22.10.09

हिन्‍दी चिट्ठाकारी : एक और नई चाल? भाग दो

ब्लॉग कैसे – कैसे
पिछले पांच-छह सालों में ब्लॉ़ग ने तमाम किस्‍म की अभिव्य क्तियों को प्रबल और मुखर बनाया है. व्यसक्तिगत तौर पर लोग ब्लॉागबाज़ी कर रहे हैं, अपने ब्लॉअग पर लिख रहे हैं; मित्रों के ब्लॉंग के लिए लिख रहे हैं, सामुदायिक ब्लॉ गों पर लिख रहे हैं. कई दफ़े ये लेखन असरदार भी साबित हो रहे हैं. इससे पहले कि ब्लॉलग के अन्यि पहलुओं पर बातचीत की जाए थोड़ी चर्चा ब्लॉेग के स्व रूप पर.
अंतर्जाल पर ज़्यादातर चिट्ठे साहित्यच-साधना में लीन नज़र आते हैं. उनमें भी भांति-भांति की कविताई करते ब्लॉ्गों की संख्या ख़ास तौर से ज़्यादा है. सामुदायिक ब्लॉंगों को छोड़ भी दिया जाए तो पिछले दो-ढ़ाई सालों से व्याक्तिगत ब्लॉ्गों पर भी सरोकार और चिंताएं दिख रही हैं. मिसाल के तौर पर गिरीन्द्र के ब्लॉग अनुभव पर 10 अप्रैल 2006 को प्रकाशित उनकी पहली पोस्टह के इस अंश पर ग़ौर करते हैं:
... दिल्ली से नज़दीकी रिस्ता रख्नने वाले प्रदेश इस बात को भली-भाती ज़ानते है. उतर प्रदेश, हरियाणा के ज़्यादातर ग्रामीण इलाके के लोग रोज़ी-रोटी के लिए दिल्ली से सम्बध बनाए रखे है.
हरियाणा का होड्ल ग्राम आश्रय के इसी फार्मुले पर विश्वास रखता है... कृषि बहुल भुमि वाले इस गाव मे एक अज़ीब किस्म का व्यवसाय प्रचलन मे है,ज़िसे हम छोटे -बडे शहरो के सिनेमा हालो या फैक्ट्री आदि ज़गहो पर देखते है.वह है-साइकल्-मोटरसाइकल स्टैड्.दिल्ली मे काम करने वाले लोग रोज़ यहा आपना वाहन रख कर दिल्ली ट्रैन से ज़ाते है. एवज़ मे मासिक किराया देते है.
ज़ब मै होड्ल के स्थानिय स्टेशन से पैदल गुजर रहा था तो मैने एक ८० साल की एक् औरत को एक विशाल परती ज़मीन पर साईकिलो के लम्बे कतारो के बीच बैठा पाया...उस इक पल तो मै उसकी उम्र और विरान जगह को देखकर चकित ही हो गया पर जब वस्तुस्थिती का पता चला तो होडल गाव के आश्रयवादी नज़रिया से वाकिफ हुआ.जब मैने उस औरत से बात करनी चाही तो वह तैयार हो गयी और अपने आचलिक भाषा मे बहुत कुछ बताने लगी.उसने कहा कि खेती से अच्छा कमाई इस धधा मे है ...
इस अध्य यन के सिलसिले में उपर्युक्त पोस्ट के बरअक्सा 2006 के अप्रैल-मई महीने में कुछ और तलाशने के लिए मैंने तक़रीबन 80-90 ब्लॉतगों का भ्रमण किया. ज़्यादातर पर कविताएं मिलीं. यहां यह बताना भी ज़रूरी है कि तब या अब ही, जितनी प्रतिक्रियाएं कविताओं को मिलती हैं उतनी मुद्दे आधारित पोस्टों को नहीं. मिसाल के तौर पर उपर्युक्त पोस्टउ पर आज तक एक प्रतिक्रिया भी नही आयी है. यानी इसे इस बात का संकेत माना जा सकता है कि मुद्दों पर लिखना कितना इकहरा काम होता है. मुझे ऐसा लगता है कि हिंदी चिट्ठाकारी से चारण-राग ख़त्म न होने की एक वजह ये भी है. वैसे भी कविताई या अन्यि विशुद्ध साहित्यिक विधाओं में चारण-राग चलता आया है.
जहां तक सामुदायिक ब्लॉयगों का प्रश्नव है तो उनका उदय ही किसी न किसी मुद्दे, विषय या प्रसंग विशेष के कारण होता है. मिसाल के तौर पर अविनाश के ब्लॉहग ‘मोहल्लाक’, जो कि बाद में सामुदायिक घोषित कर दिया गया – के इस पहले पोस्ट पर ग़ौर करते हैं:
साथियो, नेट पर बहुत सारे पन्ने हैं, फिर इस पन्ने की कोई जरूरत नहीं थी. लेकिन हसरतों का क्या किया जाए? हम सब मोहल्ले-कस्बे के लोग हैं. पढ-लिख कर जीने-खाने की जरूरत भर शहर में रहने आते हैं और रहते चले जाते हैं. शायद हम उम्र भर शहरों में रहना सीखते हैं. हर ऊंची इमारत को फटी आंखों से देखते हैं, और ये देखने की कोशिश करते हैं कि कब इसकी फर्श पर हमारे पांव जमेंगे. लेकिन जडों से उखडना क्या इतना आसान है? आइए, हम अपनी उन गलियों को याद करें, जहां हमारी शक्ल ढंग से उभर कर आयी थी... अविनाश
अब ‘भड़ास’ पर उसके मॉडरेटर यशवंत सिंह ने लोगों को अपने ब्लॉ ग से जोड़ने के लिए जो न्यौढता प्रकाशित किया था, ज़रा उस पर ग़ौर फ़रमाते हैं:
भई, जीना तो है ही, सो भड़ास जो भरी पड़ी है, उसे निकालना भी है। और, इसीलिए है यह ब्लाग भड़ास। जब दिल टूट जाए, दिमाग भन्ना जाए, आंखें शून्य में गड़ जाएं, हंसी खो जाए, सब व्यर्थ नज़र आए, दोस्त दगाबाज हो जाएं, बास शैतान समझ आए, शहर अजनबियों का मेला लगे .....तब तुम मेरे पास आना प्रिये, मेरा दर खुला है, खुला ही रहेगा, तुम्हारे लिए।
अशोक पांडे ने जब ‘कबाड़खाना’ आरंभ किया तो लोगों को अपना हमसफ़र बनाने के लिए उन्होंेने विरेन डंगवाल की इन पंक्तियों का सहारा लिया:
पेप्पोर रद्दी पेप्पोर
पहर अभी बीता ही है
पर चौंधा मार रही है धूप
खड़े खड़े कुम्हला रहे हैं सजीले अशोक के पेड़
उरूज पर आ पहुंचा है बैसाख
सुन पड़ती है सड़क से
किसी बच्चा कबाड़ी की संगीतमय पुकार
गोया एक फ़रियाद है अज़ान सी
एक फ़रियाद है एक फ़रियाद
कुछ थोड़ा और भरती मुझे
अवसाद और अकेलेपन से

सामुदायिक ब्लॉपग काफ़ी हद तक अपने मिशन में सफल भी रहे. अनेक सामाजिक सरोकार के मसलों पर वहां बहसें हुई. कुछ लोगों ने बहस में प्रत्येक्ष यानी लेखों या विचारों के ज़रिए शिरकत की और कुछ ने टिप्पवणी के मार्फ़त. आज इन सामुदायिक ब्लॉ गों में से कोई ख़बर छानने में व्य स्तक है तो कोई मीडिया की ख़बर ले रहा है, कुछ विचारधाराओं की रेहड़ी लगाए बैठे हैं तो कुछ पामिस्ट्री किए जा रहे हैं, कहीं बेटियों के बारे में आदान-प्रदान हो रहा है तो कहीं बेटों के बारे में. जिन सामुदायिक ब्लॉंगों का अभी हवाला दिया गया उनके अलावा दर्जनों अन्य सामुदायिक ब्लॉंग हैं. यह सच है कि सामुदायिक चिट्ठों से इस माध्याम को और ज़्यादा लोकप्रियता मिली. हालांकि, यह भी सच है कि साल 2009 के अपराह्न तक आते-आते सामुदायिक ब्लॉजगों की धार और रफ़्तार मंद पड़नी शुरू हो गयी है. कुछ चिट्ठे तो तक़रीबन बंद हो चुके हैं, बस औपचारिक घोषणा होना बाक़ी है. मॉडरेटरों की व्य क्तिगत प्राथमिकताओं में आया बदलाव इसकी सर्वप्रमुख वजह लगती है. कल तक जो सामुदायिक ब्लॉ़ग चला रहे थे आज डॉटकॉम चलाने लगे हैं, या यूं कहें कि कल तक जो सामुदायिक ब्लॉ ग थे आज डॉटकॉम में तब्दीगल हो रहे हैं.
बहरहाल, इतना तो तय है कि हिंदी में हर वैसे विषय, प्रश्न या मुद्दे पर ब्लॉुगिंग हो रही है जो इस वक़्त आपके कल्पानालोक में घुमड़ रहे हैं. ये ज़रूर है कि यहां साहित्यब का बोलबाला है. 12 हज़ार में से लगभग 10 हज़ार ब्लॉागों पर साहित्यघ साधना हो रही है, और उनमें भी कविताई करने वालों की तादाद ज़्यादा है. साहित्येकुंज, अनुभूति, बुनो कहानी, मातील्दाै, तोत्तोचान अंतर्मन, उनींदरा, अवनीश गौतम वग़ैरह हिंदी ब्लॉ गिंग में प्रमुख साहित्यॉ-साधना-स्थाली हैं. उदय प्रकाश, हिंदी ब्लॉगिंग में सक्रिय बड़े साहित्यावरों में से एक हैं. फिल्म और सिनेमा को समर्पित ब्लॉनगों में इंडियन बाइस्कोयप, आवारा हूं और चवन्नी चैप का स्थाोन अग्रणी है. गीतायन और रेडियोवाणी पर तमाम तरह के हिंदी गीतों का भंडारण हो रहा है. गाहे-बगाहे और टीवी प्ल स टेलीविज़न की दुनिया में हो रहे हलचलों पर निगाह टिकाए हुए है. ज्ञान-विज्ञान, रवि-रतलामी का हिंदी ब्लॉलग, प्रतिभास, मे आइ हेल्पे यू, क्रमश:, देवनागरी, इत्या-दि विज्ञान और तकनीकी से मुताल्लिक़ नए-नए अनुसंधानों की जानकारी प्रदान करने के साथ-साथ ब्लॉशगरों को तकनीकी परेशानियों से निजात भी दिलाता है. अनुनाद सिंह इतिहास पर महत्त्वपूर्ण ऐतिहासिक लेखों को संकलित कर रहे हैं. रिजेक्टन माल, अनुभव और हाशिया जनपक्षधर पत्रकारिता और वैचारिकी के विलक्षण उदाहरण हैं, कस्बाे, अनामदास का चिट्ठा, कानपुरनामा और फुरसतिया, उड़न-तश्तैरी, मसिजीवी संस्मेरणों और वैचारिकी के कुछ चुने हुए ठीहे हैं, खेती-बाड़ी अपने नाम को चरितार्थ करता इससे संबंधित जानकारियों का स्रोत है, दाल रोटी चावल पर लज़ीज़ व्यं जनों की जानकारी बनाने की विधि समेत एकत्रित की जा रही है, मस्त,राम मुसाफिर अंतर्जाल पर प्रिंट वाले ‘मस्त राम’ की नुमाइंदगी करता है, हालांकि, साल 2005 के बाद इस पर कुछ नया माल नहीं चढ़ाया गया है.
अंग्रेज़ी ब्लॉीगिंग के विपरीत हिंदी ब्लॉगिंग में आंदोलनों, अभियानों, संघर्षों, संगठनों या मुद्दों पर आधारित ब्लॉीगों की संख्या नगण्यै है. अंग्रेज़ी में इराक़ तथा अफ़गानिस्ता न में अमरीकी गुण्डांगर्दी, पाकिस्तायन की आंतरिक हालत, जाति और जेंडर भेद, बचपन, वृद्धावस्थाक जैसे मसलों, पर्यावरण या ग्लो,बल वार्मिंग पर चलने वाले अभियानों, तथा मानवाधिकार और पशुअधिकार आंदोलनों के बारे में समर्पित ब्लॉगगिंग हो रही है. हिंदी में फिलहाल ये ट्रेंड नहीं बन पाया है. हालांकि, ये ज़रूर है कि अब इस माध्यगम के प्रति आंदोलनों और संगठनों

में संजीदगी दिखने लगी है और कुछेक ब्लॉागों की शुरुआत हुई भी है. मिसाल के तौर पर सफ़र, जहां संगठन से जुड़े कार्यक्रमों और गतिविधियों पर यदा-कदा कुछ लिखा-पढ़ा जाता है या फिर सूचना का अधिकार, जहां नियमित रूप से इस मुद्दे और इससे संबधित अभियानों की ख़बरें शेयर की जाती हैं. इस कड़ी में स्त्री प्रश्नों पर फ़ोकस्डर हिन्दी के पहले सामुदायिक ब्लॉग चोखेरबाली का काम सराहनीय रहा है. हिंदी के प्रचार-प्रसार और इसकी तरक्क ती के लिए समर्पित हिंदयुग्म के अनूठे प्रयासों का यहां उल्लेहख किया जाना ज़रूरी है. हिंदयुग्म् पर तमाम विधाओं में साहित्यी रचना के अलावा कला, संस्कृ ति और आम जन-जीवन से जुड़े प्रश्नोंा पर भी संजीदगी से चर्चा होती है.
चिट्ठाकारी को सरल और लोकप्रिय बनाने में एग्रीगेटरों की भूमिका बेहद महत्त्वपूर्ण है. प्रकाशन के चंद मिनटों के अंदर चिट्ठों को व्याकपक चिट्ठाजगत तक पहुंचाने तथा चिट्ठा संबंधी आवश्य्क जानकारियां उपलब्धा कराने में एग्रीगेटरों का बड़ा योगदान है. साल 2005-06 में ही जीतू ने ‘अक्षरग्राम’ नामक हिंदी का पहला एग्रीगेटर आरंभ किया था. उसके बाद ‘नारद’ नामक एग्रीगेटर भी जीतू और उनके कुछ मित्रों के सामुहिक प्रयास से ही अस्तित्वा में आया. साल 2007 में ‘ब्लाटगवाणी’ और ‘चिट्ठाजगत’ नामक दो और एग्रीगेटर्स अस्तित्वप में आए और उन्हों ने हिंदी ब्लॉगिंग को काफ़ी सहूलियतें मुहैया कीं.
कितनी सक्रिय है ये चिट्ठाकारी: 18 सितंबर 2009 को दोपहर साढे चार बजे के आसपास चिट्ठाजगत के मुताबिक़ कुल 10 हज़ार 259 चिट्ठों में से कुल सक्रिय चिट्ठों की संख्याढ 40 थी. निश्चित रूप से ऐसी कोई भी सूचि स्था्ई नहीं होती, क्यों कि रियल समय में सूचि में बदलाव होते रहते हैं. कभी कोई दसवें नंबर पर होता है तो चंद मिनटों या घंटे बाद वही 38वें नंबर पर या पहले नंबर पर हो सकता है या फिर सूचि में दिखे ही नहीं. बहरहाल, मैं उन ब्लॉगगों को सक्रिय मानता हूं जिन पर हफ़्ते में दो नहीं तो कम से कम एक पोस्ट ज़रूर प्रकाशित होते हैं, यानी पोस्टिंग की निरंतरता बनी रहती है, और उस लिहाज़ा से देखा जाए तो हिंदी में सक्रिय ब्लॉ गों की संख्या 200 के आसपास है. उड़न तश्त री, गाहे-बगाहे, हिंदयुग्म , रचनाकार, अगड़म-बगड़म, फुरसतिया, रेडियोवाणी, कसबा, महाजाल, निर्मल-आनंद, मसिजीवी, मोहल्लाद, कबाड़खाना, चोखेरबाली, इत्यागदि अग्रिम पंक्ति के सक्रिय चिट्ठे हैं. लगे हाथ हिंदी चिट्टाकारी में सक्रिय लोगों की पृष्ठहभूमि पर भी एक नज़र डाल ली जाए. दरअसल, हिन्दी् ब्लॉिगिंग में आए इस रेवल्यूाशन के पीछे तीन अलग-अलग पृष्ठएभूमि के लोगों का योगदान है: पेशेवर टेकीज़ (तकनीकीविशारद) जो हिंदी के प्रति कमिटेड हैं और प्रकारांतर में जिनमें लेखन एक ज़बर्दस्तर हॉबी की तरह विकसित हुआ, पत्रकार (नियमित या अनियमित दोनों तरह के) जिन्हेंक अपने माध्यरमों में स्वतयं को अभिव्यिक्तह करने का मुनासिब मौक़ा नहीं मिल पाता है, या जो यहां लिखकर लोगों का फ़ीडबैक हासिल करते हैं तथा उससे अपने पेशे में पैनापन लाने की कोशिश करते हैं (ऐसे लोग सोशल नेटवर्किंग साइटों का भी फ़ायदा उठाते हैं) और वैसे लोग जिन्हेंक पत्रकारीय कर्म में दिलचस्पीस है; तथा अंतिम श्रेणी में वैसे साहित्यि-साधक शामिल हैं जिन्हेंव आम तौर पर छापे में मन माफिक मौक़ा नहीं मिल पाता है या फिर जो इस माध्य म की उपयोगिता देखते हुए यहां भी अपनी मौज़ूदगी बनाए रखना चाहते हैं या फिर वैसे लोग जिन्होंिने ये ठान लिया है कि वे ब्‍लॉग के ज़रिए ही साहित्य सृजन करेंगे.


सारांश यहाँ आगे पढ़ें के आगे यहाँ

3 comments:

  1. राकेश जी यह सर्वेक्षण का काम कठिन है लेकिन आप इसका निर्वाह कर रहे है।विस्तार से यह ज्ञात होता है । आपकी यह चिंता स्वाभाविक है कि मुद्दो पर लिखे जा रहे ब्लॉग के पाठक कम है दर असल यहाँ लोगो के पस समय क अभाव है लोग कम समय मे लिखते भी है और पढते भी है इस कम समय के कारण कविताओ के ब्लोग ज़्यादा पधे जाते है । लिख्ने के लिये भी यह सरल है कुछ पंक्तियाँ जोडी और कविता तैयार । हाँलाकि मै इसे भी श्रम्साध्य कार्य मानता हू । मै विगत अनेक वर्षो से प्रिंट मीडिया से जुडा हूँ और ब्लोग मे अभी 5-6 माह पूर्व आया हूँ । कविता लिखने के लिये मेहनत करनी होती है । मेरी एक लम्बी कविता पुरातत्ववेत्ता जो पहल से प्रकाशित है 10 साल मे लिखी गई । इतना धैर्य किसमे है । बहर्हाल आगे भी इस चर्चा को जारी रखिये यहाँ भी पढ़ने वाले आयेंगे

    ReplyDelete
  2. बड़ी अच्छी जानकारी है। लिंक लगाकर इसे और उपयोगी बना सकते हैं। पहला संकलक नारद नहीं था। सबसे पहले चिट्ठाचिश्व बना था जिसे देबाशीष ने बनाया था। नारद को बनाने में पंकजनरूला ने काम किया था। बाद में जीतू इसके संचालक बने।

    ReplyDelete
  3. शुक्रिया भूल सुधारने के लिए. मैं अपने मूल पाठ में भी इसे दुरूस्‍त कर लूंगा.

    ReplyDelete