सुना होगा आपने भी कि 'फलां ने घर में घुसकर चिलां को ठोक दिया'. लगभग ऐसा ही किया हमारे इलाहाबादी मित्रों ने इस माघ मेले में. और नहीं तो क्या! कहां तो तंबुओं और कनातों से अंटा मेला, भांति-भांति के अखाड़ों में
अलग-अलग शेड्स के केसरिया में लिपटे साधुओं का जत्था, तंबुओं में अनवरत चलते प्रवचनों के दौर , तिथिवार बंटते ब्रह्मचर्य की धर्म-दीक्षाओं, रामलीलाओं, रासलीलाओं, शिवमहिमाओं ..., संगम में एक साथ लगती हज़ारों डुबकियों, धार्मिक भजनों और मुफ़्त बंटते प्रसादों के बीच ही शहरी ग़रीबी संघर्ष मोर्चा, इंस्टीट्यूट फ़ॉर सोशल डेमोक्रेसी, विज्ञान फ़ाउंडेशन, इतिहासबोध मंच और मुहिम से जुड़े मित्रों ने मनाया साझी संस्कृति और साझी विरासत का महोत्सव सिरजन.
मेला के बांध के अंदर वाले हिस्से में दाखिल होते ही मेला प्रशासन का बड़ा-सा पंडाल; 29 जनवरी को निराला, नज़ीर, कबीर, कैलाश गौतम, पाश, इत्यादि की कविताओं और गीतों से बने बड़े-बड़े पोस्टरों से सज़कर नितांत नया नज़ारा पेश कर रहा था. उस पंडाल के लिए उत्पला, अंशु, ज़फ़र, जितेन्द्र, राकेश, अवनीश तथा कुछ अन्य साथियों को बहुत दौड़-भाग करनी पड़ी थी.
उसी पंडाल में कानपुर से आए एकलव्य के साथी अब्दुल ने जब इलाहाबाद शहर की झोपड़पट्टियों से आए सौ से भी ज़्यादा बच्चों के बीच 'मालती के बच्चे को सर्दी लग गयी, हम उसकी गर्म तेल से मालिश करेंगे ...' गा-गा कर सुनाना सुनाना शुरू किया तब अपने-आप वर्कशॉप जमने लगी. उसके बाद अब्दुल भाई ने खेल-खेल में रोज़मर्रा के बेहद महत्त्वपूर्ण पहलुओं पर विमर्श पेश किए. ऐं गजब! एक-एक बच्चा अब्दुल भाई के इशारे पर मस्त! एक खेल था 'बात का बतंगड़'. अब्दुल भाई ने बच्चों को एक बड़े से गोल दायरे में बिठाया और किसी एक की कान में कुछ कहा. और उससे कहा कि अब उसने जो सुना उसे अपनी दायीं ओर वाले बच्चे की कान में कह दे और यह प्रक्रिया अंतिम बच्चे के कान तक उस बात के पहुंचने तक चलती रहे. यही हुआ. अब अब्दुल भाई ने उस बच्ची को बुलाया जिसने सबसे आखिर में बात सुनी थी कि वो सबके सामने बताए कि उसने क्या सुना. उस बच्ची ने बताया 'मिरची'. अब्दुल भाई ने अब उस बच्चे को बुलाया जिसके कान में उन्होंने कुछ कहा था, और पूछा 'तुमने क्या सुना था?' बच्चे ने कहा, 'माघ मेला'. ज़ोरदार ठहाका पड़ा. लेकिन हम सब जानते हैं बातें जब इस प्रकार सफ़र तय करती है तो अकसर बदल जाती है. और भी कई रोचक खेल खेलाए अब्दुल भाई ने.
उसके बाद सिरजन का औपचारिक उद्घाटन करते हुए इलाहाबाद के प्रख्यात सामाजिक व राजनीतिक कार्यकर्ता जिया भाई ने गंगा-जमुनी तहज़ीब के बारे में बताया और इस बात पर ज़ोर दिया कि युद्ध और वैमनस्य किसी भी दौर में लोकप्रिय नहीं रहे हैं. हमने हमेशा ही अपने सामने वाले का सम्मान किया है. जब तक हमारा व्यवहार ऐसा बना रहेगा हमारी एकता पर आंच नहीं आ सकता. प्रख्यात इतिहासकार और सामाजिक कार्यकर्ता श्री लालबहादुर वर्मा ने उस मौक़े पर नज़ीर और निराला को याद करते हुए कहा कि 'हमारे पास नज़ीर और निराला जैसी परंपरा है जिससे हम साझापन सीखते हैं'. उस मौक़े पर कुछ सांस्कृतिक पर्चे भी जारी किए गए.
शाम ढलते ही इलाहाबाद के स्कूली बच्चों ने सांप्रदायिक सौहार्द और आपसी भाइचारे पर नृत्य और गीत के कई कार्यक्रम पेश किए. और देर रात अनिल भौमिक के निर्देशन में 'असमंजस बाबू' नामक एक नाटक पेश किया गया. हज़ार-बारह सौ की क्षमता वाले उस पंडाल में आम मेलार्थियों का रेला लगा रहा. लोग आते रहे और कार्यक्रम में मग्न होते रहे. इस तरह सिरजन का पहला दिन समाप्त हुआ.
(...जारी)
बढिया दृश्यचित्र खींचा है.
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