'साझापन' पर बातचीत कर रहे हैं. बीच-बीच में उत्पला, अंशु तथा इंसाफ़ के दो अन्य साथी भी ख़ुर्शीद भाई की मदद कर रहे हैं. सुबह ग्यारह बजे जब वर्कशॉप आरंभ हुई थी उस वक़्त कम से कम पांच-छ सहभागियों ने किसी धर्म या संप्रदाय विशेष के प्रति अपनी कट्टर आस्था व्यक्त की थी. उनकी तबीयत अज़ीब तरह के राष्ट्रवाद के बोझ तले दबी थी; दो बजते-बजते लगभग सब इस बात पर सहमत हो गए थे कि 'हम जितने लोग इस कार्यशाला में आए हैं उनमें काफ़ी हद तक समानता है और जो नहीं है वहां हम साझा करने को तैयार हैं'. है न मज़ेदार बात! यक़ीन मानिए हमेशा मुफ़्त में बंटती खिचड़ी खाकर पंडाल में पटाए रहने वाले साधुओं की एक भारी तादाद भी दूर से इस वर्कशॉप का हिस्सा बने रहे. पूरे कार्यशाला तक कुछ न बोले. पर 'सौ सोनार के और एक लोहार का' वाले तर्ज पर उनके छोटे-मोटे हस्तक्षेप ही यह साबित कर गए कि सधुअई के धंधे में भी सब हरा-हरा नहीं है. वंचनाओं, वर्जनाओं, और भेदभावों से लदी-फदी है सधुअई.
प्लास्टिक शीट और कंबल को स्लीपिंग बैग की तरह चिपकाए टहलने वाली साधुओं की वह जमात कम-से-कम कट्टर नहीं दिखी. वह धर्म-कर्म के धंधे में फैले सोपान-व्यवस्था की मारी हुई लगी. किसी भी वृहदाकार पंडाल में ऐसे किसी धरतीपकड़ बाबा को गर्दन हिला-हिलाकर भक्तिरस में विभोर होते नहीं पाया. वहां तो बाबाजी के शरणागतों में ज्यादातर गृहस्थ जीवन से दिखे जिनका डील-डौल भारतीय मध्यवर्ग से काफ़ी हद तक मिलता-जुलता लगा. शायद बातचीत के क्रम में कुछ कारण्ा उभर कर सामने आए.
(जारी)
एक अच्छा दश्य खींच दिया आपने। देख और पढकर सुखद लगा। कभी गए नही इसी जगह। आपकी आंखो से देख रहे है।
ReplyDeleteशुक्रिया सुशील भाई. अभी कुछ और रहता है लिखने के लिए.
ReplyDeleteभाई सारे साधू ऐसे नहीं होते है। नेगेटिव सोच को बदले। संतो के बारे में अप्सब्द न कहे। और रमेशजी बाबा महान् संत है उनका अपमान करके नरक जाने का रास्ता मत बना। मुरलीवाले को समझना सबके बस की बात नहीं है
ReplyDeleteभाई सारे साधू ऐसे नहीं होते है। नेगेटिव सोच को बदले। संतो के बारे में अप्सब्द न कहे। और रमेशजी बाबा महान् संत है उनका अपमान करके नरक जाने का रास्ता मत बना। मुरलीवाले को समझना सबके बस की बात नहीं है
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