21.5.09
18.5.09
अगर बिनायक नक्सलाइट है तो मैं भी नक्सलाइट हूं : जस्टीस सच्चर
14 मई को जाने-माने बाल चिकित्सक, पीपुल्स युनियन फॉर सिविल लिवर्टिज़ के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष व सामाजिक कार्यकर्ता डॉ. बिनायक सेन के जेल जीवन के दो साल पूरे हो गए. डॉ. सेन को माओवादी गतिविधियों को बढ़ावा देने, राजद्रोह व राज्य के खिलाफ़ युद्ध छेड़ने का आरोपी मानते हुए छत्तीसगढ़ सरकार ने उन पर भारतीय दंड संहिता की विभिन्न धाराओं के अलावा 'छत्तीसगढ़ जनसुरक्षा कानून 2005' और 'ग़ैरक़ानूनी गतिविधि निवारक क़ानून (UAPA) 2004 (संशोधित)' जैसे कठोर क़ानून थोपकर रायपुर की जेल में क़ैद कर रखा है.
ग़रीब आदिवासियों का इलाज करने वाले इस डॉक्टर का दुनिया सम्मान करती है, पर छत्तीसगढ़ सरकार के लिए ये एक खुंखार नक्सलवादी हैं. इतना ही नहीं रायपुर से लेकर दिल्ली तक की अदालतें उन्हें जमानत पर बाहर आने लायक़ नहीं मानती है. तभी तो विभिन्न न्यायालयों द्वारा पिछले दो सालों में जमानत की उनकी अर्जियां एक-के-बाद-एक खारीज की जाती रही हैं. इधर दुनिया भर में डॉ सेन के प्रशंसकों, मित्रों, शुभचिंतकों व मानवाधिकार कार्यकर्ताओं को उनके स्वास्थ्य की चिंता लगी हुई है और उन्हें ऐसा लग रहा है कि छत्तीसगढ़ सरकार उनके खिलाफ़ किसी बड़ी साजिश गढ़ने में जुटी है.
डॉ विनायक सेन और उन जैसे मानवाधिकार कार्यकर्ताओं के साथ होने वाले सरकारी जुल्म व हिंसा के खिलाफ़ दुनिया भर से आवाज़ उठ रही है. नोबेल विजेताओं, बुद्धिजीवियों, मानवाधिकार कार्यकर्ताओं, संस्कृतिकर्मियों, छात्रों, कामगारों समेत स्वैच्छिक संगठनों व उनसे संबद्ध लोगों ने विनायक की रिहाई के लिए आवाज़ बुलंद की है. कैसी विडंबना है, बड़े से बड़े अपराधी न केवल जमानत पर बाहर आते हैं बल्कि चुनाव लड़-जीत कर जनता के लिए क़ानून भी बनाते हैं, और एक डॉ बिनायक हैं जिनके खिलाफ़ न कोई सबूत, न गवाह: फिर भी दो सालों से जेल की चारदिवारी में क़ैद हैं.
बिनायक सेन के साथ हो रहे इस अत्याचार के खिलाफ़ बीते 14 मई की शाम को नयी दिल्ली में एक 'प्रतिरोध कार्यक्रम' का आयोजन किया गया. रबिन्द्र भवन के लॉन्स में हुए उस प्रतिरोध कार्यक्रम में स्वामी अग्निवेश, नंदिता दास, अरुणधत्ती रॉय, संजय काक समेत आंदोलनों, सामाजिक संगठनों के कार्यकर्ताओं, संस्कृतिकर्मियों, बुद्धिजीवियों एवं बड़ी संख्या में बिनायक सेन के मित्रों, शुभचिंतकों, प्रशंसकों ने भाग लिया. लगभग ढाई तक चले उस कार्यक्रम में स्कूली बच्चों के अलावा दीप्ति एवं रब्बी शेरगिल जैसे ख्यातिप्राप्त कलाकारों ने गीत गाए तथा मंगलेश डबराल, के सच्चिदानंदन और गौहर रजा ने काव्य-पाठ किया.
डॉ बिनायक सेन पर हो रहे जुल्म पर बोलते हुए दिल्ली हाई कोर्ट के पूर्व मुख्य न्यायाधीश जस्टीस राजेन्द्र सच्चर ने कहा कि बिनायक सेन जैसे सामाजिक व मानवाधिकार कार्यकर्ताओं को झूठे आरोपों में फंसाया जाना मानवाधिकार आंदोलनों व मानवाधिकार कार्यकर्ताओं को डिमोरलाइज़ करने की कोशिश से अधिक कुछ नहीं है. पर न्यायपालिका द्वारा बिनायक को किसी प्रकार की राहत न मिलने पर क्षोभ प्रकट करते हुए जस्टीट सच्चर ने अदालत के रुख को आड़ो हाथों लिया और कहा, 'यदि बिनायक नक्सलाइट है तो मुझे यह कहने में हिचक नहीं है कि मैं भी नक्सलाइट हूं'.
कार्यक्रम के अंत में ख्यातिप्राप्त लेखिका व मानवाधिकार कार्यकर्ता सुश्री अरुणधत्ति रॉय ने कहा कि मानवाधिकार कार्यकर्ताओं पर दिनोंदिन बढ़ते सरकारी ज़ोर-जुल्म से यह साबित होता है कि सरकारें न केवलनिरंकुश होती जा रही हैं बल्कि बग़रीबों और मेहनकशों से उनके़ जीने का हक़ भी छीन लेना चाहती हैं. हालिया दौर में मानवाधिकार कार्यकताओं पर बढ़ते सरकारी जुल्म को उन्होंने उद्योगपतियों के पक्ष में ग़रीब-गुर्बों की हक़मारी बताया.
कार्यक्रम का संचालन पत्रकार व जाने-माने मानवाधिकार कार्यकर्ता मुकुल शर्मा ने किया.
हफ़्तावार के पाठकों के लिए पेश है कार्यक्रम की चंद झलकियां:
फेमिनिस्ट कार्यकर्ता दीप्ता और सहेलियों ने गाया संत गुलाबीदास का भजन ...
राजेन्द्र सच्चर का संबोधन ...
के सच्चिदानंदन का काव्यपाठ ...
बिनायक सेन के पक्ष में मंगलेश डबराल ...
गौहर रजा ने पढ़ी चंद नज़्में ...
रब्बी का 'बुल्ले की जाना' ...
अरुणधत्ति रॉय का समापन संबोधन ...
ग़रीब आदिवासियों का इलाज करने वाले इस डॉक्टर का दुनिया सम्मान करती है, पर छत्तीसगढ़ सरकार के लिए ये एक खुंखार नक्सलवादी हैं. इतना ही नहीं रायपुर से लेकर दिल्ली तक की अदालतें उन्हें जमानत पर बाहर आने लायक़ नहीं मानती है. तभी तो विभिन्न न्यायालयों द्वारा पिछले दो सालों में जमानत की उनकी अर्जियां एक-के-बाद-एक खारीज की जाती रही हैं. इधर दुनिया भर में डॉ सेन के प्रशंसकों, मित्रों, शुभचिंतकों व मानवाधिकार कार्यकर्ताओं को उनके स्वास्थ्य की चिंता लगी हुई है और उन्हें ऐसा लग रहा है कि छत्तीसगढ़ सरकार उनके खिलाफ़ किसी बड़ी साजिश गढ़ने में जुटी है.
डॉ विनायक सेन और उन जैसे मानवाधिकार कार्यकर्ताओं के साथ होने वाले सरकारी जुल्म व हिंसा के खिलाफ़ दुनिया भर से आवाज़ उठ रही है. नोबेल विजेताओं, बुद्धिजीवियों, मानवाधिकार कार्यकर्ताओं, संस्कृतिकर्मियों, छात्रों, कामगारों समेत स्वैच्छिक संगठनों व उनसे संबद्ध लोगों ने विनायक की रिहाई के लिए आवाज़ बुलंद की है. कैसी विडंबना है, बड़े से बड़े अपराधी न केवल जमानत पर बाहर आते हैं बल्कि चुनाव लड़-जीत कर जनता के लिए क़ानून भी बनाते हैं, और एक डॉ बिनायक हैं जिनके खिलाफ़ न कोई सबूत, न गवाह: फिर भी दो सालों से जेल की चारदिवारी में क़ैद हैं.
बिनायक सेन के साथ हो रहे इस अत्याचार के खिलाफ़ बीते 14 मई की शाम को नयी दिल्ली में एक 'प्रतिरोध कार्यक्रम' का आयोजन किया गया. रबिन्द्र भवन के लॉन्स में हुए उस प्रतिरोध कार्यक्रम में स्वामी अग्निवेश, नंदिता दास, अरुणधत्ती रॉय, संजय काक समेत आंदोलनों, सामाजिक संगठनों के कार्यकर्ताओं, संस्कृतिकर्मियों, बुद्धिजीवियों एवं बड़ी संख्या में बिनायक सेन के मित्रों, शुभचिंतकों, प्रशंसकों ने भाग लिया. लगभग ढाई तक चले उस कार्यक्रम में स्कूली बच्चों के अलावा दीप्ति एवं रब्बी शेरगिल जैसे ख्यातिप्राप्त कलाकारों ने गीत गाए तथा मंगलेश डबराल, के सच्चिदानंदन और गौहर रजा ने काव्य-पाठ किया.
डॉ बिनायक सेन पर हो रहे जुल्म पर बोलते हुए दिल्ली हाई कोर्ट के पूर्व मुख्य न्यायाधीश जस्टीस राजेन्द्र सच्चर ने कहा कि बिनायक सेन जैसे सामाजिक व मानवाधिकार कार्यकर्ताओं को झूठे आरोपों में फंसाया जाना मानवाधिकार आंदोलनों व मानवाधिकार कार्यकर्ताओं को डिमोरलाइज़ करने की कोशिश से अधिक कुछ नहीं है. पर न्यायपालिका द्वारा बिनायक को किसी प्रकार की राहत न मिलने पर क्षोभ प्रकट करते हुए जस्टीट सच्चर ने अदालत के रुख को आड़ो हाथों लिया और कहा, 'यदि बिनायक नक्सलाइट है तो मुझे यह कहने में हिचक नहीं है कि मैं भी नक्सलाइट हूं'.
कार्यक्रम के अंत में ख्यातिप्राप्त लेखिका व मानवाधिकार कार्यकर्ता सुश्री अरुणधत्ति रॉय ने कहा कि मानवाधिकार कार्यकर्ताओं पर दिनोंदिन बढ़ते सरकारी ज़ोर-जुल्म से यह साबित होता है कि सरकारें न केवलनिरंकुश होती जा रही हैं बल्कि बग़रीबों और मेहनकशों से उनके़ जीने का हक़ भी छीन लेना चाहती हैं. हालिया दौर में मानवाधिकार कार्यकताओं पर बढ़ते सरकारी जुल्म को उन्होंने उद्योगपतियों के पक्ष में ग़रीब-गुर्बों की हक़मारी बताया.
कार्यक्रम का संचालन पत्रकार व जाने-माने मानवाधिकार कार्यकर्ता मुकुल शर्मा ने किया.
हफ़्तावार के पाठकों के लिए पेश है कार्यक्रम की चंद झलकियां:
फेमिनिस्ट कार्यकर्ता दीप्ता और सहेलियों ने गाया संत गुलाबीदास का भजन ...
राजेन्द्र सच्चर का संबोधन ...
के सच्चिदानंदन का काव्यपाठ ...
बिनायक सेन के पक्ष में मंगलेश डबराल ...
गौहर रजा ने पढ़ी चंद नज़्में ...
रब्बी का 'बुल्ले की जाना' ...
अरुणधत्ति रॉय का समापन संबोधन ...
16.5.09
अखाड़ों में कई बार ये साबित हो चुका है कि ताल ठोंक कर खम भर के कोई गामा नहीं हो जाता. पल-पल में पोजिशन बदलने में माहिर कुनबे के लोग पता नहीं किस भ्रम में थे कि वे देश में 'निर्णायक' सरकार की स्थापना करके ही दम लेंगे. जनता ने एक बटन दबा कर साबित कर दिया कि हड़बोलवा आखिर हड़बोलवा ही होता है.
सारांश यहाँ आगे पढ़ें के आगे यहाँ
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11.5.09
10.5.09
धरती पर गोड़ रोपने को तैयारे नहीं है भाई लोग
एक-आध हफ़्ते से राजनीति के बज़ार में कुछ लीडर लोग का भाव भारी उछाल पर है. इ उछाल देखके उनमें से दु-एक गो एतना फुदक रहा है कि जेकर कौनो हिसाबे नहीं है. धरती पर गोड़ रोपने को तैयारे नहीं है भाई लोग. टीवी वाला पत्रकार भाई के हाथ में माइक देखने पर भाई लोग लजाते हैं, छाव धरते हैं; देख के लगता है कि भाई लोग एकदमे बोलना नहीं चाहते हैं लेकिन अगले क्षण जे चहकन भरल बाइट बोकरना शुरू करते हैं कि पत्रकार बंधुओं का रोम-रोम गदगद हो जाता है. चहुं ओर नौटंकी हो रही है. जबरदस्त नौटंकी. अगर नेता (पु.) के लिए भाई इस्तेमाल करने पर मित्र लोग एतराज न मान रहे हों त नेता (स्त्री.) के लिए बहिनी कहने का भी इजाजत ले लेते हैं. काहे कि एक-आध बहिनियों के गोड़ धरती पर ठहरे के लेल तैयार नहीं बुझाता है.
अब कौन तो जगह था उप्र में ... पीलीभीत के लगे ... टेलीविज़न समाचारों के मुताबिक कल यानी इतवार को इंदिरा गांधी के छोटे पोता और उनके माताजी को भाषण नहीं देने दिया उप्र सरकार ने. काहे कि उप्र सरकार ने अपने तीसरे आंख से देख लिया था कि मां-बेटा के बोलते ही उस हिस्से में शांति भंग हो जाएगी. मतलब तनाव-सा वातावरण था और शांति भंग होने की आशंका थी. उधर इंदिराजी का उत्तराधिकारी न बन पाने का मलाल छोटे सरकार को इतना सता रहा है कि बेचारे लाल-पीयर कुर्ता पहिन-पहिन के भाषण दे रहे हैं. कभी सिख जैसन पग बांध के त कभी खदान के मजदूर अस मुरेठा बांध के माइक के आगे चिघ्घाड़ रहे हैं. कह रहे हैं कि बीते बीस बरिस में भारत को मजबूत नेता नहीं मिला. कह इ भी रहे हैं कि अपने बाबूजी की तरह ही वे एक दिन मजबूत नेता बनेंगे और उनके बताए रस्ते पर चलके देश की रक्षा करेंगे और इसको प्रगतिपथ पर आगे बढ़ाएंगे. हे आम भारतीय जनमानस एगो आउर करिया वानर आवे के संकेत बुझा रहा है हमको. अप्रत्यक्ष रूप से इनकर बाबूजी के सशक्त नेतृत्व के दौरान जेलभोग चुके अडवाणी त ओ मजबूत नेतृत्व के कारस्तानी को कोसते-कोसते खोंख जाते थे, का पता कैसे मति मारी गयी अब त एकदमे धृतराष्ट्र बन गए हैं. जेटली-उटली जैसे विदुर और संजय दबी जुबान में कुछ समझाने की कोशिशो करता है त अडवाणीजी बिदक जाते हैं, कहते हैं मेनका के लाडले पर बड़ा जुल्म ढाया है हाथी वाली ने, ओह! इ लडिका के साथ डांट फटकार एकदम बर्दाश्त नहीं करेंगे. नतीजा देखिए कि मां लाडला के पंजरा में खड़ी रहती है अंचरा तान के आउर लाडला हर दोसर लाइन के बाद मां कसम खाता है. हमर एगो सलाह है बउआ के महतारी से, घर से चले से पहिए लडिका के कुछ खिया-पिया के निकलिए. केतना दिन कसम पर जियाना चाहते हैं. कमज़ोर पड़ जाएगा. अभी तो इ अंगड़ाइए है, सउंसे लड़ाई त बांकिए है. मोदीजी जइसन खाएल-पीएल पकठाएल हिन्दु का इ लडिका एको खुराक नहीं होगा. लेकिन हे मेनका हमर सलाह मानना-न मानना ऑप्शनल है. लोकतंत्र आखिर है काहे.
आउर हे मेनकापुत्र आपका उत्साह सचमुच रोमांच पैदा करता है. का कहते हैं, हं स्पीरिट. इ स्पीरिट बनाए रखिए. फुदकते हुए अच्छे दिखते हैं आप.
ओने नीतीशजी को देखिए. स्वयंभू विकासपुरुष हैं. गजब का विकास किए हैं. सरकारी तंत्र में नीचे से उपर ले अपने जाति-बिरादरी वालों को ऐसा ठूंसे हैं कि पूछिए मत. बिहार में ऐसा जाति-निरपेक्ष शासन मिश्राजी के जमाने से पहिले या बाद में कभी आया हो तो हे पाठकवृंद ज़रा मेरा सूचना-ज्ञान अवश्य बढा दें. बड़े इमानदार हैं. लालू राज के प्रणेता रहे नीतीशजी धर्मनिरपेक्षो हैं. आउर नहीं तो क्या! जब ले बिहार में सभी चालीस सीटों के लिए मतदान का काम निबट नहीं गया, बिहार के बाहर नहीं गए. गुजरात वाले मोदी के साथ मंच पर बोलने की बात तो दूर उनके जौरे खड़ा होने से भी साफ़ इनकार कर दिए थे. आप सुधी जन ही बता दीजिए कि बीते 31 दिनों में आपमें से किसी ने उनको आडवाणी के बैकअप के तौर पर ग्रुम किए जा रहे मोदी के साथ कहीं तस्वीर में भी देखी है. कइसे देख लीजिएगा? खिंचवइवे नहीं किए फोटू, त देख कहां से लीजिएगा? चुनाव-प्रचार के दौरान नीतीशजी ने मोदी महाराज को बिहार आने का 'वीजा' तक नहीं दिया, कहे बिहार वाला एनडीए नेतृत्व सफीशिएंट है वोट जुटाने के लिए. काहे ? काहे कि मुस्लिम वोट की चिंता थी. साल भर चेक वाले गमछा को तिकोना मोड़ के गर्दन पर लटकाए थे और जो जाली वाल नन्हकी टोपी माथ पर पहिने थे : फोकटे में ? इमेज बनता है उससे. सब नेता करता है अइसे. लेकिन नीतीश जबसे एनडीए के नाम पर भाजपा के जौरे गलबहियां कर रहे हैं तब से मुसलमानों में त उनके सेकुलर छवि को लेकर सवाल खड़ा तो हुआ ही है. बाकी नेता हैं, उपर से आडवाणीजी को प्रधानमंत्री बनाने के कैंपेन में शामिल भी हैं. उधर राहुल बाबा ने तारीफ़ करते हुए विकास की ओर अग्रसर क्या बता दिया, आडवाणीजी ऐंड कंपनी की बेचैनी बढ़ गयी. नवीन बाबू साथ छोडिए गए कहीं नीतीशजी छोड़ दिए तब त बुढौती का सपना सपने न रह जाएगा. न जाने कइसे-कइसे क्या हुआ. साहब का सेकुलरिज़्म देखिए, कल खुर्राट केसरियों के जौरे मंच पर विराजमान थे पंजाब में. जाने से पहले पटना में टीवी वालों को बताया कि अकाली दल ने बुलाया है, इसीलिए जा रहे हैं. गए ही नहीं, भाईजी अपील कर आए पंजाब में भइयों (बिहारी प्रवासी मज़दूरों) से कि उ उहां अका-भाजपा गठबंधन अर्थात् एनडीए के पक्ष में मतदान करें. ऐसा करते हुए विकासपुरुष एकदम लजइबो नहीं किए. चंद महीनों में कार्यकाल पूरा होने वाला है लेकिन जनाब के राज में मज़दूरों के पलायन पर रोक लगाने का कोई उल्लेखनीय प्रयास नहीं हुआ. देखिए, दिन भर के किए-कराए को रात को एके बार कैसे दोदने लगे. पटना लौटते ही पत्रकारों से बताया कि हाथ पकड़ कर मोदी उठाया त का मना कर देते. माने अब भी उनकरा को सेकुरले मानिए हे भारतीय जनमानस.
उधर दक्षिण में टीआरएस है. जितने चुनाव नहीं लड़े उससे ज़्यादा पार्टनर बदल लिए. एक-आध चुनाव तक लोग भेद कर पाएंगा उसके बाद फेर वही बात: जब तेलुगू देशम हइए है त आपकी क्या ज़रूरत. जेतना हेराफेरी तेलुगूदेशम वाले कर पा रहे हैं उतना त आपसे होइबो नहीं करेगा. अइसे में आपको वोट काहे दिया जाए. माने कुछ समय बाद आप ही महत्त्वहीन हो जाएंगे. हं, खां-म-खां तमाशा बनते रहते हैं. तेलंगाना चाहिए, अलग चाहिए. ठीक है. सिद्धांतत: बात से कौन सहमत नहीं होगा. पर कुछ दिन टिको त सही. थोड़ा संघर्ष तो करो. गद्दर तो दिल्ली में आकर धरना-प्रदर्शन भी करते रहे. आपने क्या कर लिया. पार्टी बना ली, झंडा बदल लिया, गमछा बदल लिया, दो चार नारे गढ लिए. यही न? अब भी समय है. जहां सटे हो, कम से कम कुछ समय उनके साथ ठहरो, अपनी बात उनको समझाओ. ख़ैर पार्टी के नेता चंद्रशेखर आडवाणी के आभामंडल से इतने चमत्कृत थे कि अपनी पार्टी के अलावा इधर-उधर से कुछ और समर्थन जुटाने का वायदा करने से ख़ुद को न रोक पाए.
वैसे त कुछ आउर नेताओं के भाव में उछाल आया है, पर उपर वर्णित तीनों पर इसका यकसां असर हुआ है, पर अलग-अलग. तीनों के अपने एजेंडे हैं और रास्ते भी अलग-अलग. देखते रहिएगा अगले एक-आध हफ़्ते में क्या गुल खिलाते हैं ये लोग.
अब कौन तो जगह था उप्र में ... पीलीभीत के लगे ... टेलीविज़न समाचारों के मुताबिक कल यानी इतवार को इंदिरा गांधी के छोटे पोता और उनके माताजी को भाषण नहीं देने दिया उप्र सरकार ने. काहे कि उप्र सरकार ने अपने तीसरे आंख से देख लिया था कि मां-बेटा के बोलते ही उस हिस्से में शांति भंग हो जाएगी. मतलब तनाव-सा वातावरण था और शांति भंग होने की आशंका थी. उधर इंदिराजी का उत्तराधिकारी न बन पाने का मलाल छोटे सरकार को इतना सता रहा है कि बेचारे लाल-पीयर कुर्ता पहिन-पहिन के भाषण दे रहे हैं. कभी सिख जैसन पग बांध के त कभी खदान के मजदूर अस मुरेठा बांध के माइक के आगे चिघ्घाड़ रहे हैं. कह रहे हैं कि बीते बीस बरिस में भारत को मजबूत नेता नहीं मिला. कह इ भी रहे हैं कि अपने बाबूजी की तरह ही वे एक दिन मजबूत नेता बनेंगे और उनके बताए रस्ते पर चलके देश की रक्षा करेंगे और इसको प्रगतिपथ पर आगे बढ़ाएंगे. हे आम भारतीय जनमानस एगो आउर करिया वानर आवे के संकेत बुझा रहा है हमको. अप्रत्यक्ष रूप से इनकर बाबूजी के सशक्त नेतृत्व के दौरान जेलभोग चुके अडवाणी त ओ मजबूत नेतृत्व के कारस्तानी को कोसते-कोसते खोंख जाते थे, का पता कैसे मति मारी गयी अब त एकदमे धृतराष्ट्र बन गए हैं. जेटली-उटली जैसे विदुर और संजय दबी जुबान में कुछ समझाने की कोशिशो करता है त अडवाणीजी बिदक जाते हैं, कहते हैं मेनका के लाडले पर बड़ा जुल्म ढाया है हाथी वाली ने, ओह! इ लडिका के साथ डांट फटकार एकदम बर्दाश्त नहीं करेंगे. नतीजा देखिए कि मां लाडला के पंजरा में खड़ी रहती है अंचरा तान के आउर लाडला हर दोसर लाइन के बाद मां कसम खाता है. हमर एगो सलाह है बउआ के महतारी से, घर से चले से पहिए लडिका के कुछ खिया-पिया के निकलिए. केतना दिन कसम पर जियाना चाहते हैं. कमज़ोर पड़ जाएगा. अभी तो इ अंगड़ाइए है, सउंसे लड़ाई त बांकिए है. मोदीजी जइसन खाएल-पीएल पकठाएल हिन्दु का इ लडिका एको खुराक नहीं होगा. लेकिन हे मेनका हमर सलाह मानना-न मानना ऑप्शनल है. लोकतंत्र आखिर है काहे.
आउर हे मेनकापुत्र आपका उत्साह सचमुच रोमांच पैदा करता है. का कहते हैं, हं स्पीरिट. इ स्पीरिट बनाए रखिए. फुदकते हुए अच्छे दिखते हैं आप.
ओने नीतीशजी को देखिए. स्वयंभू विकासपुरुष हैं. गजब का विकास किए हैं. सरकारी तंत्र में नीचे से उपर ले अपने जाति-बिरादरी वालों को ऐसा ठूंसे हैं कि पूछिए मत. बिहार में ऐसा जाति-निरपेक्ष शासन मिश्राजी के जमाने से पहिले या बाद में कभी आया हो तो हे पाठकवृंद ज़रा मेरा सूचना-ज्ञान अवश्य बढा दें. बड़े इमानदार हैं. लालू राज के प्रणेता रहे नीतीशजी धर्मनिरपेक्षो हैं. आउर नहीं तो क्या! जब ले बिहार में सभी चालीस सीटों के लिए मतदान का काम निबट नहीं गया, बिहार के बाहर नहीं गए. गुजरात वाले मोदी के साथ मंच पर बोलने की बात तो दूर उनके जौरे खड़ा होने से भी साफ़ इनकार कर दिए थे. आप सुधी जन ही बता दीजिए कि बीते 31 दिनों में आपमें से किसी ने उनको आडवाणी के बैकअप के तौर पर ग्रुम किए जा रहे मोदी के साथ कहीं तस्वीर में भी देखी है. कइसे देख लीजिएगा? खिंचवइवे नहीं किए फोटू, त देख कहां से लीजिएगा? चुनाव-प्रचार के दौरान नीतीशजी ने मोदी महाराज को बिहार आने का 'वीजा' तक नहीं दिया, कहे बिहार वाला एनडीए नेतृत्व सफीशिएंट है वोट जुटाने के लिए. काहे ? काहे कि मुस्लिम वोट की चिंता थी. साल भर चेक वाले गमछा को तिकोना मोड़ के गर्दन पर लटकाए थे और जो जाली वाल नन्हकी टोपी माथ पर पहिने थे : फोकटे में ? इमेज बनता है उससे. सब नेता करता है अइसे. लेकिन नीतीश जबसे एनडीए के नाम पर भाजपा के जौरे गलबहियां कर रहे हैं तब से मुसलमानों में त उनके सेकुलर छवि को लेकर सवाल खड़ा तो हुआ ही है. बाकी नेता हैं, उपर से आडवाणीजी को प्रधानमंत्री बनाने के कैंपेन में शामिल भी हैं. उधर राहुल बाबा ने तारीफ़ करते हुए विकास की ओर अग्रसर क्या बता दिया, आडवाणीजी ऐंड कंपनी की बेचैनी बढ़ गयी. नवीन बाबू साथ छोडिए गए कहीं नीतीशजी छोड़ दिए तब त बुढौती का सपना सपने न रह जाएगा. न जाने कइसे-कइसे क्या हुआ. साहब का सेकुलरिज़्म देखिए, कल खुर्राट केसरियों के जौरे मंच पर विराजमान थे पंजाब में. जाने से पहले पटना में टीवी वालों को बताया कि अकाली दल ने बुलाया है, इसीलिए जा रहे हैं. गए ही नहीं, भाईजी अपील कर आए पंजाब में भइयों (बिहारी प्रवासी मज़दूरों) से कि उ उहां अका-भाजपा गठबंधन अर्थात् एनडीए के पक्ष में मतदान करें. ऐसा करते हुए विकासपुरुष एकदम लजइबो नहीं किए. चंद महीनों में कार्यकाल पूरा होने वाला है लेकिन जनाब के राज में मज़दूरों के पलायन पर रोक लगाने का कोई उल्लेखनीय प्रयास नहीं हुआ. देखिए, दिन भर के किए-कराए को रात को एके बार कैसे दोदने लगे. पटना लौटते ही पत्रकारों से बताया कि हाथ पकड़ कर मोदी उठाया त का मना कर देते. माने अब भी उनकरा को सेकुरले मानिए हे भारतीय जनमानस.
उधर दक्षिण में टीआरएस है. जितने चुनाव नहीं लड़े उससे ज़्यादा पार्टनर बदल लिए. एक-आध चुनाव तक लोग भेद कर पाएंगा उसके बाद फेर वही बात: जब तेलुगू देशम हइए है त आपकी क्या ज़रूरत. जेतना हेराफेरी तेलुगूदेशम वाले कर पा रहे हैं उतना त आपसे होइबो नहीं करेगा. अइसे में आपको वोट काहे दिया जाए. माने कुछ समय बाद आप ही महत्त्वहीन हो जाएंगे. हं, खां-म-खां तमाशा बनते रहते हैं. तेलंगाना चाहिए, अलग चाहिए. ठीक है. सिद्धांतत: बात से कौन सहमत नहीं होगा. पर कुछ दिन टिको त सही. थोड़ा संघर्ष तो करो. गद्दर तो दिल्ली में आकर धरना-प्रदर्शन भी करते रहे. आपने क्या कर लिया. पार्टी बना ली, झंडा बदल लिया, गमछा बदल लिया, दो चार नारे गढ लिए. यही न? अब भी समय है. जहां सटे हो, कम से कम कुछ समय उनके साथ ठहरो, अपनी बात उनको समझाओ. ख़ैर पार्टी के नेता चंद्रशेखर आडवाणी के आभामंडल से इतने चमत्कृत थे कि अपनी पार्टी के अलावा इधर-उधर से कुछ और समर्थन जुटाने का वायदा करने से ख़ुद को न रोक पाए.
वैसे त कुछ आउर नेताओं के भाव में उछाल आया है, पर उपर वर्णित तीनों पर इसका यकसां असर हुआ है, पर अलग-अलग. तीनों के अपने एजेंडे हैं और रास्ते भी अलग-अलग. देखते रहिएगा अगले एक-आध हफ़्ते में क्या गुल खिलाते हैं ये लोग.
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