12.2.09
11.2.09
क्यों ये साधु भिखारी नहीं हैं
वही मेला प्रशासन वाला पंडाल जो हमारे साथियों ने बड़ी दौड़-धूप के बाद तीन दिनों के लिए हासिल किया था, पिछली रात 'असमंजस बाबू' की प्रस्तुति के वक़्त मेलार्थियों से ठसाठस भर गया था. धरती से जुड़े साधु-सन्यासियों की संख्या तुलनात्मक रूप से ज़्यादा थी. ये वो साधु होते हैं जिन्हें आप एक किस्म का भिखारी कह सकते हैं. हालांकि मेरे लिए भीख मांगने का धंधा कभी भी सकारात्मक नहीं रहा, पर न जाने क्यों इन साधुओं को मैं नकारात्मक श्रेणी में नहीं डाल पा रहा हूं. अगले दो दिनों के दिनों के दौरान मेला का अनुभव और फिर पंडाल में अपने कार्यक्रमों के ज़रिए और स्पष्ट हो गया क्यों ये साधु भिखारी नहीं हैं और एक ख़ास व्यवस्था के मारे हुए हैं.
अपने पंडाल में लौटने से पहले मैं दो-चार बड़े बाबाओं के पंडालों की ओर आपको ले चलना चाहूंगा. फर्ज कीजिए अभी आप स्वामी राकेशदेवजी के पंडाल के मुख्य द्वार पर आ पहुंचे हैं. (स्पष्ट कर लें कि हर पंडाल एक अस्थायी घर ही होते हैं, कई तो इतने आलीशान होते हैं कि पांच सितारा भी पीछे रह जाएं) तो स्वामी राकेशदेवजी के पंडाल का मुख्यद्वार एक तोड़नद्वार-सा है जिस पर आप स्वामीजी की प्रवचन मुद्रा वाली तस्वीर और कुछ संदेश (मसलन, मानवजीवन अमूल्य है, नष्ट न होने दो इसे; प्रभुभक्ति ही जीवन का सत्य है, इत्यादि) युक्त फ़्लैक्स वाला वृहदाकार पोस्टर टंगा पाते हैं. यह सोचते हुए आप अंदर झांक कर देखने की कोशिश करते हैं कि अंदर का नज़ारा क्या है. अंदर से एक आदमी आता है आपसे आपके बारे में पूछता है और ये जानने पर कि आप अंदर के बारे में कुछ जानना चाहते हैं आपसे कहता है, 'अभी विश्राम का समय है; शाम 4 बजे से प्रवचन होगा, तब आइएगा'. उस आदमी की कद-काठी और डील-डौल को देखकर आप वहां से चुपचाप आगे बढ़ जाना ही बेहतर समझते हैं.
आगे वाला पंडाल किसी बाबा रमेशजी का पाते हैं. वहां आप कोई प्रवचन हो रहा पाते हैं. थोड़ा ठहर कर सुनते हैं आप, फिर पता चलता है इनकी भक्ति राम से नहीं है इनका इष्ट तो कोई मुरलीवाला है. उसकी कारस्तानियों को रासलीला कहकर पेश किया जा रहा है. जितनी बातें कही जा रही है उस मुरलीवाले के बारे में, कम से कम आज के 'श्रीराम सेना' वाले तो उसे कब का टांग चुके होते!
आप कुछ मिनट बाद आगे बढ़ जाते हैं. एक घेरे में पहुंचते हैं. दिलचस्प नज़ारा दरपेश होता है आपके सामने. कुछ मंचासीन महिलाएं भजन गा रही होती हैं और नीचे बिछे पुआल पर कुछ लोग गर्दन हिला-हिला कर हल्की थपडियों के साथ उन साध्वियों के उत्साहवर्द्धन में लीन दिखने हैं. क्षण भर वहां विलमने के बाद आप जैसे बाहर निकलने के लिए यू-टर्न लेते हैं, कोने में उन साध्वियों की चेहरों वाली तस्वीरों के साथ भजनों की सीडियां बिक्री के लिए उपलब्ध पाते हैं. आपको अपने पंडाल की याद आने लगती है क्योंकि बाल-मज़दूरी पर पंजाब से आए साथीसुप्रीत और सैमुएल की नाट्य-प्रस्तुति का समय होने ही वाला है.
मेला प्रशासन का पंडाल. दिल्ली से आए ख़ुर्शीद भाई इलाहाबाद के कुछ नौजवानों के साथ 'साझापन' पर बातचीत कर रहे हैं. बीच-बीच में उत्पला, अंशु तथा इंसाफ़ के दो अन्य साथी भी ख़ुर्शीद भाई की मदद कर रहे हैं. सुबह ग्यारह बजे जब वर्कशॉप आरंभ हुई थी उस वक़्त कम से कम पांच-छ सहभागियों ने किसी धर्म या संप्रदाय विशेष के प्रति अपनी कट्टर आस्था व्यक्त की थी. उनकी तबीयत अज़ीब तरह के राष्ट्रवाद के बोझ तले दबी थी; दो बजते-बजते लगभग सब इस बात पर सहमत हो गए थे कि 'हम जितने लोग इस कार्यशाला में आए हैं उनमें काफ़ी हद तक समानता है और जो नहीं है वहां हम साझा करने को तैयार हैं'. है न मज़ेदार बात! यक़ीन मानिए हमेशा मुफ़्त में बंटती खिचड़ी खाकर पंडाल में पटाए रहने वाले साधुओं की एक भारी तादाद भी दूर से इस वर्कशॉप का हिस्सा बने रहे. पूरे कार्यशाला तक कुछ न बोले. पर 'सौ सोनार के और एक लोहार का' वाले तर्ज पर उनके छोटे-मोटे हस्तक्षेप ही यह साबित कर गए कि सधुअई के धंधे में भी सब हरा-हरा नहीं है. वंचनाओं, वर्जनाओं, और भेदभावों से लदी-फदी है सधुअई.
प्लास्टिक शीट और कंबल को स्लीपिंग बैग की तरह चिपकाए टहलने वाली साधुओं की वह जमात कम-से-कम कट्टर नहीं दिखी. वह धर्म-कर्म के धंधे में फैले सोपान-व्यवस्था की मारी हुई लगी. किसी भी वृहदाकार पंडाल में ऐसे किसी धरतीपकड़ बाबा को गर्दन हिला-हिलाकर भक्तिरस में विभोर होते नहीं पाया. वहां तो बाबाजी के शरणागतों में ज्यादातर गृहस्थ जीवन से दिखे जिनका डील-डौल भारतीय मध्यवर्ग से काफ़ी हद तक मिलता-जुलता लगा. शायद बातचीत के क्रम में कुछ कारण्ा उभर कर सामने आए.
अपने पंडाल में लौटने से पहले मैं दो-चार बड़े बाबाओं के पंडालों की ओर आपको ले चलना चाहूंगा. फर्ज कीजिए अभी आप स्वामी राकेशदेवजी के पंडाल के मुख्य द्वार पर आ पहुंचे हैं. (स्पष्ट कर लें कि हर पंडाल एक अस्थायी घर ही होते हैं, कई तो इतने आलीशान होते हैं कि पांच सितारा भी पीछे रह जाएं) तो स्वामी राकेशदेवजी के पंडाल का मुख्यद्वार एक तोड़नद्वार-सा है जिस पर आप स्वामीजी की प्रवचन मुद्रा वाली तस्वीर और कुछ संदेश (मसलन, मानवजीवन अमूल्य है, नष्ट न होने दो इसे; प्रभुभक्ति ही जीवन का सत्य है, इत्यादि) युक्त फ़्लैक्स वाला वृहदाकार पोस्टर टंगा पाते हैं. यह सोचते हुए आप अंदर झांक कर देखने की कोशिश करते हैं कि अंदर का नज़ारा क्या है. अंदर से एक आदमी आता है आपसे आपके बारे में पूछता है और ये जानने पर कि आप अंदर के बारे में कुछ जानना चाहते हैं आपसे कहता है, 'अभी विश्राम का समय है; शाम 4 बजे से प्रवचन होगा, तब आइएगा'. उस आदमी की कद-काठी और डील-डौल को देखकर आप वहां से चुपचाप आगे बढ़ जाना ही बेहतर समझते हैं.
आगे वाला पंडाल किसी बाबा रमेशजी का पाते हैं. वहां आप कोई प्रवचन हो रहा पाते हैं. थोड़ा ठहर कर सुनते हैं आप, फिर पता चलता है इनकी भक्ति राम से नहीं है इनका इष्ट तो कोई मुरलीवाला है. उसकी कारस्तानियों को रासलीला कहकर पेश किया जा रहा है. जितनी बातें कही जा रही है उस मुरलीवाले के बारे में, कम से कम आज के 'श्रीराम सेना' वाले तो उसे कब का टांग चुके होते!
आप कुछ मिनट बाद आगे बढ़ जाते हैं. एक घेरे में पहुंचते हैं. दिलचस्प नज़ारा दरपेश होता है आपके सामने. कुछ मंचासीन महिलाएं भजन गा रही होती हैं और नीचे बिछे पुआल पर कुछ लोग गर्दन हिला-हिला कर हल्की थपडियों के साथ उन साध्वियों के उत्साहवर्द्धन में लीन दिखने हैं. क्षण भर वहां विलमने के बाद आप जैसे बाहर निकलने के लिए यू-टर्न लेते हैं, कोने में उन साध्वियों की चेहरों वाली तस्वीरों के साथ भजनों की सीडियां बिक्री के लिए उपलब्ध पाते हैं. आपको अपने पंडाल की याद आने लगती है क्योंकि बाल-मज़दूरी पर पंजाब से आए साथीसुप्रीत और सैमुएल की नाट्य-प्रस्तुति का समय होने ही वाला है.
मेला प्रशासन का पंडाल. दिल्ली से आए ख़ुर्शीद भाई इलाहाबाद के कुछ नौजवानों के साथ 'साझापन' पर बातचीत कर रहे हैं. बीच-बीच में उत्पला, अंशु तथा इंसाफ़ के दो अन्य साथी भी ख़ुर्शीद भाई की मदद कर रहे हैं. सुबह ग्यारह बजे जब वर्कशॉप आरंभ हुई थी उस वक़्त कम से कम पांच-छ सहभागियों ने किसी धर्म या संप्रदाय विशेष के प्रति अपनी कट्टर आस्था व्यक्त की थी. उनकी तबीयत अज़ीब तरह के राष्ट्रवाद के बोझ तले दबी थी; दो बजते-बजते लगभग सब इस बात पर सहमत हो गए थे कि 'हम जितने लोग इस कार्यशाला में आए हैं उनमें काफ़ी हद तक समानता है और जो नहीं है वहां हम साझा करने को तैयार हैं'. है न मज़ेदार बात! यक़ीन मानिए हमेशा मुफ़्त में बंटती खिचड़ी खाकर पंडाल में पटाए रहने वाले साधुओं की एक भारी तादाद भी दूर से इस वर्कशॉप का हिस्सा बने रहे. पूरे कार्यशाला तक कुछ न बोले. पर 'सौ सोनार के और एक लोहार का' वाले तर्ज पर उनके छोटे-मोटे हस्तक्षेप ही यह साबित कर गए कि सधुअई के धंधे में भी सब हरा-हरा नहीं है. वंचनाओं, वर्जनाओं, और भेदभावों से लदी-फदी है सधुअई.
प्लास्टिक शीट और कंबल को स्लीपिंग बैग की तरह चिपकाए टहलने वाली साधुओं की वह जमात कम-से-कम कट्टर नहीं दिखी. वह धर्म-कर्म के धंधे में फैले सोपान-व्यवस्था की मारी हुई लगी. किसी भी वृहदाकार पंडाल में ऐसे किसी धरतीपकड़ बाबा को गर्दन हिला-हिलाकर भक्तिरस में विभोर होते नहीं पाया. वहां तो बाबाजी के शरणागतों में ज्यादातर गृहस्थ जीवन से दिखे जिनका डील-डौल भारतीय मध्यवर्ग से काफ़ी हद तक मिलता-जुलता लगा. शायद बातचीत के क्रम में कुछ कारण्ा उभर कर सामने आए.
(जारी)
10.2.09
माघ मेला: मालती के बच्चे को सर्दी लग गई
जितने तंबु उतने मंत्र और उतने हज़ार, दस हज़ार गुना मंत्रोच्चार! आवाज़ों की मारकाट! मिसरी, बताशे की तरह चूसे और चाटे जा रहे मंत्र! किसी तंबु में पचास, किसी में सौ, किसी में दो सौ, किसी में चार सौ सिर. किसी-किसी में छह-सात बजे के आसपास भी चार-पांच भक्तजन इस उम्मीद से भजनरूप में निकल रहे बाबा उवाचों को गला फाड़-फाड़ कर दोहराते कि मजमा जमेगा क्यों नहीं! काश ऐसा हो पाता!
सुना होगा आपने भी कि 'फलां ने घर में घुसकर चिलां को ठोक दिया'. लगभग ऐसा ही किया हमारे इलाहाबादी मित्रों ने इस माघ मेले में. और नहीं तो क्या! कहां तो तंबुओं और कनातों से अंटा मेला, भांति-भांति के अखाड़ों में
अलग-अलग शेड्स के केसरिया में लिपटे साधुओं का जत्था, तंबुओं में अनवरत चलते प्रवचनों के दौर , तिथिवार बंटते ब्रह्मचर्य की धर्म-दीक्षाओं, रामलीलाओं, रासलीलाओं, शिवमहिमाओं ..., संगम में एक साथ लगती हज़ारों डुबकियों, धार्मिक भजनों और मुफ़्त बंटते प्रसादों के बीच ही शहरी ग़रीबी संघर्ष मोर्चा, इंस्टीट्यूट फ़ॉर सोशल डेमोक्रेसी, विज्ञान फ़ाउंडेशन, इतिहासबोध मंच और मुहिम से जुड़े मित्रों ने मनाया साझी संस्कृति और साझी विरासत का महोत्सव सिरजन.
मेला के बांध के अंदर वाले हिस्से में दाखिल होते ही मेला प्रशासन का बड़ा-सा पंडाल; 29 जनवरी को निराला, नज़ीर, कबीर, कैलाश गौतम, पाश, इत्यादि की कविताओं और गीतों से बने बड़े-बड़े पोस्टरों से सज़कर नितांत नया नज़ारा पेश कर रहा था. उस पंडाल के लिए उत्पला, अंशु, ज़फ़र, जितेन्द्र, राकेश, अवनीश तथा कुछ अन्य साथियों को बहुत दौड़-भाग करनी पड़ी थी.
उसी पंडाल में कानपुर से आए एकलव्य के साथी अब्दुल ने जब इलाहाबाद शहर की झोपड़पट्टियों से आए सौ से भी ज़्यादा बच्चों के बीच 'मालती के बच्चे को सर्दी लग गयी, हम उसकी गर्म तेल से मालिश करेंगे ...' गा-गा कर सुनाना सुनाना शुरू किया तब अपने-आप वर्कशॉप जमने लगी. उसके बाद अब्दुल भाई ने खेल-खेल में रोज़मर्रा के बेहद महत्त्वपूर्ण पहलुओं पर विमर्श पेश किए. ऐं गजब! एक-एक बच्चा अब्दुल भाई के इशारे पर मस्त! एक खेल था 'बात का बतंगड़'. अब्दुल भाई ने बच्चों को एक बड़े से गोल दायरे में बिठाया और किसी एक की कान में कुछ कहा. और उससे कहा कि अब उसने जो सुना उसे अपनी दायीं ओर वाले बच्चे की कान में कह दे और यह प्रक्रिया अंतिम बच्चे के कान तक उस बात के पहुंचने तक चलती रहे. यही हुआ. अब अब्दुल भाई ने उस बच्ची को बुलाया जिसने सबसे आखिर में बात सुनी थी कि वो सबके सामने बताए कि उसने क्या सुना. उस बच्ची ने बताया 'मिरची'. अब्दुल भाई ने अब उस बच्चे को बुलाया जिसके कान में उन्होंने कुछ कहा था, और पूछा 'तुमने क्या सुना था?' बच्चे ने कहा, 'माघ मेला'. ज़ोरदार ठहाका पड़ा. लेकिन हम सब जानते हैं बातें जब इस प्रकार सफ़र तय करती है तो अकसर बदल जाती है. और भी कई रोचक खेल खेलाए अब्दुल भाई ने.
उसके बाद सिरजन का औपचारिक उद्घाटन करते हुए इलाहाबाद के प्रख्यात सामाजिक व राजनीतिक कार्यकर्ता जिया भाई ने गंगा-जमुनी तहज़ीब के बारे में बताया और इस बात पर ज़ोर दिया कि युद्ध और वैमनस्य किसी भी दौर में लोकप्रिय नहीं रहे हैं. हमने हमेशा ही अपने सामने वाले का सम्मान किया है. जब तक हमारा व्यवहार ऐसा बना रहेगा हमारी एकता पर आंच नहीं आ सकता. प्रख्यात इतिहासकार और सामाजिक कार्यकर्ता श्री लालबहादुर वर्मा ने उस मौक़े पर नज़ीर और निराला को याद करते हुए कहा कि 'हमारे पास नज़ीर और निराला जैसी परंपरा है जिससे हम साझापन सीखते हैं'. उस मौक़े पर कुछ सांस्कृतिक पर्चे भी जारी किए गए.
शाम ढलते ही इलाहाबाद के स्कूली बच्चों ने सांप्रदायिक सौहार्द और आपसी भाइचारे पर नृत्य और गीत के कई कार्यक्रम पेश किए. और देर रात अनिल भौमिक के निर्देशन में 'असमंजस बाबू' नामक एक नाटक पेश किया गया. हज़ार-बारह सौ की क्षमता वाले उस पंडाल में आम मेलार्थियों का रेला लगा रहा. लोग आते रहे और कार्यक्रम में मग्न होते रहे. इस तरह सिरजन का पहला दिन समाप्त हुआ.
सुना होगा आपने भी कि 'फलां ने घर में घुसकर चिलां को ठोक दिया'. लगभग ऐसा ही किया हमारे इलाहाबादी मित्रों ने इस माघ मेले में. और नहीं तो क्या! कहां तो तंबुओं और कनातों से अंटा मेला, भांति-भांति के अखाड़ों में
अलग-अलग शेड्स के केसरिया में लिपटे साधुओं का जत्था, तंबुओं में अनवरत चलते प्रवचनों के दौर , तिथिवार बंटते ब्रह्मचर्य की धर्म-दीक्षाओं, रामलीलाओं, रासलीलाओं, शिवमहिमाओं ..., संगम में एक साथ लगती हज़ारों डुबकियों, धार्मिक भजनों और मुफ़्त बंटते प्रसादों के बीच ही शहरी ग़रीबी संघर्ष मोर्चा, इंस्टीट्यूट फ़ॉर सोशल डेमोक्रेसी, विज्ञान फ़ाउंडेशन, इतिहासबोध मंच और मुहिम से जुड़े मित्रों ने मनाया साझी संस्कृति और साझी विरासत का महोत्सव सिरजन.
मेला के बांध के अंदर वाले हिस्से में दाखिल होते ही मेला प्रशासन का बड़ा-सा पंडाल; 29 जनवरी को निराला, नज़ीर, कबीर, कैलाश गौतम, पाश, इत्यादि की कविताओं और गीतों से बने बड़े-बड़े पोस्टरों से सज़कर नितांत नया नज़ारा पेश कर रहा था. उस पंडाल के लिए उत्पला, अंशु, ज़फ़र, जितेन्द्र, राकेश, अवनीश तथा कुछ अन्य साथियों को बहुत दौड़-भाग करनी पड़ी थी.
उसी पंडाल में कानपुर से आए एकलव्य के साथी अब्दुल ने जब इलाहाबाद शहर की झोपड़पट्टियों से आए सौ से भी ज़्यादा बच्चों के बीच 'मालती के बच्चे को सर्दी लग गयी, हम उसकी गर्म तेल से मालिश करेंगे ...' गा-गा कर सुनाना सुनाना शुरू किया तब अपने-आप वर्कशॉप जमने लगी. उसके बाद अब्दुल भाई ने खेल-खेल में रोज़मर्रा के बेहद महत्त्वपूर्ण पहलुओं पर विमर्श पेश किए. ऐं गजब! एक-एक बच्चा अब्दुल भाई के इशारे पर मस्त! एक खेल था 'बात का बतंगड़'. अब्दुल भाई ने बच्चों को एक बड़े से गोल दायरे में बिठाया और किसी एक की कान में कुछ कहा. और उससे कहा कि अब उसने जो सुना उसे अपनी दायीं ओर वाले बच्चे की कान में कह दे और यह प्रक्रिया अंतिम बच्चे के कान तक उस बात के पहुंचने तक चलती रहे. यही हुआ. अब अब्दुल भाई ने उस बच्ची को बुलाया जिसने सबसे आखिर में बात सुनी थी कि वो सबके सामने बताए कि उसने क्या सुना. उस बच्ची ने बताया 'मिरची'. अब्दुल भाई ने अब उस बच्चे को बुलाया जिसके कान में उन्होंने कुछ कहा था, और पूछा 'तुमने क्या सुना था?' बच्चे ने कहा, 'माघ मेला'. ज़ोरदार ठहाका पड़ा. लेकिन हम सब जानते हैं बातें जब इस प्रकार सफ़र तय करती है तो अकसर बदल जाती है. और भी कई रोचक खेल खेलाए अब्दुल भाई ने.
उसके बाद सिरजन का औपचारिक उद्घाटन करते हुए इलाहाबाद के प्रख्यात सामाजिक व राजनीतिक कार्यकर्ता जिया भाई ने गंगा-जमुनी तहज़ीब के बारे में बताया और इस बात पर ज़ोर दिया कि युद्ध और वैमनस्य किसी भी दौर में लोकप्रिय नहीं रहे हैं. हमने हमेशा ही अपने सामने वाले का सम्मान किया है. जब तक हमारा व्यवहार ऐसा बना रहेगा हमारी एकता पर आंच नहीं आ सकता. प्रख्यात इतिहासकार और सामाजिक कार्यकर्ता श्री लालबहादुर वर्मा ने उस मौक़े पर नज़ीर और निराला को याद करते हुए कहा कि 'हमारे पास नज़ीर और निराला जैसी परंपरा है जिससे हम साझापन सीखते हैं'. उस मौक़े पर कुछ सांस्कृतिक पर्चे भी जारी किए गए.
शाम ढलते ही इलाहाबाद के स्कूली बच्चों ने सांप्रदायिक सौहार्द और आपसी भाइचारे पर नृत्य और गीत के कई कार्यक्रम पेश किए. और देर रात अनिल भौमिक के निर्देशन में 'असमंजस बाबू' नामक एक नाटक पेश किया गया. हज़ार-बारह सौ की क्षमता वाले उस पंडाल में आम मेलार्थियों का रेला लगा रहा. लोग आते रहे और कार्यक्रम में मग्न होते रहे. इस तरह सिरजन का पहला दिन समाप्त हुआ.
(...जारी)
3.2.09
माघ मेले की झलकी
केवल सुना ही था माघ मेला के बारे में, अबकी देखने का मौक़ा मिला. आज सुबह ही लौटा हूं इलाहाबाद से. हालांकि बहुत कुछ नहीं जानता मेला के बारे में, बस इतना जान पाया कि गंगा-यमुना के मिलानस्थल का बड़ा धार्मिक महत्त्व है. माघ में मकर संक्रान्ति से लेकर वसंतपंचमी तक दो-चार 'संगम-स्नान' बड़ा महत्त्वपूर्ण माना जाता है. समूचे माघ भर 'संगम-सेवन' (संगम-प्रवास) का संबंध भी पुण्य-कर्मों से जोड़कर बताया जाता है. 'कल्पवास' के तौर पर जाने जाने वाले इस प्रवास के लिए हज़ारों की तादाद में लोग देश के विभिन्न हिस्सों से वहां पहुंचते हैं.
अपने इलाहाबादी मित्र अंशु और उत्पला के कारण हमें भी ढलते मघ-मेला का सहभागी होने का मौक़ा मिला. 29 जनवरी को हम सपरिवार मेला पहुंचे. आगे बढ़ने से पहले ये बता देना अच्छा रहेगा कि मेला का अनुभव इतना व्यापक और सघन है कि एक-या दो पोस्ट में साझा करना मुश्किल होगा. कम-से-कम तीन किस्तें तो लिखनी ही पड़ेंगी. प्रस्तुत पोस्ट भूमिका भर बन जाए तो भला जानें.
मेला-स्थल केवल गंगा-यमुना (संगम में चप्पू चलाने वाले केवट और गंगा यमुना सरस्वती फिल्म के हिसाब से सरस्वती का संगम ही नहीं है, यह अपने दमदार लोकतांत्रिक समाज और साझी विरात की एक जबरदस्त मिसाल भी है. माथे पर अपने वज़न के बराबर बोझा लादे चलते चले जाने वाले हों या लग्ज़री कार वाले: जब गंगा नहाने की बात होती है तो घाट एक ही होता है. एक ही पंडा एक ही पुजारी नाई और केवट भी एक ही. लाखों की भीड़, और एक भी लफ़ड़ा-रगड़ा नहीं. सीखने के लिए काफ़ी कुछ था मेले में. पर कुछ चीज़ें ऐसी भी दिखीं, मन खिन्न हो गया. धर्मान्धता और धरम की आड़ में फलने वाले व्यवसाय भी दिखे. कोशिश रहेगी तीन-चार दिनों के दौरान देखे-भोगे को आपसे जल्दी ही साझा करूं. तब तक कुछ प्रतिनिधि तस्वीरें.
सारांश यहाँ आगे पढ़ें के आगे यहाँ
अपने इलाहाबादी मित्र अंशु और उत्पला के कारण हमें भी ढलते मघ-मेला का सहभागी होने का मौक़ा मिला. 29 जनवरी को हम सपरिवार मेला पहुंचे. आगे बढ़ने से पहले ये बता देना अच्छा रहेगा कि मेला का अनुभव इतना व्यापक और सघन है कि एक-या दो पोस्ट में साझा करना मुश्किल होगा. कम-से-कम तीन किस्तें तो लिखनी ही पड़ेंगी. प्रस्तुत पोस्ट भूमिका भर बन जाए तो भला जानें.
मेला-स्थल केवल गंगा-यमुना (संगम में चप्पू चलाने वाले केवट और गंगा यमुना सरस्वती फिल्म के हिसाब से सरस्वती का संगम ही नहीं है, यह अपने दमदार लोकतांत्रिक समाज और साझी विरात की एक जबरदस्त मिसाल भी है. माथे पर अपने वज़न के बराबर बोझा लादे चलते चले जाने वाले हों या लग्ज़री कार वाले: जब गंगा नहाने की बात होती है तो घाट एक ही होता है. एक ही पंडा एक ही पुजारी नाई और केवट भी एक ही. लाखों की भीड़, और एक भी लफ़ड़ा-रगड़ा नहीं. सीखने के लिए काफ़ी कुछ था मेले में. पर कुछ चीज़ें ऐसी भी दिखीं, मन खिन्न हो गया. धर्मान्धता और धरम की आड़ में फलने वाले व्यवसाय भी दिखे. कोशिश रहेगी तीन-चार दिनों के दौरान देखे-भोगे को आपसे जल्दी ही साझा करूं. तब तक कुछ प्रतिनिधि तस्वीरें.
सारांश यहाँ आगे पढ़ें के आगे यहाँ
Subscribe to:
Posts (Atom)