22.10.09

हिन्‍दी चिट्ठाकारी : एक और नई चाल? भाग तीन

ब्लॉदगिंग की सतरंगी भाषा
ज़ाहिर है जहां इतने विविध पृष्ठoभूमियों वाले लोग ब्लॉ/गिंग कर रहे हैं वहां भाषाई विविधता तो होगी ही. मैं इस विविधता को हिंदी ब्लॉcगिंग की पूंजी मानता हूं. यही इसकी सबसे बड़ी ख़ासियत है. दरअसल, भाषाई प्रयोग और इस्ते माल के मामले में अंतर्जाल पर मौज़ूद यह स्पेहस घरों की उन दीवारों की तरह है जहां बच्चों को अपनी मर्ज़ी के मुताबिक चित्र उकेरने की आज़ादी होती है. दुहराने की ज़रूरत नहीं है कि किस हद तक यहां भाषाई प्रयोग हो रहे हैं; हां, ये ज़रूर उल्लेखनीय है कि फ़ॉर्म और एक हद तक कंटेन्टर को लेकर जो आज़ादी है यहां, उससे भाषा के स्तीर पर प्रयोग करने में काफ़ी सहुलियत मिलती है. इस पर्चे में मैंने पहले कुछ चिट्ठों के नाम गिनाए थे, उन पर एक बार विचरण कर लें तो पता चल जाएगा कि सामग्री कैसे भाषा तय कर रही है या फिर क्याे लिखने के लिए कैसी भाषा का इस्तेकमाल किया जा रहा है.
यह सच है कि अख़बारों के लिए रिपोर्टिंग या स्पेएशल एडिट लिखने अलावा ज़्यादातर ऑफ़लाइन लेखन (चाहे किसी भी तरह का हो) किस्तोंो में होता रहा है. जबकि ब्लॉ ग में ऐसा बहुत कम होता है. यहां तो कई बार बैठते हैं प्रतिक्रिया लिखने, बन जाता है लेख. ब्लॉेगिंग में अकसर एक ही बैठक में लोग हज़ार-डेढ़ हज़ार शब्दे ठेल देते हैं.
यह भी सच है कि कुछ बलॉगों, विशेषकर सामुदायिक ब्लॉशगों ने अपनी एक शैली विकसित कर ली है और भाषा को लेकर भी वे चौकन्नेर हैं. उनकी पोस्टोंक से गुज़रते हुए इस बात का अंदाज़ा लग जाता कि मॉडरेटर महोदय, क़ायदे से जिनका काम मॉडरेट करना भर होना चाहिए – चिट्ठों को अपनी स्टाैइल में फिट करने के लिए किसी तरह अच्छा -खासा समय लगा रहे हैं. यहां इस तथ्य की ओर भी इशारा करना चाहूंगा कि मीडिया, विशेषकर इलेक्टॉछनिक मीडिया वाली सनसनी और टीआरपी वाला गेम यहां भी ख़ूब प्लेभ किया जाता है. मूल पाठ से लेकर शीर्षक तक में यह ट्रेंड झलकता है.
अकसर हम देखते आए हैं कि बोलचाल में धड़ल्लेड से प्रयोग होने वाले शब्दोंा का लेखन में बहुत कम इस्तेहमाल होता है. पर अंतर्जाल पर स्थिति काफ़ी बदली-बदली सी दिखती है. और-तो-और यहां, क्षेत्रीय भाषाओं के शब्दों का भी धड़ल्लेर से प्रयोग हो रहा है. हिंदी के कुछ ब्लॉदग अपनी विशिष्टऔ क्षेत्रीय शैली की वजह से पॉप्यु‍लर भी हुए हैं. मिसाल के तौर पर ज़रा ‘ताउ रामपुरिया’ की भाषा पर ग़ौर कीजिए:
इब राज भाटिया जी और योगिन्द्र मोदगिल जी ने गांव के चोधरी को कहा कि इस बटेऊ से सवाल पूछने का मौका ताऊ को भी दिया जाना चाहिये ! आखिर गांव की इज्जत का सवाल है ! चोधरी ने उनका एतराज मंजूर कर लिया !
बटेऊ की तो कुछ समझ नही आया कि आखिर तमाशा क्या है ? बटेऊ को यही समझ मे नही आया कि वो कैसे हार गया और ये ५ वीं फ़ेल छोरा कैसे जीत गया ! ले बेटा..और उलझ ताऊओं से !
गाम आलों का चौधरी बोला- भाई बटेऊ, तन्नै तो आज सवाल पूछ लिया ! और म्हारै गाम के छोरे ताऊ नै बिल्कुल सही जवाब भी दे दिया ! इब उसको भी तेरे तैं सवाल बुझनै का मौका देणा पडैगा ! कल दोपहर म्ह इसी चौपाल म्ह म्हारा छोरा ( ताऊ ) तेरे तैं सवाल बुजैगा अंग्रेजी म्ह और तन्नै जवाब देना पडैगा!
दरअसल, ‘ताउ रामपुरिया’ की लेखन शैली ने हरियाणवी हिंदी को एक तरह से अंतर्जाल पर इस्टैपब्लिश कर दिया है. उनके चिट्ठों पर मिलने वाली टिप्पलणियां इस बात का प्रमाण हैं. इधर संजीव तिवारी जब अपने ब्लॉिग पर अपनी भाषा के प्रति छत्तीसगढियों से अपील करते हैं तो उन्हेंि भी ठीक-ठाक समर्थन मिलता है. ज़रा देखिए उनके इस चिट्ठांश को:
छत्तीइसगढ हा राज बनगे अउ हमर भाखा ला घलव मान मिलगे संगे संग हमर राज सरकार ह हमर भाखा के बढोतरी खातिर राज भाखा आयोग बना के बइठा दिस अउ हमर भाखा के उन्नेति बर नवां रद्दा खोल दिस । अब आघू हमर भाखा हा विकास करही, येखर खातिर हम सब मन ला जुर मिल के प्रयास करे ल परही । भाखा के विकास से हमर छत्तीरसगढी साहित्या, संस्कृ ति अउ लोककला के गियान ह बढही अउ सबे के मन म ‘अपन चेतना’ के जागरन होही । हमला ये बारे म गुने ला परही, काबर कि हम अपन भाखा के परयोग बर सुरू ले हीन भावना ला गठरी कस धरे हावन ।
कमोबेश यही स्थिति भोजपुरी और मैथिली के साथ भी है.
प्रयोग और इस्तेमाल की आज़ादी का ही नतीज़ा है कि इंटरनेट पर मस्तइराम मार्का भाषा भी फल-फूल रही है. मिसाल के तौर पर किसी पोस्टा पर डॉ. सुभाष भदौरिया द्वारा की गयी इस प्रतिक्रिया पर ग़ौर करें:
यार यशवंतजी एक जमाना हो गया, न हमने किसी को गाली दी, न किसी ने हमें दी, पर इस डिंडोरची ने वही मिसाल कर दी गांड में गू नहीं नौ सौ सुअर नौत दिये. यार हम तो आप सब में शामिल सुअर राज हैं.गू क्या गांड भी खा जायेंगे साले की, तब पता पता चलेगा. नेट पर बेनामी छिनरे कई हैं, अदब साहित्य से इन्हें कोई लेना देना नहीं हैं, सबसे बड़ा सवाल इनकी नस्ल का है, न इधर के न उधर के.

भाई हम सीधा कहते हैं, भड़ासी पहुँचे हुए संत है, शिगरेट शराब जुआ और तमाम फैले के बावजूद उन पर भरोसा किया जा सकता है. इन तिलकधारियों का भरोसा नहीं किया जा सकता.कुल्हड़ी में गुड़ फोड़ते हैं चुपके चुपके.इन का नाम लेकर इन्हें क्यों महान बना रहे हैं आप. देखो हम ने कैसे इस कमजर्फ को अमर कर दिया.

आम तौर पर हिंदी ब्लॉ गिंग में प्रतिक्रिया देते हुए या किसी मसले पर चर्चा करते वक़्त शब्दयकोश सिकुड़ने लगते हैं और भाषा हांफने लगती है. हिंदी ब्लॉकगजगत ऐसी मिसालों से भरी पड़ी है. पिछली जुलाई में शीर्षस्थ साहित्यपकार उदयप्रकाश से जुड़े एक प्रकरण को लेकर उठे बवंडर, इसी साल जनवरी में नया ज्ञानोदय की संपादकीय पर मचे अंतर्जालीय घमासान, या मार्च-अप्रैल में रविवार डॉट कॉम पर राजेंद्र यादव के एक साक्षात्कारर, या फिर हाल ही में रविवार डॉट कॉम पर प्रभाष जोशी और राजेंद्र यादव के साक्षात्काकर से उपजे विवाद पर ग़ौर करें तो भाषा के इस पक्ष से रू-ब-रू हुआ जा सकता है. मिसाल के तौर पर, उदयप्रकाश प्रकरण पर रंगनाथ सिंह ने हिंदी साहित्यं में विष्ठातवाद : अप्पाा रे मुंह है कि जांघिया के मार्फ़त कुछ इस तरह अपनी राय ज़ाहिर की:
एक कवि हैं। सुना है उनके दोस्त उनके बारे में एक ही सवाल बार-बार पूछते रहतें हैं कि वो नासपीटा तो जब भी मुंह खोलता है, मल, मूत्र या उनके निकास द्वारों के लोक-नामों से अपनी बात का श्री गणेश करता है।
उनके मित्र आपस में अक्सर यही पूछते हैं कि अप्पा रे, उसका मुंह है कि जंघिया…??
हिंदी साहित्य के दिग्गजों (इसमें उदय प्रकाश भी शामिल हैं) ने और उनके चेलों ने उदय प्रकाश प्रकरण में हुए विवाद में बार-बार उस कवि की और उनके मित्रों को जंघिया वाले यक्ष प्रश्न की याद दिलायी।
जिस किसी ने जिस किसी के भी पक्ष या विपक्ष में लिखा, उसके खिलाफ़ दूसरे पक्ष के तीरंदाज-गोलंदाज आलोचना या भर्त्सना लिखने के बजाय गाली-गलौज पर उतर आये। या उस कवि के मित्रों की भाषा में कहें, तो इन सब के नाड़े ढीले थे।
इन सभी स्वनामधन्य कवि-लेखकों-पत्रकारों को धन्यवाद देता हूं कि उन्होंने अपनी आस्तीन से अपना असल शब्दकोश निकाला और उसका खुल कर प्रयोग किया। निस्संदेह उन्होंने इंटरनेशनल लेवल का सुलभ भाषा-कौशल दिखाया है।
मेरा ये मानना है कि किसी भी माध्ययम मे भाषा के विकास के लिए ज़रूरी है भरपूर लेखन और संवाद. जितना अधिक लेखन होगा उतने ही अधिक प्रयोग होंगे और भाषा में निखार आएगा. विगत पांच-छह सालों की हिंदी ब्लॉ गिंग में निश्चित रूप से लेखन में उत्तरोत्तर इज़ाफ़ा हुआ है और ये इज़ाफ़ा क्वा-न्टिटी और क्वाालिटी दोनों ही स्तॉरों पर हुआ है. पर इतना नहीं कि उसके आधार पर किसी ठोस नतीजे पर पहुंचा जाए. संवाद भी हो रहे हैं, पर संवाद के स्तंर पर ज़्यादातर छींटाकसी या खींचातानी ही दिखती है. कुछ-कुछ प्रिंट जैसी. वैसे बेहतर होगा कि भाषाविज्ञानी इस बात की पड़ताल करें और रोशनी डालें कि हिंदी चिट्ठाकरी में बरती जाने वाली भाषा क्याक है. तब तक मैं यही कहूंगा कि काफ़ी कुछ नया है, पहले से अलग है, हट के है, सतरंगी है.
कुछ फुटकर विचार
अंत में अंतर्जाल पर हिंदी के वर्तमान और भविष्यह के बारे में अपनी कुछ राय साझा करना चाहूंगा. अब तक की चिट्ठाकारी को देखकर ये लगता है कि अंतर्जाल पर हिंदी बमबम कर रही है, हिंदी की तरक्की हो रही है. पर यहां मैं कुछ वैसे तथ्योंग की ओर इशारा करना चाहूंगा जो आम तौर पर सतह पर नहीं दिखते. ग़ौरतलब है कि अंतर्जाल पर हिंदी चाहे जितनी ज़्यादा बरती जा रही हो, पर उसके पीछे हैं कुछ गिने-चुने लोग ही. ज़रा और खुलकर कहा जाए तो ऐसे लोगों की तादाद ज़्यादा है जो एक साथ कई ब्लॉ ग चला रहे हैं, वेबसाइट चला रहे हैं, डॉट कॉम चला रहे हैं. आप अगर सक्रिय ब्लॉगगरों की प्रोफ़ाइल पर क्लिक करेंगे तो इस बात का साक्ष्य आपको मिल जाएगा. दूसरी बात ये कि ब्लॉलग, डॉटकॉम, इत्या दि पर चाहे जितना कुछ लिखा जा रहा हो, पाठकों की संख्याच सीमित ही है. सीमित का मतलब ये कि वैसे लोग, आम तौर पर जिन्हें अंतर्जाल से कुछ लेना-देना नहीं है, उन्हें अब तक पाठक नहीं बनाया जा सका है. मोटे तौर पर अंतर्जाल पर पाठक वे ही हैं जो लेखक भी हैं.
यह साफ़ है कि बीते 5-6 सालों में अंतर्जाल पर, ख़ास तौर से चिट्ठाकारी के मार्फ़त हिंदी के प्रयोग और रफ़्तार में तेज़ी आयी है. ग़ौर करने वाली बात ये है कि इसने साहित्य , संस्कृफति और पत्रकारिता के बहुत सारे अवयवों, मूल्य मान्यहताओं, परिपाटियों तथा मानकों से ख़ुद को आज़ाद कर लिया है जिन्हेंा आधुनिकता ने अपने लिए निर्धारित किए थे. सेंसरशिप, कॉपीराइट, नियंत्रण और निगरानी जैसी आधुनिक अवधारणाएं फिलहाल दरकिनार हैं. ब्लॉ.गर्स तो जैसे दायें-बाएं, आगे-पीछे देखे बिना सरपट दौड़े चले जा रहे हैं.

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सारांश यहाँ आगे पढ़ें के आगे यहाँ

5 comments:

  1. राकेशजी, आपका यह लेख पढ़ने का भरपूर प्रयत्न किया परंतु इतनी टायपिंग की गलतियां हैं कि मन खिन्न हो गया भले ही आपने बहुत अच्छॆ विषय पर लिखा हो परंतु पाठक को बांधने के लिये स्वच्छ भाषा बहुत जरुरी है, आप तो मुझसे ज्यादा जानते होंगे इस बारे में, इसे केवल राय समझें, जिससे हिन्दी पाठकों को अच्छा लेख पढ़ने के लिये मिल सकें। अगर आपको इस संबंध में मेरी मदद चाहिये तो आप मुझे ईमेल कर सकते हैं।

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  2. मित्र आपका शुक्रिया. मैं भी देख रहा हूं ये अशुद्धियां. असल में हुआ ये है कि पहले से वर्ड फार्मेट में टाइप्‍ट इस लेख को जब कॉपी पेस्‍ट किया गया तो इसकी ये हालत हो गयी. अनावश्‍यक शब्‍दों के बीच ऐसे ऐसे शब्‍द स्‍वयं आ लगे जिसका कोई औचित्‍य नहीं है. सच कहूं तो इंसानी नहीं मशीनी एरर है. वैसे आप कहें तो आपके ई मेल पर एक अटैचमेंट भेज दूं. शायद तब मजा आए. और फि
    र आपकी राय जानने का मौका भी मिल जाएगा.

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  3. यह देखें Dewlance Web Hosting - Earn

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    सायद आपको यह प्रोग्राम अच्छा लगे!


    अपने देश के लोगों का सपोर्ट करने पर हमारा देश एक दिन सबसे आगे

    होगा

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  4. राकेश जी,
    यह आजमा कर देखें -
    सामग्री को पहले नोटपैड में कॉपी कर लें. फिर ब्लॉग में चिपकाएँ. हो सकता है कि ये समस्या खत्म हो जाए. यदि ऐसा है तो इन प्रविष्टियों को फिर से संपादित कर दें.

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  5. Hello
    Sir

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    Regard
    sushil Gangwar
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