22.10.09

हिन्‍दी चिट्ठाकारी : एक और नई चाल? भाग तीन

ब्लॉदगिंग की सतरंगी भाषा
ज़ाहिर है जहां इतने विविध पृष्ठoभूमियों वाले लोग ब्लॉ/गिंग कर रहे हैं वहां भाषाई विविधता तो होगी ही. मैं इस विविधता को हिंदी ब्लॉcगिंग की पूंजी मानता हूं. यही इसकी सबसे बड़ी ख़ासियत है. दरअसल, भाषाई प्रयोग और इस्ते माल के मामले में अंतर्जाल पर मौज़ूद यह स्पेहस घरों की उन दीवारों की तरह है जहां बच्चों को अपनी मर्ज़ी के मुताबिक चित्र उकेरने की आज़ादी होती है. दुहराने की ज़रूरत नहीं है कि किस हद तक यहां भाषाई प्रयोग हो रहे हैं; हां, ये ज़रूर उल्लेखनीय है कि फ़ॉर्म और एक हद तक कंटेन्टर को लेकर जो आज़ादी है यहां, उससे भाषा के स्तीर पर प्रयोग करने में काफ़ी सहुलियत मिलती है. इस पर्चे में मैंने पहले कुछ चिट्ठों के नाम गिनाए थे, उन पर एक बार विचरण कर लें तो पता चल जाएगा कि सामग्री कैसे भाषा तय कर रही है या फिर क्याे लिखने के लिए कैसी भाषा का इस्तेकमाल किया जा रहा है.
यह सच है कि अख़बारों के लिए रिपोर्टिंग या स्पेएशल एडिट लिखने अलावा ज़्यादातर ऑफ़लाइन लेखन (चाहे किसी भी तरह का हो) किस्तोंो में होता रहा है. जबकि ब्लॉ ग में ऐसा बहुत कम होता है. यहां तो कई बार बैठते हैं प्रतिक्रिया लिखने, बन जाता है लेख. ब्लॉेगिंग में अकसर एक ही बैठक में लोग हज़ार-डेढ़ हज़ार शब्दे ठेल देते हैं.
यह भी सच है कि कुछ बलॉगों, विशेषकर सामुदायिक ब्लॉशगों ने अपनी एक शैली विकसित कर ली है और भाषा को लेकर भी वे चौकन्नेर हैं. उनकी पोस्टोंक से गुज़रते हुए इस बात का अंदाज़ा लग जाता कि मॉडरेटर महोदय, क़ायदे से जिनका काम मॉडरेट करना भर होना चाहिए – चिट्ठों को अपनी स्टाैइल में फिट करने के लिए किसी तरह अच्छा -खासा समय लगा रहे हैं. यहां इस तथ्य की ओर भी इशारा करना चाहूंगा कि मीडिया, विशेषकर इलेक्टॉछनिक मीडिया वाली सनसनी और टीआरपी वाला गेम यहां भी ख़ूब प्लेभ किया जाता है. मूल पाठ से लेकर शीर्षक तक में यह ट्रेंड झलकता है.
अकसर हम देखते आए हैं कि बोलचाल में धड़ल्लेड से प्रयोग होने वाले शब्दोंा का लेखन में बहुत कम इस्तेहमाल होता है. पर अंतर्जाल पर स्थिति काफ़ी बदली-बदली सी दिखती है. और-तो-और यहां, क्षेत्रीय भाषाओं के शब्दों का भी धड़ल्लेर से प्रयोग हो रहा है. हिंदी के कुछ ब्लॉदग अपनी विशिष्टऔ क्षेत्रीय शैली की वजह से पॉप्यु‍लर भी हुए हैं. मिसाल के तौर पर ज़रा ‘ताउ रामपुरिया’ की भाषा पर ग़ौर कीजिए:
इब राज भाटिया जी और योगिन्द्र मोदगिल जी ने गांव के चोधरी को कहा कि इस बटेऊ से सवाल पूछने का मौका ताऊ को भी दिया जाना चाहिये ! आखिर गांव की इज्जत का सवाल है ! चोधरी ने उनका एतराज मंजूर कर लिया !
बटेऊ की तो कुछ समझ नही आया कि आखिर तमाशा क्या है ? बटेऊ को यही समझ मे नही आया कि वो कैसे हार गया और ये ५ वीं फ़ेल छोरा कैसे जीत गया ! ले बेटा..और उलझ ताऊओं से !
गाम आलों का चौधरी बोला- भाई बटेऊ, तन्नै तो आज सवाल पूछ लिया ! और म्हारै गाम के छोरे ताऊ नै बिल्कुल सही जवाब भी दे दिया ! इब उसको भी तेरे तैं सवाल बुझनै का मौका देणा पडैगा ! कल दोपहर म्ह इसी चौपाल म्ह म्हारा छोरा ( ताऊ ) तेरे तैं सवाल बुजैगा अंग्रेजी म्ह और तन्नै जवाब देना पडैगा!
दरअसल, ‘ताउ रामपुरिया’ की लेखन शैली ने हरियाणवी हिंदी को एक तरह से अंतर्जाल पर इस्टैपब्लिश कर दिया है. उनके चिट्ठों पर मिलने वाली टिप्पलणियां इस बात का प्रमाण हैं. इधर संजीव तिवारी जब अपने ब्लॉिग पर अपनी भाषा के प्रति छत्तीसगढियों से अपील करते हैं तो उन्हेंि भी ठीक-ठाक समर्थन मिलता है. ज़रा देखिए उनके इस चिट्ठांश को:
छत्तीइसगढ हा राज बनगे अउ हमर भाखा ला घलव मान मिलगे संगे संग हमर राज सरकार ह हमर भाखा के बढोतरी खातिर राज भाखा आयोग बना के बइठा दिस अउ हमर भाखा के उन्नेति बर नवां रद्दा खोल दिस । अब आघू हमर भाखा हा विकास करही, येखर खातिर हम सब मन ला जुर मिल के प्रयास करे ल परही । भाखा के विकास से हमर छत्तीरसगढी साहित्या, संस्कृ ति अउ लोककला के गियान ह बढही अउ सबे के मन म ‘अपन चेतना’ के जागरन होही । हमला ये बारे म गुने ला परही, काबर कि हम अपन भाखा के परयोग बर सुरू ले हीन भावना ला गठरी कस धरे हावन ।
कमोबेश यही स्थिति भोजपुरी और मैथिली के साथ भी है.
प्रयोग और इस्तेमाल की आज़ादी का ही नतीज़ा है कि इंटरनेट पर मस्तइराम मार्का भाषा भी फल-फूल रही है. मिसाल के तौर पर किसी पोस्टा पर डॉ. सुभाष भदौरिया द्वारा की गयी इस प्रतिक्रिया पर ग़ौर करें:
यार यशवंतजी एक जमाना हो गया, न हमने किसी को गाली दी, न किसी ने हमें दी, पर इस डिंडोरची ने वही मिसाल कर दी गांड में गू नहीं नौ सौ सुअर नौत दिये. यार हम तो आप सब में शामिल सुअर राज हैं.गू क्या गांड भी खा जायेंगे साले की, तब पता पता चलेगा. नेट पर बेनामी छिनरे कई हैं, अदब साहित्य से इन्हें कोई लेना देना नहीं हैं, सबसे बड़ा सवाल इनकी नस्ल का है, न इधर के न उधर के.

भाई हम सीधा कहते हैं, भड़ासी पहुँचे हुए संत है, शिगरेट शराब जुआ और तमाम फैले के बावजूद उन पर भरोसा किया जा सकता है. इन तिलकधारियों का भरोसा नहीं किया जा सकता.कुल्हड़ी में गुड़ फोड़ते हैं चुपके चुपके.इन का नाम लेकर इन्हें क्यों महान बना रहे हैं आप. देखो हम ने कैसे इस कमजर्फ को अमर कर दिया.

आम तौर पर हिंदी ब्लॉ गिंग में प्रतिक्रिया देते हुए या किसी मसले पर चर्चा करते वक़्त शब्दयकोश सिकुड़ने लगते हैं और भाषा हांफने लगती है. हिंदी ब्लॉकगजगत ऐसी मिसालों से भरी पड़ी है. पिछली जुलाई में शीर्षस्थ साहित्यपकार उदयप्रकाश से जुड़े एक प्रकरण को लेकर उठे बवंडर, इसी साल जनवरी में नया ज्ञानोदय की संपादकीय पर मचे अंतर्जालीय घमासान, या मार्च-अप्रैल में रविवार डॉट कॉम पर राजेंद्र यादव के एक साक्षात्कारर, या फिर हाल ही में रविवार डॉट कॉम पर प्रभाष जोशी और राजेंद्र यादव के साक्षात्काकर से उपजे विवाद पर ग़ौर करें तो भाषा के इस पक्ष से रू-ब-रू हुआ जा सकता है. मिसाल के तौर पर, उदयप्रकाश प्रकरण पर रंगनाथ सिंह ने हिंदी साहित्यं में विष्ठातवाद : अप्पाा रे मुंह है कि जांघिया के मार्फ़त कुछ इस तरह अपनी राय ज़ाहिर की:
एक कवि हैं। सुना है उनके दोस्त उनके बारे में एक ही सवाल बार-बार पूछते रहतें हैं कि वो नासपीटा तो जब भी मुंह खोलता है, मल, मूत्र या उनके निकास द्वारों के लोक-नामों से अपनी बात का श्री गणेश करता है।
उनके मित्र आपस में अक्सर यही पूछते हैं कि अप्पा रे, उसका मुंह है कि जंघिया…??
हिंदी साहित्य के दिग्गजों (इसमें उदय प्रकाश भी शामिल हैं) ने और उनके चेलों ने उदय प्रकाश प्रकरण में हुए विवाद में बार-बार उस कवि की और उनके मित्रों को जंघिया वाले यक्ष प्रश्न की याद दिलायी।
जिस किसी ने जिस किसी के भी पक्ष या विपक्ष में लिखा, उसके खिलाफ़ दूसरे पक्ष के तीरंदाज-गोलंदाज आलोचना या भर्त्सना लिखने के बजाय गाली-गलौज पर उतर आये। या उस कवि के मित्रों की भाषा में कहें, तो इन सब के नाड़े ढीले थे।
इन सभी स्वनामधन्य कवि-लेखकों-पत्रकारों को धन्यवाद देता हूं कि उन्होंने अपनी आस्तीन से अपना असल शब्दकोश निकाला और उसका खुल कर प्रयोग किया। निस्संदेह उन्होंने इंटरनेशनल लेवल का सुलभ भाषा-कौशल दिखाया है।
मेरा ये मानना है कि किसी भी माध्ययम मे भाषा के विकास के लिए ज़रूरी है भरपूर लेखन और संवाद. जितना अधिक लेखन होगा उतने ही अधिक प्रयोग होंगे और भाषा में निखार आएगा. विगत पांच-छह सालों की हिंदी ब्लॉ गिंग में निश्चित रूप से लेखन में उत्तरोत्तर इज़ाफ़ा हुआ है और ये इज़ाफ़ा क्वा-न्टिटी और क्वाालिटी दोनों ही स्तॉरों पर हुआ है. पर इतना नहीं कि उसके आधार पर किसी ठोस नतीजे पर पहुंचा जाए. संवाद भी हो रहे हैं, पर संवाद के स्तंर पर ज़्यादातर छींटाकसी या खींचातानी ही दिखती है. कुछ-कुछ प्रिंट जैसी. वैसे बेहतर होगा कि भाषाविज्ञानी इस बात की पड़ताल करें और रोशनी डालें कि हिंदी चिट्ठाकरी में बरती जाने वाली भाषा क्याक है. तब तक मैं यही कहूंगा कि काफ़ी कुछ नया है, पहले से अलग है, हट के है, सतरंगी है.
कुछ फुटकर विचार
अंत में अंतर्जाल पर हिंदी के वर्तमान और भविष्यह के बारे में अपनी कुछ राय साझा करना चाहूंगा. अब तक की चिट्ठाकारी को देखकर ये लगता है कि अंतर्जाल पर हिंदी बमबम कर रही है, हिंदी की तरक्की हो रही है. पर यहां मैं कुछ वैसे तथ्योंग की ओर इशारा करना चाहूंगा जो आम तौर पर सतह पर नहीं दिखते. ग़ौरतलब है कि अंतर्जाल पर हिंदी चाहे जितनी ज़्यादा बरती जा रही हो, पर उसके पीछे हैं कुछ गिने-चुने लोग ही. ज़रा और खुलकर कहा जाए तो ऐसे लोगों की तादाद ज़्यादा है जो एक साथ कई ब्लॉ ग चला रहे हैं, वेबसाइट चला रहे हैं, डॉट कॉम चला रहे हैं. आप अगर सक्रिय ब्लॉगगरों की प्रोफ़ाइल पर क्लिक करेंगे तो इस बात का साक्ष्य आपको मिल जाएगा. दूसरी बात ये कि ब्लॉलग, डॉटकॉम, इत्या दि पर चाहे जितना कुछ लिखा जा रहा हो, पाठकों की संख्याच सीमित ही है. सीमित का मतलब ये कि वैसे लोग, आम तौर पर जिन्हें अंतर्जाल से कुछ लेना-देना नहीं है, उन्हें अब तक पाठक नहीं बनाया जा सका है. मोटे तौर पर अंतर्जाल पर पाठक वे ही हैं जो लेखक भी हैं.
यह साफ़ है कि बीते 5-6 सालों में अंतर्जाल पर, ख़ास तौर से चिट्ठाकारी के मार्फ़त हिंदी के प्रयोग और रफ़्तार में तेज़ी आयी है. ग़ौर करने वाली बात ये है कि इसने साहित्य , संस्कृफति और पत्रकारिता के बहुत सारे अवयवों, मूल्य मान्यहताओं, परिपाटियों तथा मानकों से ख़ुद को आज़ाद कर लिया है जिन्हेंा आधुनिकता ने अपने लिए निर्धारित किए थे. सेंसरशिप, कॉपीराइट, नियंत्रण और निगरानी जैसी आधुनिक अवधारणाएं फिलहाल दरकिनार हैं. ब्लॉ.गर्स तो जैसे दायें-बाएं, आगे-पीछे देखे बिना सरपट दौड़े चले जा रहे हैं.

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सारांश यहाँ आगे पढ़ें के आगे यहाँ

हिन्‍दी चिट्ठाकारी : एक और नई चाल? भाग दो

ब्लॉग कैसे – कैसे
पिछले पांच-छह सालों में ब्लॉ़ग ने तमाम किस्‍म की अभिव्य क्तियों को प्रबल और मुखर बनाया है. व्यसक्तिगत तौर पर लोग ब्लॉागबाज़ी कर रहे हैं, अपने ब्लॉअग पर लिख रहे हैं; मित्रों के ब्लॉंग के लिए लिख रहे हैं, सामुदायिक ब्लॉ गों पर लिख रहे हैं. कई दफ़े ये लेखन असरदार भी साबित हो रहे हैं. इससे पहले कि ब्लॉलग के अन्यि पहलुओं पर बातचीत की जाए थोड़ी चर्चा ब्लॉेग के स्व रूप पर.
अंतर्जाल पर ज़्यादातर चिट्ठे साहित्यच-साधना में लीन नज़र आते हैं. उनमें भी भांति-भांति की कविताई करते ब्लॉ्गों की संख्या ख़ास तौर से ज़्यादा है. सामुदायिक ब्लॉंगों को छोड़ भी दिया जाए तो पिछले दो-ढ़ाई सालों से व्याक्तिगत ब्लॉ्गों पर भी सरोकार और चिंताएं दिख रही हैं. मिसाल के तौर पर गिरीन्द्र के ब्लॉग अनुभव पर 10 अप्रैल 2006 को प्रकाशित उनकी पहली पोस्टह के इस अंश पर ग़ौर करते हैं:
... दिल्ली से नज़दीकी रिस्ता रख्नने वाले प्रदेश इस बात को भली-भाती ज़ानते है. उतर प्रदेश, हरियाणा के ज़्यादातर ग्रामीण इलाके के लोग रोज़ी-रोटी के लिए दिल्ली से सम्बध बनाए रखे है.
हरियाणा का होड्ल ग्राम आश्रय के इसी फार्मुले पर विश्वास रखता है... कृषि बहुल भुमि वाले इस गाव मे एक अज़ीब किस्म का व्यवसाय प्रचलन मे है,ज़िसे हम छोटे -बडे शहरो के सिनेमा हालो या फैक्ट्री आदि ज़गहो पर देखते है.वह है-साइकल्-मोटरसाइकल स्टैड्.दिल्ली मे काम करने वाले लोग रोज़ यहा आपना वाहन रख कर दिल्ली ट्रैन से ज़ाते है. एवज़ मे मासिक किराया देते है.
ज़ब मै होड्ल के स्थानिय स्टेशन से पैदल गुजर रहा था तो मैने एक ८० साल की एक् औरत को एक विशाल परती ज़मीन पर साईकिलो के लम्बे कतारो के बीच बैठा पाया...उस इक पल तो मै उसकी उम्र और विरान जगह को देखकर चकित ही हो गया पर जब वस्तुस्थिती का पता चला तो होडल गाव के आश्रयवादी नज़रिया से वाकिफ हुआ.जब मैने उस औरत से बात करनी चाही तो वह तैयार हो गयी और अपने आचलिक भाषा मे बहुत कुछ बताने लगी.उसने कहा कि खेती से अच्छा कमाई इस धधा मे है ...
इस अध्य यन के सिलसिले में उपर्युक्त पोस्ट के बरअक्सा 2006 के अप्रैल-मई महीने में कुछ और तलाशने के लिए मैंने तक़रीबन 80-90 ब्लॉतगों का भ्रमण किया. ज़्यादातर पर कविताएं मिलीं. यहां यह बताना भी ज़रूरी है कि तब या अब ही, जितनी प्रतिक्रियाएं कविताओं को मिलती हैं उतनी मुद्दे आधारित पोस्टों को नहीं. मिसाल के तौर पर उपर्युक्त पोस्टउ पर आज तक एक प्रतिक्रिया भी नही आयी है. यानी इसे इस बात का संकेत माना जा सकता है कि मुद्दों पर लिखना कितना इकहरा काम होता है. मुझे ऐसा लगता है कि हिंदी चिट्ठाकारी से चारण-राग ख़त्म न होने की एक वजह ये भी है. वैसे भी कविताई या अन्यि विशुद्ध साहित्यिक विधाओं में चारण-राग चलता आया है.
जहां तक सामुदायिक ब्लॉयगों का प्रश्नव है तो उनका उदय ही किसी न किसी मुद्दे, विषय या प्रसंग विशेष के कारण होता है. मिसाल के तौर पर अविनाश के ब्लॉहग ‘मोहल्लाक’, जो कि बाद में सामुदायिक घोषित कर दिया गया – के इस पहले पोस्ट पर ग़ौर करते हैं:
साथियो, नेट पर बहुत सारे पन्ने हैं, फिर इस पन्ने की कोई जरूरत नहीं थी. लेकिन हसरतों का क्या किया जाए? हम सब मोहल्ले-कस्बे के लोग हैं. पढ-लिख कर जीने-खाने की जरूरत भर शहर में रहने आते हैं और रहते चले जाते हैं. शायद हम उम्र भर शहरों में रहना सीखते हैं. हर ऊंची इमारत को फटी आंखों से देखते हैं, और ये देखने की कोशिश करते हैं कि कब इसकी फर्श पर हमारे पांव जमेंगे. लेकिन जडों से उखडना क्या इतना आसान है? आइए, हम अपनी उन गलियों को याद करें, जहां हमारी शक्ल ढंग से उभर कर आयी थी... अविनाश
अब ‘भड़ास’ पर उसके मॉडरेटर यशवंत सिंह ने लोगों को अपने ब्लॉ ग से जोड़ने के लिए जो न्यौढता प्रकाशित किया था, ज़रा उस पर ग़ौर फ़रमाते हैं:
भई, जीना तो है ही, सो भड़ास जो भरी पड़ी है, उसे निकालना भी है। और, इसीलिए है यह ब्लाग भड़ास। जब दिल टूट जाए, दिमाग भन्ना जाए, आंखें शून्य में गड़ जाएं, हंसी खो जाए, सब व्यर्थ नज़र आए, दोस्त दगाबाज हो जाएं, बास शैतान समझ आए, शहर अजनबियों का मेला लगे .....तब तुम मेरे पास आना प्रिये, मेरा दर खुला है, खुला ही रहेगा, तुम्हारे लिए।
अशोक पांडे ने जब ‘कबाड़खाना’ आरंभ किया तो लोगों को अपना हमसफ़र बनाने के लिए उन्होंेने विरेन डंगवाल की इन पंक्तियों का सहारा लिया:
पेप्पोर रद्दी पेप्पोर
पहर अभी बीता ही है
पर चौंधा मार रही है धूप
खड़े खड़े कुम्हला रहे हैं सजीले अशोक के पेड़
उरूज पर आ पहुंचा है बैसाख
सुन पड़ती है सड़क से
किसी बच्चा कबाड़ी की संगीतमय पुकार
गोया एक फ़रियाद है अज़ान सी
एक फ़रियाद है एक फ़रियाद
कुछ थोड़ा और भरती मुझे
अवसाद और अकेलेपन से

सामुदायिक ब्लॉपग काफ़ी हद तक अपने मिशन में सफल भी रहे. अनेक सामाजिक सरोकार के मसलों पर वहां बहसें हुई. कुछ लोगों ने बहस में प्रत्येक्ष यानी लेखों या विचारों के ज़रिए शिरकत की और कुछ ने टिप्पवणी के मार्फ़त. आज इन सामुदायिक ब्लॉ गों में से कोई ख़बर छानने में व्य स्तक है तो कोई मीडिया की ख़बर ले रहा है, कुछ विचारधाराओं की रेहड़ी लगाए बैठे हैं तो कुछ पामिस्ट्री किए जा रहे हैं, कहीं बेटियों के बारे में आदान-प्रदान हो रहा है तो कहीं बेटों के बारे में. जिन सामुदायिक ब्लॉंगों का अभी हवाला दिया गया उनके अलावा दर्जनों अन्य सामुदायिक ब्लॉंग हैं. यह सच है कि सामुदायिक चिट्ठों से इस माध्याम को और ज़्यादा लोकप्रियता मिली. हालांकि, यह भी सच है कि साल 2009 के अपराह्न तक आते-आते सामुदायिक ब्लॉजगों की धार और रफ़्तार मंद पड़नी शुरू हो गयी है. कुछ चिट्ठे तो तक़रीबन बंद हो चुके हैं, बस औपचारिक घोषणा होना बाक़ी है. मॉडरेटरों की व्य क्तिगत प्राथमिकताओं में आया बदलाव इसकी सर्वप्रमुख वजह लगती है. कल तक जो सामुदायिक ब्लॉ़ग चला रहे थे आज डॉटकॉम चलाने लगे हैं, या यूं कहें कि कल तक जो सामुदायिक ब्लॉ ग थे आज डॉटकॉम में तब्दीगल हो रहे हैं.
बहरहाल, इतना तो तय है कि हिंदी में हर वैसे विषय, प्रश्न या मुद्दे पर ब्लॉुगिंग हो रही है जो इस वक़्त आपके कल्पानालोक में घुमड़ रहे हैं. ये ज़रूर है कि यहां साहित्यब का बोलबाला है. 12 हज़ार में से लगभग 10 हज़ार ब्लॉागों पर साहित्यघ साधना हो रही है, और उनमें भी कविताई करने वालों की तादाद ज़्यादा है. साहित्येकुंज, अनुभूति, बुनो कहानी, मातील्दाै, तोत्तोचान अंतर्मन, उनींदरा, अवनीश गौतम वग़ैरह हिंदी ब्लॉ गिंग में प्रमुख साहित्यॉ-साधना-स्थाली हैं. उदय प्रकाश, हिंदी ब्लॉगिंग में सक्रिय बड़े साहित्यावरों में से एक हैं. फिल्म और सिनेमा को समर्पित ब्लॉनगों में इंडियन बाइस्कोयप, आवारा हूं और चवन्नी चैप का स्थाोन अग्रणी है. गीतायन और रेडियोवाणी पर तमाम तरह के हिंदी गीतों का भंडारण हो रहा है. गाहे-बगाहे और टीवी प्ल स टेलीविज़न की दुनिया में हो रहे हलचलों पर निगाह टिकाए हुए है. ज्ञान-विज्ञान, रवि-रतलामी का हिंदी ब्लॉलग, प्रतिभास, मे आइ हेल्पे यू, क्रमश:, देवनागरी, इत्या-दि विज्ञान और तकनीकी से मुताल्लिक़ नए-नए अनुसंधानों की जानकारी प्रदान करने के साथ-साथ ब्लॉशगरों को तकनीकी परेशानियों से निजात भी दिलाता है. अनुनाद सिंह इतिहास पर महत्त्वपूर्ण ऐतिहासिक लेखों को संकलित कर रहे हैं. रिजेक्टन माल, अनुभव और हाशिया जनपक्षधर पत्रकारिता और वैचारिकी के विलक्षण उदाहरण हैं, कस्बाे, अनामदास का चिट्ठा, कानपुरनामा और फुरसतिया, उड़न-तश्तैरी, मसिजीवी संस्मेरणों और वैचारिकी के कुछ चुने हुए ठीहे हैं, खेती-बाड़ी अपने नाम को चरितार्थ करता इससे संबंधित जानकारियों का स्रोत है, दाल रोटी चावल पर लज़ीज़ व्यं जनों की जानकारी बनाने की विधि समेत एकत्रित की जा रही है, मस्त,राम मुसाफिर अंतर्जाल पर प्रिंट वाले ‘मस्त राम’ की नुमाइंदगी करता है, हालांकि, साल 2005 के बाद इस पर कुछ नया माल नहीं चढ़ाया गया है.
अंग्रेज़ी ब्लॉीगिंग के विपरीत हिंदी ब्लॉगिंग में आंदोलनों, अभियानों, संघर्षों, संगठनों या मुद्दों पर आधारित ब्लॉीगों की संख्या नगण्यै है. अंग्रेज़ी में इराक़ तथा अफ़गानिस्ता न में अमरीकी गुण्डांगर्दी, पाकिस्तायन की आंतरिक हालत, जाति और जेंडर भेद, बचपन, वृद्धावस्थाक जैसे मसलों, पर्यावरण या ग्लो,बल वार्मिंग पर चलने वाले अभियानों, तथा मानवाधिकार और पशुअधिकार आंदोलनों के बारे में समर्पित ब्लॉगगिंग हो रही है. हिंदी में फिलहाल ये ट्रेंड नहीं बन पाया है. हालांकि, ये ज़रूर है कि अब इस माध्यगम के प्रति आंदोलनों और संगठनों

में संजीदगी दिखने लगी है और कुछेक ब्लॉागों की शुरुआत हुई भी है. मिसाल के तौर पर सफ़र, जहां संगठन से जुड़े कार्यक्रमों और गतिविधियों पर यदा-कदा कुछ लिखा-पढ़ा जाता है या फिर सूचना का अधिकार, जहां नियमित रूप से इस मुद्दे और इससे संबधित अभियानों की ख़बरें शेयर की जाती हैं. इस कड़ी में स्त्री प्रश्नों पर फ़ोकस्डर हिन्दी के पहले सामुदायिक ब्लॉग चोखेरबाली का काम सराहनीय रहा है. हिंदी के प्रचार-प्रसार और इसकी तरक्क ती के लिए समर्पित हिंदयुग्म के अनूठे प्रयासों का यहां उल्लेहख किया जाना ज़रूरी है. हिंदयुग्म् पर तमाम विधाओं में साहित्यी रचना के अलावा कला, संस्कृ ति और आम जन-जीवन से जुड़े प्रश्नोंा पर भी संजीदगी से चर्चा होती है.
चिट्ठाकारी को सरल और लोकप्रिय बनाने में एग्रीगेटरों की भूमिका बेहद महत्त्वपूर्ण है. प्रकाशन के चंद मिनटों के अंदर चिट्ठों को व्याकपक चिट्ठाजगत तक पहुंचाने तथा चिट्ठा संबंधी आवश्य्क जानकारियां उपलब्धा कराने में एग्रीगेटरों का बड़ा योगदान है. साल 2005-06 में ही जीतू ने ‘अक्षरग्राम’ नामक हिंदी का पहला एग्रीगेटर आरंभ किया था. उसके बाद ‘नारद’ नामक एग्रीगेटर भी जीतू और उनके कुछ मित्रों के सामुहिक प्रयास से ही अस्तित्वा में आया. साल 2007 में ‘ब्लाटगवाणी’ और ‘चिट्ठाजगत’ नामक दो और एग्रीगेटर्स अस्तित्वप में आए और उन्हों ने हिंदी ब्लॉगिंग को काफ़ी सहूलियतें मुहैया कीं.
कितनी सक्रिय है ये चिट्ठाकारी: 18 सितंबर 2009 को दोपहर साढे चार बजे के आसपास चिट्ठाजगत के मुताबिक़ कुल 10 हज़ार 259 चिट्ठों में से कुल सक्रिय चिट्ठों की संख्याढ 40 थी. निश्चित रूप से ऐसी कोई भी सूचि स्था्ई नहीं होती, क्यों कि रियल समय में सूचि में बदलाव होते रहते हैं. कभी कोई दसवें नंबर पर होता है तो चंद मिनटों या घंटे बाद वही 38वें नंबर पर या पहले नंबर पर हो सकता है या फिर सूचि में दिखे ही नहीं. बहरहाल, मैं उन ब्लॉगगों को सक्रिय मानता हूं जिन पर हफ़्ते में दो नहीं तो कम से कम एक पोस्ट ज़रूर प्रकाशित होते हैं, यानी पोस्टिंग की निरंतरता बनी रहती है, और उस लिहाज़ा से देखा जाए तो हिंदी में सक्रिय ब्लॉ गों की संख्या 200 के आसपास है. उड़न तश्त री, गाहे-बगाहे, हिंदयुग्म , रचनाकार, अगड़म-बगड़म, फुरसतिया, रेडियोवाणी, कसबा, महाजाल, निर्मल-आनंद, मसिजीवी, मोहल्लाद, कबाड़खाना, चोखेरबाली, इत्यागदि अग्रिम पंक्ति के सक्रिय चिट्ठे हैं. लगे हाथ हिंदी चिट्टाकारी में सक्रिय लोगों की पृष्ठहभूमि पर भी एक नज़र डाल ली जाए. दरअसल, हिन्दी् ब्लॉिगिंग में आए इस रेवल्यूाशन के पीछे तीन अलग-अलग पृष्ठएभूमि के लोगों का योगदान है: पेशेवर टेकीज़ (तकनीकीविशारद) जो हिंदी के प्रति कमिटेड हैं और प्रकारांतर में जिनमें लेखन एक ज़बर्दस्तर हॉबी की तरह विकसित हुआ, पत्रकार (नियमित या अनियमित दोनों तरह के) जिन्हेंक अपने माध्यरमों में स्वतयं को अभिव्यिक्तह करने का मुनासिब मौक़ा नहीं मिल पाता है, या जो यहां लिखकर लोगों का फ़ीडबैक हासिल करते हैं तथा उससे अपने पेशे में पैनापन लाने की कोशिश करते हैं (ऐसे लोग सोशल नेटवर्किंग साइटों का भी फ़ायदा उठाते हैं) और वैसे लोग जिन्हेंक पत्रकारीय कर्म में दिलचस्पीस है; तथा अंतिम श्रेणी में वैसे साहित्यि-साधक शामिल हैं जिन्हेंव आम तौर पर छापे में मन माफिक मौक़ा नहीं मिल पाता है या फिर जो इस माध्य म की उपयोगिता देखते हुए यहां भी अपनी मौज़ूदगी बनाए रखना चाहते हैं या फिर वैसे लोग जिन्होंिने ये ठान लिया है कि वे ब्‍लॉग के ज़रिए ही साहित्य सृजन करेंगे.


सारांश यहाँ आगे पढ़ें के आगे यहाँ

हिन्‍दी चिट्ठाकारी : एक और नई चाल? भाग एक

हफ़्तावारी मित्रो,


गयी दिवाली की अंग्रेज़ी तर्ज पर (विलेटेड) और छठ की ताज़ी शुभकामनाएं! दोस्‍तों, शिमला स्थित भारतीय उच्‍च अध्‍ययन संस्‍थान द्वारा आयोजित हिंदी अध्‍ययन सप्‍ताह के दौरान आखिरी दिन यह पर्चा पेश किया गया था. फिर इसके सार्वजनिक इस्‍तेमाल के बारे में आयोजकों की और कुछ अपनी निजी समझ की वजह से साझा नहीं कर पाया था. पर लगा कि इस बड़े ब्‍लॉग समागम में दायरा-ए-चर्चा से ये महरूम रह जाए, दिनों तक कसक रह जाएगी. इसी बीच एक सिनीयर दोस्‍त ने कहा कि कुछ किस्‍तों में डाल दीजिए अपने बलॉग पर. लोगों को लगेगा तो चर्चा में शा‍मिल कर लिया जाएगा. बहरहाल, कोइ जबरदस्‍ती नहीं है लेकिन महाकुंभ नगरी में कोई समागम हो और अगर इसे बित्ता भर जगह मिल जाए तो क्‍या लूट जाएगा ! वैसे भी गांधी और नेहरू की प्रतीक स्‍थली और वो भी समागम, भइया, समय हो तो शामिल कर लीजिएगा. तीन-चार किस्तों में ठेल रहा हूं. जगेंगे आप तो आपको मिल जावेगी.


शुक्रिया



क्या है चिट्ठाकरी
21 अप्रैल 2003 हिंदी चिट्ठाकारी के लिए ऐतिहासिक दिन था. लगभग एक दर्जन से अधिक सक्रिय ब्लॉग्स और वेबसाइट्स इस बात की पुष्टि करते हैं और आलोक कुमार के 9-2-11 को हिंदी का सबसे पहला चिट्ठा का दर्जा देते हैं. 21 अप्रैल 2003 को अपने पहले ब्लॉ ग-पोस्ट में आलोक लिखते हैं:
चलिये अब ब्लॉग बना लिया है तो कुछ लिखा भी जाए इसमें। वैसे ब्लॉग की हिन्दी क्या होगी? पता नहीं। पर जब तक पता नहीं है तब तक ब्लॉग ही रखते हैं, पैदा होने के कुछ समय बाद ही नामकरण होता है न। पिछले ३ दिनों से इंस्क्रिप्ट में लिख रहा हूँ, अच्छी खासी हालत हो गई है उँगलियों की और उससे भी ज़्यादा दिमाग की। अपने बच्चों को तो पैदा होते ही इंस्क्रिप्ट पर लगा दूँगा, वैसे पता नहीं उस समय किस चीज़ का चलन होगा ...
आलोक के इस पोस्ट पर ग़ौर करें तो ब्लॉग के नामकरण और फॉण्ट को लेकर उनकी परेशानी साफ़ झलकती है. आज छह साल बाद न केवल आलोक की दोनों परेशानियों का हल ढूंढ लिया गया है बल्कि हिंदी ब्लॉलग अन्य भारतीय भाषाओं, और कहें तो अंग्रेज़ी को भी पछाड़ने की स्थिति में आ चुका है. भारत में इंटरनेट उपयोक्ता‍ओं पर ‘जक्ट्आलो कंसल्टभ’ नामक एक कंपनी द्वारा कराए गए एक सर्वेक्षण के अनुसार
कुल इंटरनेट इस्तेामालकर्ताओं में से 44 प्रतिशत ने हिंदी वेवसाइटों के प्रति उत्सााह जताया जबकि 25 प्रतिशत उपयोक्तान अन्यत भारतीय भाषाओं में इंटरनेट पर काम-काज़ के प्रति उत्सुाक दिखे. अंग्रेज़ी को विश्वरव्याापीजाल का पर्याय मान चुके लोगों के लिए सचमुच यह आंख खोलने वाला अध्यपयन है ...
वाकई आज क़रीब साढ़े छह साल बाद हिंदी में लगभग 12 हज़ार से ज़्यादा ब्लॉसग्सि, 1 हज़ार से ज़्यादा वेबसाइटें तथा 50 हज़ार से ज़्यादा वि‍किपृष्ठव हैं, और 12 लाख से ज़्यादा पन्नेा इंटरनेट पर लिखे जा चुके हैं. हो सकता है कि इन आंकड़ों में सौ, दो सौ का अंतर आ जाए पर ये हक़ीक़त है कि आज अंतर्जाल पर हिन्दीा फ़र्राटे से दौड़ रही है. ऐसे में ज़रूरी है कि इंटरनेट पर हिंदी के इस्ते़माल, उसके स्व रूप और अन्तफर्वस्तुे पर थोड़ा विचार किया जाए. निश्चित तौर पर चिट्ठा इसके लिए एक मुकम्मील ज़रिया है क्योंसकि यह इंटरनेट पर हिंदी बरतने का एक वृहद मंच बन चुका है.
यूं देखा जाए तो अब तक ब्लॉ ग की कोई औपचारिक परिभाषा गढ़ी नहीं गयी है. हालांकि हर ब्लॉजगर के पास ब्लॉदगिंग की कोई न कोई परिभाषा ज़रूर है. किसी के लिए यह एक ऐसी डायरी है जिसका पन्ना् कोई फ़ाड़ नहीं सकता और इस प्रकार इसमें एक ऑनलाइन अभिलेखागार बनने की पर्याप्त. संभावना दिखती है. कुछ के लिए यह पत्रकारिता का अद्भुद माध्य म है: एक ऐसा माध्य म जो अब तक उपलब्धभ तमाम माध्यलमों से ज़्यादा अवसरयुक्त् है, जहां अब तक की तमाम मानक लेखन शैलियों और भाषा से इतर मनचाहा ईज़ाद और इस्तेुमाल करने की बेइंतहां आज़ादी है: लेखक, रिपोर्टर और संपादक सब ब्लॉागर ख़ुद होता है. कुछ लोगों के हिसाब से यह स्वां त: सुखाय लिखा जाता है, और ऐसा लिखकर लोग अपने मन की भड़ास निकालते हैं. ‘भड़ास’ का तो टैगलाइन ही है:
अगर कोई बात गले में अटक गई हो तो उगल दीजिये, मन हल्का हो जाएगा...
हालांकि अपनी समृद्ध मौखिक परंपरा के बरअक्से ब्लॉलग के बारे में जो छिटपुट लिखा गया है उनमें सुश्री नीलिमा चौहान का शोधपत्र ‘अंतर्जाल पर हिंदी की नई चाल: चन्दट सिरफिरों के खतूत’ प्रमुख है. ब्लॉंग को परिभाषित करते हुए नीलिमा लिखती हैं :
... चिट्ठे या ब्लॉमग, इंटरनेट पर चिट्ठाकार का वह स्पेबस है जिसमें वह अपनी सुविधा व रुचि के अनुसार सामग्री को प्रकाशित कर सार्वजनिक करता है. इस चिट्ठे का तथा इसकी हर प्रविष्टि का जिसे पोस्टं कहते हैं एक स्वपतंत्र वेब – पता होता है. सामान्य्त: पाठकों को इन पोस्टों पर टिप्पुणी करने की सुविधा होती है! यदि चिट्ठाकार स्वतयं इस पते को मिटा न दे तो यह सामग्री इस वेबपते पर सदा – सर्वदा के लिए अंकित हो जाती है. अंतर्जाल के सूचना प्रधान हैवी ट्रैफिक – जोन से परे व्यजक्तिगत स्पेहस में व्य क्तिगत विचारों और भावों की निर्द्वंद्व सार्वजनिक अभिव्यसक्ति को ब्लॉटगिंग कहा जा सकता है.
तमाम मौखिक और लिखित परिभाषाओं के मद्देनज़र मेरा ये मानना है कि ब्लॉजग स्वांयत: सुखाय कदापि नहीं हो सकता. ब्लॉपग पर प्रकाशित हो जाने के बाद उस लिखे हुए के साथ लेखक और प्रकाशक के अलावा पाठक भी जुड़ जाता है. यह पाठक पर निर्भर करता है कि वह उस लिखे पर सहमति-असहमति, ख़ुशी-नाख़ुशी, तारीफ़ या खिंचाई में से, जो चाहे करे. मेरा यह मानना है कि किसी भी प्रकार की अभिव्यखक्ति के सार्वजनिक हो जाने के बाद उसका एक असर होता है. हर ब्लॉागलिखी किसी न किसी सामाजिक पहलू, प्रक्रिया, प्रवृत्ति, परिस्थिति या परिघटना पर उंगली रख रही होती है, कुछ उकेर रही होती है, कहीं उकसा रही होती है, या फिर कुछ उलझा या सुलझा रही होती है. मिसाल के तौर पर 12 सितंबर 09 को कसबा पर रवीश कुमार की इस अभिव्यिक्ति पर ग़ौर कीजिए:
आज हिंदी डे है। कई सरकारी दफ्तरों में बाहर भगवती जागरण की बजाय पखवाड़ा वाला बैनर लगा है। पखवाड़ा। फोर्टनाइट का फखवाड़ा। इस फटीचर कांसेप्ट की आलोचना बड़े बड़े ज्ञानीध्यानी बिना बताये कह गए हैं कि पेटीकोट कैसे पुलिंग है और मूंछ कैसे स्त्रीलिंग है। हर भाषा इस तरह की दुविधाओं के साथ बनी होती है। अब हिंदी के साथ डेटिंग किया जाना चाहिए। डेट विद हिंदी।नवरतन तेल,विको वज्रदंती,डॉलर अंडरवियर और बाक्सर बाइक का उपभोग करने वाला हिंदी का बाज़ार। एक अखबार ने विज्ञापन दिया कि इस दीवाली पर हमारे पाठक पांच लाख वाशिंग मशीन खरीदेंगे। आप विज्ञापन देंगे न। हद है। यही ताकत है हिंदी की। और भाषा की ताकत क्यों हो। भाषा को कातर ही होना चाहिए। रघुवीर सहाय ने क्यों लिखा कि ये दुहाजू(स्पेलिंग सही हो तो) की बीबी है। मुझे तो ये दुहाई हुई गाय लगती है। जिसका अब दिवस नहीं मनना चाहिए। जिसके साथ अब डेटिंग करना चाहिए। चैट करनी चाहिए। चैट स्त्रीलिंग है या पुलिंग। किसने बताया कि क्या है।
रवीश की इस अभिव्यटक्ति को आप ये कहेंगे कि उन्होंलने उपर्युक्तग बातें यूं ही ख़ुद को ख़ुश करने के लिए लिखा है? मुझे तो इसमें साल में एक दिन हिंदी को धो-पोछ कर सजाने की दृष्टि से फ्रेम में जड़ कर दीवार पर टांगने जैसी औपचारिकता का प्रतिरोध झलकता है. ज़रा रवीश की पोस्टक पर सतीश पंचम की टिप्पेणी पर ग़ौर करते हैं:
वैसे ये बात तो सच है कि हाशिये, चिंतन, संगोष्ठी जैसे शब्द सुनते ही जहन में बूढे पोपले चेहरे, श्वेत बालों वाले लोगों की तस्वीर उभरती है।
एक गीत सुना था जिसमें 'दिल' शब्द की जगह 'हृदय' शब्द का इस्तेमाल हुआ था - वह गाना था... कोई जब तुम्हारा 'हृदय' तोड दे....।खोज बीन करने पर एक औऱ गीत का पता चला - अनामिका फिल्म का जिसमें पूरा तो याद नहीं पर कहीं अंतरे में शब्द है कि ...तुझे 'हृदय' से लगाया...जले मन तेरा भी...तू भी तडपे.....
इन दो गीतों के बाद मैंने थोडा सोचना शुरू किया कि आखिर क्यों फिल्म लाईन में 'दिल' शब्द को 'हृदय' शब्द के मुकाबले तरजीह दी जाती है।
जो जबान पर चढे है....वही भाषा बढे है...कम से कम फिल्म लाईन में तो यही चलन है। ...
उपर्युक्तर दोनों उद्धरणों से ये स्प.ष्टे हो जाता है कि ब्लॉलग महज़ दिल को ख़ुश रखने के लिए तो नहीं लिखा जाता है, और यह भी कि कि पोस्ट के साथ-साथ टिप्पजणी/प्रतिक्रिया भी ब्लॉलगिंग का एक अहम पहलु है. यह ब्‍लॉ‍गिंग को इंटरैक्टिव बनाती है और ये इसकी बहुत बड़ी ताक़त है. अख़बारों की तरह नहीं कि संपादकीय पृष्टह पर कोई लेख छप गया और फिर ख़ुद उसका कतरन लिए यार-दोस्तों् के सामने लहराते फिर रहे हैं (माफ़ कीजिएगा, मेरे साथ ऐसा लंबे समय से होता आ रहा है), किसी ने अपनी राय दे दी तो ठीक वर्ना ... आप समझ ही सकते हैं कि लेखक की क्याब हालत होती है! और अगर किसी संवेदनशील पाठक की राय छपी भी तो कौन-से संपादक महोदय फ़ोन करके बताते हैं कि ‘बंधुवर, आपके लेख पर किसी पाठक ने सज्जेनपुर से चिट्ठी भेजी है, देख लीजिएगा’. इधर ब्लॉ‘गिंग में माल प्रकाशित हुआ नहीं कि टिप्पणी हाजिर. मन माफिक प्रतिक्रिया मिल गयी तो बल्लेद-बल्ले वर्ना बहस खड़ा करने वाली मुद्रा में आने से कौन रोक लेगा. यानी यहां एक तो टिप्प णी झट से मिल जाती है, और ऐसी मिलती है कि पट आने पर भी जी खट्टा नहीं होता.
रिश्ते गढ़े पहचान दिलाए
मुझे ब्लॉ़ग के बारे में एक बात और लगती है, वो ये कि किसी मसले को एक व्या्पक ऑडिएंस तक ले जाने और एक नये दायरे से रू-ब-रू होने व रिश्ताक बनाने का यह एक ज़बर्दस्तप ज़रिया है. यहां अकसर ऐसा होता है कि कोई शख़्ेस आपसे कभी साक्षात न मिला हो पर आभासी दुनिया में आपकी उपस्थिति से वो वाकिफ़ हो, और अपने मन में उसने आपकी कोई छवि तैयार कर ली हो. यानी आप व्यादपक ऑडिएंस तक तो जाते ही हैं पर उससे भी आगे बढ़कर लोग आपसे जुड़ते हैं और आपकी एक पहचान गढ़ते है. यानी यहां ब्लॉ गबाज़ों को एक पहचान मिलती है जो नितांत उनकी आभासी उपस्थिति के आधार पर निर्मित होती है. मिसाल के तौर पर, आपसी बातचीत में साथी ब्लॉ गर विनीत कुमार अकसर बताते हैं कि जब तक वे मीडिया की नौकरी करते थे तो सहकर्मी भी भाव नहीं देते थे. और अब उनके पोस्ट पढ़-पढ़ कर मीडिया से बाबाओं के फ़ोन उनके पास आते हैं और घर आने का न्यौ़ता भी.
कहां तक पहुंचा ब्लॉघग
अप्रैल 2004 में जब आलोक ने 9-2-11 की शुरुआत की थी, तब महत्त्वपूर्ण सवाल ये था कि पाठक कौन होगा. हालांकि आलोक और उनके टेकमित्रों ने मिलकर उस समस्याि को एक हद तक सुलझा लिया. कुछ ग़ैर-तकनीकी पृष्ठ2भूमि के लोगों को भी ऑनलाइन और फ़ोन प्रशिक्षण के मार्फ़त इस बात के लिए राज़ी किया कि वे भी ब्लॉिगिंग में आएं. लोग आए भी. अगर साल 2004-2005 में आरंभ हुए ब्लॉ गों पर विचरण करें तो आपको दो बातों का अहसास होगा: पहला ज़्यादातर आरंभिक ब्लॉीगर टेकविशारद थे और दूसरा सब एक-दूसरे से जुड़े थे. यानी उन ब्लॉयगरों का एक समुदाय था. वे आपस में पढ़ते-पढ़ाते थे और विशेषकर तकनीकी पक्ष को लेकर अनुसंधान किया करते थे. नुक्तामचीनी , देवनागरी , रचनाकार , ई स्वाीमी , फुरसतिया तथा प्रतिभास जैसे चिट्ठे और आलोक कुमार, देवाशीष चक्रवर्ती, रवि रतलामी, अनुनाद सिंह, जीतू , जैसे चिट्ठाकारों ने ब्लॉेग को लोकप्रिय बनाने में ऐतिहासिक भूमिका अदा की. मज़ेदार बात ये है कि इनमें से कोई भी खांटी हिंदीवाला नहीं है या यों कहें कि वे हिंदी कर-धर कर नहीं कमाते-खाते हैं. हां, वे हिन्दीो-प्रेमी और हिंदी के प्रति समर्पित हैं, और प्रकारांतर में उनमें से ज़्यादातर ने शुरू-शुरू में शौकिया लिखना शुरू किया और आज कुछेक को छोड़कर सारे धांसू लिखाड़ बन चुके हैं.
2007 के शुरुआती महीनों में हिंदी चिट्ठों की संख्या तक़रीबन 700 थी और नीलिमा के मुताबिक़ उसमें तेज़ी से वृद्धि हो रही थी . पाठकों की संख्या में भी थोड़ा-‍बहुत इज़ाफ़ा होने लगा था और लोग टेक्नॉसल्जीश में दिलचस्पीो भी लेने लगे थे. 2007 तक आते-आते कुछ मुद्दे आधारित ब्लॉलग भी अस्तित्वट में आने लगे थे. कविताओं, कहानियों, संस्म0रणों से आगे बढ़ कर ताज़ा ज्वललंत मुद्दों पर चर्चाएं होने लगी थीं. उसी साल शुरू हुए मोहल्लाी , कबाड़खाना और भड़ास जैसे सामुदायिक ब्लॉलगों की मौज़ूदगी से बहस-मुबाहिसों को सह मिलने लगा था. तभी दिसंबर 2007 की 13 तारीख को अगले साल, 2008 की ब्लॉगकारिता कैसी हो – के बारे में वरिष्ठ पत्रकार और संवेदनशील ब्लॉीगर श्री दिलीप मंडल ने अपनी राय कुछ इस तरह ज़ाहिर की:
एक रोमांचक-एक्शनपैक्ड साल का इंतजार है। हिंदी ब्लॉग नाम का शिशु अगले साल तक घुटनों के बल चलने लगेगा। अगले साल जब हम बीते साल में ब्लॉगकारिता का लेखा जोखा लेने बैठें, तो तस्वीर कुछ ऐसी हो। आप इसमें अपनी ओर से जोड़ने-घटाने के लिए स्वतंत्र हैं.
और फिर उन्होंेने निम्नकलिखित बिंदुओं को रेखांकित किया:
हिन्दी ब्लॉग्स की संख्या कम से कम 10,000 हो ...
हिंदी ब्लॉबग के पाठकों की संख्या लाखों में हो ...
विषय और मुद्दा आधारित ब्लॉगकारिता पैर जमाए ...
ब्लॉगर्स के बीच खूब असहमति हो और खूब झगड़ा हो ...
टिप्पणी के नाम पर चारण राग बंद हो ...
ब्ल़ॉग के लोकतंत्र में माफिया राज की आशंका का अंत हो ...
ब्लॉगर्स मीट का सिलसिला बंद हो ...
नेट सर्फिंग सस्ती हो और 10,000 रु में मिले लैपटॉप और एलसीडी मॉनिटर की कीमत हो 3000 रु ...
हैपी ब्लॉगिंग!
जिस ऑर्डर में दिलीपजी ने शुभकामनाएं व्यऔक्ति की थी, थोड़े-बहुत उलट-फेर के साथ भी यदि उनकी पूर्ति हो जाती तो हिंदी ब्लॉ,गिंग की सेहत में सुधार आता. बेशक 12 हज़ार से ज़्यादा ब्लॉोग बन गए हों, मुद्दा आधालरित ब्लॉऑगों के पैर जमने लगे हों, असहमतियों और झगड़ों से गली-नुक्कखड़ भी झेंपने लगे हों किंतु मठाधीशी, चारण-वंदन, मिलन समारोहों और वार्षिकियों जैसे छापे की दुनिया के रोगों से चिट्ठाकारी पूरी तरह आज़ाद नहीं हो पायी है. इंटरनेट के व्या्पकीकरण तथा कंप्युनटर की उपलब्ध ता में अवरोध से तो हम वाकिफ़ हैं ही.


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