हफ़्तावारी मित्रो,
गयी दिवाली की अंग्रेज़ी तर्ज पर (विलेटेड) और छठ की ताज़ी शुभकामनाएं! दोस्तों, शिमला स्थित भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान द्वारा आयोजित हिंदी अध्ययन सप्ताह के दौरान आखिरी दिन यह पर्चा पेश किया गया था. फिर इसके सार्वजनिक इस्तेमाल के बारे में आयोजकों की और कुछ अपनी निजी समझ की वजह से साझा नहीं कर पाया था. पर लगा कि इस बड़े ब्लॉग समागम में दायरा-ए-चर्चा से ये महरूम रह जाए, दिनों तक कसक रह जाएगी. इसी बीच एक सिनीयर दोस्त ने कहा कि कुछ किस्तों में डाल दीजिए अपने बलॉग पर. लोगों को लगेगा तो चर्चा में शामिल कर लिया जाएगा. बहरहाल, कोइ जबरदस्ती नहीं है लेकिन महाकुंभ नगरी में कोई समागम हो और अगर इसे बित्ता भर जगह मिल जाए तो क्या लूट जाएगा ! वैसे भी गांधी और नेहरू की प्रतीक स्थली और वो भी समागम, भइया, समय हो तो शामिल कर लीजिएगा. तीन-चार किस्तों में ठेल रहा हूं. जगेंगे आप तो आपको मिल जावेगी.
शुक्रिया
क्या है चिट्ठाकरी
21 अप्रैल 2003 हिंदी चिट्ठाकारी के लिए ऐतिहासिक दिन था. लगभग एक दर्जन से अधिक सक्रिय ब्लॉग्स और वेबसाइट्स इस बात की पुष्टि करते हैं और आलोक कुमार के 9-2-11 को हिंदी का सबसे पहला चिट्ठा का दर्जा देते हैं. 21 अप्रैल 2003 को अपने पहले ब्लॉ ग-पोस्ट में आलोक लिखते हैं:
चलिये अब ब्लॉग बना लिया है तो कुछ लिखा भी जाए इसमें। वैसे ब्लॉग की हिन्दी क्या होगी? पता नहीं। पर जब तक पता नहीं है तब तक ब्लॉग ही रखते हैं, पैदा होने के कुछ समय बाद ही नामकरण होता है न। पिछले ३ दिनों से इंस्क्रिप्ट में लिख रहा हूँ, अच्छी खासी हालत हो गई है उँगलियों की और उससे भी ज़्यादा दिमाग की। अपने बच्चों को तो पैदा होते ही इंस्क्रिप्ट पर लगा दूँगा, वैसे पता नहीं उस समय किस चीज़ का चलन होगा ...
आलोक के इस पोस्ट पर ग़ौर करें तो ब्लॉग के नामकरण और फॉण्ट को लेकर उनकी परेशानी साफ़ झलकती है. आज छह साल बाद न केवल आलोक की दोनों परेशानियों का हल ढूंढ लिया गया है बल्कि हिंदी ब्लॉलग अन्य भारतीय भाषाओं, और कहें तो अंग्रेज़ी को भी पछाड़ने की स्थिति में आ चुका है. भारत में इंटरनेट उपयोक्ताओं पर ‘जक्ट्आलो कंसल्टभ’ नामक एक कंपनी द्वारा कराए गए एक सर्वेक्षण के अनुसार
कुल इंटरनेट इस्तेामालकर्ताओं में से 44 प्रतिशत ने हिंदी वेवसाइटों के प्रति उत्सााह जताया जबकि 25 प्रतिशत उपयोक्तान अन्यत भारतीय भाषाओं में इंटरनेट पर काम-काज़ के प्रति उत्सुाक दिखे. अंग्रेज़ी को विश्वरव्याापीजाल का पर्याय मान चुके लोगों के लिए सचमुच यह आंख खोलने वाला अध्यपयन है ...
वाकई आज क़रीब साढ़े छह साल बाद हिंदी में लगभग 12 हज़ार से ज़्यादा ब्लॉसग्सि, 1 हज़ार से ज़्यादा वेबसाइटें तथा 50 हज़ार से ज़्यादा विकिपृष्ठव हैं, और 12 लाख से ज़्यादा पन्नेा इंटरनेट पर लिखे जा चुके हैं. हो सकता है कि इन आंकड़ों में सौ, दो सौ का अंतर आ जाए पर ये हक़ीक़त है कि आज अंतर्जाल पर हिन्दीा फ़र्राटे से दौड़ रही है. ऐसे में ज़रूरी है कि इंटरनेट पर हिंदी के इस्ते़माल, उसके स्व रूप और अन्तफर्वस्तुे पर थोड़ा विचार किया जाए. निश्चित तौर पर चिट्ठा इसके लिए एक मुकम्मील ज़रिया है क्योंसकि यह इंटरनेट पर हिंदी बरतने का एक वृहद मंच बन चुका है.
यूं देखा जाए तो अब तक ब्लॉ ग की कोई औपचारिक परिभाषा गढ़ी नहीं गयी है. हालांकि हर ब्लॉजगर के पास ब्लॉदगिंग की कोई न कोई परिभाषा ज़रूर है. किसी के लिए यह एक ऐसी डायरी है जिसका पन्ना् कोई फ़ाड़ नहीं सकता और इस प्रकार इसमें एक ऑनलाइन अभिलेखागार बनने की पर्याप्त. संभावना दिखती है. कुछ के लिए यह पत्रकारिता का अद्भुद माध्य म है: एक ऐसा माध्य म जो अब तक उपलब्धभ तमाम माध्यलमों से ज़्यादा अवसरयुक्त् है, जहां अब तक की तमाम मानक लेखन शैलियों और भाषा से इतर मनचाहा ईज़ाद और इस्तेुमाल करने की बेइंतहां आज़ादी है: लेखक, रिपोर्टर और संपादक सब ब्लॉागर ख़ुद होता है. कुछ लोगों के हिसाब से यह स्वां त: सुखाय लिखा जाता है, और ऐसा लिखकर लोग अपने मन की भड़ास निकालते हैं. ‘भड़ास’ का तो टैगलाइन ही है:
अगर कोई बात गले में अटक गई हो तो उगल दीजिये, मन हल्का हो जाएगा...
हालांकि अपनी समृद्ध मौखिक परंपरा के बरअक्से ब्लॉलग के बारे में जो छिटपुट लिखा गया है उनमें सुश्री नीलिमा चौहान का शोधपत्र ‘अंतर्जाल पर हिंदी की नई चाल: चन्दट सिरफिरों के खतूत’ प्रमुख है. ब्लॉंग को परिभाषित करते हुए नीलिमा लिखती हैं :
... चिट्ठे या ब्लॉमग, इंटरनेट पर चिट्ठाकार का वह स्पेबस है जिसमें वह अपनी सुविधा व रुचि के अनुसार सामग्री को प्रकाशित कर सार्वजनिक करता है. इस चिट्ठे का तथा इसकी हर प्रविष्टि का जिसे पोस्टं कहते हैं एक स्वपतंत्र वेब – पता होता है. सामान्य्त: पाठकों को इन पोस्टों पर टिप्पुणी करने की सुविधा होती है! यदि चिट्ठाकार स्वतयं इस पते को मिटा न दे तो यह सामग्री इस वेबपते पर सदा – सर्वदा के लिए अंकित हो जाती है. अंतर्जाल के सूचना प्रधान हैवी ट्रैफिक – जोन से परे व्यजक्तिगत स्पेहस में व्य क्तिगत विचारों और भावों की निर्द्वंद्व सार्वजनिक अभिव्यसक्ति को ब्लॉटगिंग कहा जा सकता है.
तमाम मौखिक और लिखित परिभाषाओं के मद्देनज़र मेरा ये मानना है कि ब्लॉजग स्वांयत: सुखाय कदापि नहीं हो सकता. ब्लॉपग पर प्रकाशित हो जाने के बाद उस लिखे हुए के साथ लेखक और प्रकाशक के अलावा पाठक भी जुड़ जाता है. यह पाठक पर निर्भर करता है कि वह उस लिखे पर सहमति-असहमति, ख़ुशी-नाख़ुशी, तारीफ़ या खिंचाई में से, जो चाहे करे. मेरा यह मानना है कि किसी भी प्रकार की अभिव्यखक्ति के सार्वजनिक हो जाने के बाद उसका एक असर होता है. हर ब्लॉागलिखी किसी न किसी सामाजिक पहलू, प्रक्रिया, प्रवृत्ति, परिस्थिति या परिघटना पर उंगली रख रही होती है, कुछ उकेर रही होती है, कहीं उकसा रही होती है, या फिर कुछ उलझा या सुलझा रही होती है. मिसाल के तौर पर 12 सितंबर 09 को कसबा पर रवीश कुमार की इस अभिव्यिक्ति पर ग़ौर कीजिए:
आज हिंदी डे है। कई सरकारी दफ्तरों में बाहर भगवती जागरण की बजाय पखवाड़ा वाला बैनर लगा है। पखवाड़ा। फोर्टनाइट का फखवाड़ा। इस फटीचर कांसेप्ट की आलोचना बड़े बड़े ज्ञानीध्यानी बिना बताये कह गए हैं कि पेटीकोट कैसे पुलिंग है और मूंछ कैसे स्त्रीलिंग है। हर भाषा इस तरह की दुविधाओं के साथ बनी होती है। अब हिंदी के साथ डेटिंग किया जाना चाहिए। डेट विद हिंदी।नवरतन तेल,विको वज्रदंती,डॉलर अंडरवियर और बाक्सर बाइक का उपभोग करने वाला हिंदी का बाज़ार। एक अखबार ने विज्ञापन दिया कि इस दीवाली पर हमारे पाठक पांच लाख वाशिंग मशीन खरीदेंगे। आप विज्ञापन देंगे न। हद है। यही ताकत है हिंदी की। और भाषा की ताकत क्यों हो। भाषा को कातर ही होना चाहिए। रघुवीर सहाय ने क्यों लिखा कि ये दुहाजू(स्पेलिंग सही हो तो) की बीबी है। मुझे तो ये दुहाई हुई गाय लगती है। जिसका अब दिवस नहीं मनना चाहिए। जिसके साथ अब डेटिंग करना चाहिए। चैट करनी चाहिए। चैट स्त्रीलिंग है या पुलिंग। किसने बताया कि क्या है।
रवीश की इस अभिव्यटक्ति को आप ये कहेंगे कि उन्होंलने उपर्युक्तग बातें यूं ही ख़ुद को ख़ुश करने के लिए लिखा है? मुझे तो इसमें साल में एक दिन हिंदी को धो-पोछ कर सजाने की दृष्टि से फ्रेम में जड़ कर दीवार पर टांगने जैसी औपचारिकता का प्रतिरोध झलकता है. ज़रा रवीश की पोस्टक पर सतीश पंचम की टिप्पेणी पर ग़ौर करते हैं:
वैसे ये बात तो सच है कि हाशिये, चिंतन, संगोष्ठी जैसे शब्द सुनते ही जहन में बूढे पोपले चेहरे, श्वेत बालों वाले लोगों की तस्वीर उभरती है।
एक गीत सुना था जिसमें 'दिल' शब्द की जगह 'हृदय' शब्द का इस्तेमाल हुआ था - वह गाना था... कोई जब तुम्हारा 'हृदय' तोड दे....।खोज बीन करने पर एक औऱ गीत का पता चला - अनामिका फिल्म का जिसमें पूरा तो याद नहीं पर कहीं अंतरे में शब्द है कि ...तुझे 'हृदय' से लगाया...जले मन तेरा भी...तू भी तडपे.....
इन दो गीतों के बाद मैंने थोडा सोचना शुरू किया कि आखिर क्यों फिल्म लाईन में 'दिल' शब्द को 'हृदय' शब्द के मुकाबले तरजीह दी जाती है।
जो जबान पर चढे है....वही भाषा बढे है...कम से कम फिल्म लाईन में तो यही चलन है। ...
उपर्युक्तर दोनों उद्धरणों से ये स्प.ष्टे हो जाता है कि ब्लॉलग महज़ दिल को ख़ुश रखने के लिए तो नहीं लिखा जाता है, और यह भी कि कि पोस्ट के साथ-साथ टिप्पजणी/प्रतिक्रिया भी ब्लॉलगिंग का एक अहम पहलु है. यह ब्लॉगिंग को इंटरैक्टिव बनाती है और ये इसकी बहुत बड़ी ताक़त है. अख़बारों की तरह नहीं कि संपादकीय पृष्टह पर कोई लेख छप गया और फिर ख़ुद उसका कतरन लिए यार-दोस्तों् के सामने लहराते फिर रहे हैं (माफ़ कीजिएगा, मेरे साथ ऐसा लंबे समय से होता आ रहा है), किसी ने अपनी राय दे दी तो ठीक वर्ना ... आप समझ ही सकते हैं कि लेखक की क्याब हालत होती है! और अगर किसी संवेदनशील पाठक की राय छपी भी तो कौन-से संपादक महोदय फ़ोन करके बताते हैं कि ‘बंधुवर, आपके लेख पर किसी पाठक ने सज्जेनपुर से चिट्ठी भेजी है, देख लीजिएगा’. इधर ब्लॉ‘गिंग में माल प्रकाशित हुआ नहीं कि टिप्पणी हाजिर. मन माफिक प्रतिक्रिया मिल गयी तो बल्लेद-बल्ले वर्ना बहस खड़ा करने वाली मुद्रा में आने से कौन रोक लेगा. यानी यहां एक तो टिप्प णी झट से मिल जाती है, और ऐसी मिलती है कि पट आने पर भी जी खट्टा नहीं होता.
रिश्ते गढ़े पहचान दिलाए
मुझे ब्लॉ़ग के बारे में एक बात और लगती है, वो ये कि किसी मसले को एक व्या्पक ऑडिएंस तक ले जाने और एक नये दायरे से रू-ब-रू होने व रिश्ताक बनाने का यह एक ज़बर्दस्तप ज़रिया है. यहां अकसर ऐसा होता है कि कोई शख़्ेस आपसे कभी साक्षात न मिला हो पर आभासी दुनिया में आपकी उपस्थिति से वो वाकिफ़ हो, और अपने मन में उसने आपकी कोई छवि तैयार कर ली हो. यानी आप व्यादपक ऑडिएंस तक तो जाते ही हैं पर उससे भी आगे बढ़कर लोग आपसे जुड़ते हैं और आपकी एक पहचान गढ़ते है. यानी यहां ब्लॉ गबाज़ों को एक पहचान मिलती है जो नितांत उनकी आभासी उपस्थिति के आधार पर निर्मित होती है. मिसाल के तौर पर, आपसी बातचीत में साथी ब्लॉ गर विनीत कुमार अकसर बताते हैं कि जब तक वे मीडिया की नौकरी करते थे तो सहकर्मी भी भाव नहीं देते थे. और अब उनके पोस्ट पढ़-पढ़ कर मीडिया से बाबाओं के फ़ोन उनके पास आते हैं और घर आने का न्यौ़ता भी.
कहां तक पहुंचा ब्लॉघग
अप्रैल 2004 में जब आलोक ने 9-2-11 की शुरुआत की थी, तब महत्त्वपूर्ण सवाल ये था कि पाठक कौन होगा. हालांकि आलोक और उनके टेकमित्रों ने मिलकर उस समस्याि को एक हद तक सुलझा लिया. कुछ ग़ैर-तकनीकी पृष्ठ2भूमि के लोगों को भी ऑनलाइन और फ़ोन प्रशिक्षण के मार्फ़त इस बात के लिए राज़ी किया कि वे भी ब्लॉिगिंग में आएं. लोग आए भी. अगर साल 2004-2005 में आरंभ हुए ब्लॉ गों पर विचरण करें तो आपको दो बातों का अहसास होगा: पहला ज़्यादातर आरंभिक ब्लॉीगर टेकविशारद थे और दूसरा सब एक-दूसरे से जुड़े थे. यानी उन ब्लॉयगरों का एक समुदाय था. वे आपस में पढ़ते-पढ़ाते थे और विशेषकर तकनीकी पक्ष को लेकर अनुसंधान किया करते थे. नुक्तामचीनी , देवनागरी , रचनाकार , ई स्वाीमी , फुरसतिया तथा प्रतिभास जैसे चिट्ठे और आलोक कुमार, देवाशीष चक्रवर्ती, रवि रतलामी, अनुनाद सिंह, जीतू , जैसे चिट्ठाकारों ने ब्लॉेग को लोकप्रिय बनाने में ऐतिहासिक भूमिका अदा की. मज़ेदार बात ये है कि इनमें से कोई भी खांटी हिंदीवाला नहीं है या यों कहें कि वे हिंदी कर-धर कर नहीं कमाते-खाते हैं. हां, वे हिन्दीो-प्रेमी और हिंदी के प्रति समर्पित हैं, और प्रकारांतर में उनमें से ज़्यादातर ने शुरू-शुरू में शौकिया लिखना शुरू किया और आज कुछेक को छोड़कर सारे धांसू लिखाड़ बन चुके हैं.
2007 के शुरुआती महीनों में हिंदी चिट्ठों की संख्या तक़रीबन 700 थी और नीलिमा के मुताबिक़ उसमें तेज़ी से वृद्धि हो रही थी . पाठकों की संख्या में भी थोड़ा-बहुत इज़ाफ़ा होने लगा था और लोग टेक्नॉसल्जीश में दिलचस्पीो भी लेने लगे थे. 2007 तक आते-आते कुछ मुद्दे आधारित ब्लॉलग भी अस्तित्वट में आने लगे थे. कविताओं, कहानियों, संस्म0रणों से आगे बढ़ कर ताज़ा ज्वललंत मुद्दों पर चर्चाएं होने लगी थीं. उसी साल शुरू हुए मोहल्लाी , कबाड़खाना और भड़ास जैसे सामुदायिक ब्लॉलगों की मौज़ूदगी से बहस-मुबाहिसों को सह मिलने लगा था. तभी दिसंबर 2007 की 13 तारीख को अगले साल, 2008 की ब्लॉगकारिता कैसी हो – के बारे में वरिष्ठ पत्रकार और संवेदनशील ब्लॉीगर श्री दिलीप मंडल ने अपनी राय कुछ इस तरह ज़ाहिर की:
एक रोमांचक-एक्शनपैक्ड साल का इंतजार है। हिंदी ब्लॉग नाम का शिशु अगले साल तक घुटनों के बल चलने लगेगा। अगले साल जब हम बीते साल में ब्लॉगकारिता का लेखा जोखा लेने बैठें, तो तस्वीर कुछ ऐसी हो। आप इसमें अपनी ओर से जोड़ने-घटाने के लिए स्वतंत्र हैं.
और फिर उन्होंेने निम्नकलिखित बिंदुओं को रेखांकित किया:
हिन्दी ब्लॉग्स की संख्या कम से कम 10,000 हो ...
हिंदी ब्लॉबग के पाठकों की संख्या लाखों में हो ...
विषय और मुद्दा आधारित ब्लॉगकारिता पैर जमाए ...
ब्लॉगर्स के बीच खूब असहमति हो और खूब झगड़ा हो ...
टिप्पणी के नाम पर चारण राग बंद हो ...
ब्ल़ॉग के लोकतंत्र में माफिया राज की आशंका का अंत हो ...
ब्लॉगर्स मीट का सिलसिला बंद हो ...
नेट सर्फिंग सस्ती हो और 10,000 रु में मिले लैपटॉप और एलसीडी मॉनिटर की कीमत हो 3000 रु ...
हैपी ब्लॉगिंग!
जिस ऑर्डर में दिलीपजी ने शुभकामनाएं व्यऔक्ति की थी, थोड़े-बहुत उलट-फेर के साथ भी यदि उनकी पूर्ति हो जाती तो हिंदी ब्लॉ,गिंग की सेहत में सुधार आता. बेशक 12 हज़ार से ज़्यादा ब्लॉोग बन गए हों, मुद्दा आधालरित ब्लॉऑगों के पैर जमने लगे हों, असहमतियों और झगड़ों से गली-नुक्कखड़ भी झेंपने लगे हों किंतु मठाधीशी, चारण-वंदन, मिलन समारोहों और वार्षिकियों जैसे छापे की दुनिया के रोगों से चिट्ठाकारी पूरी तरह आज़ाद नहीं हो पायी है. इंटरनेट के व्या्पकीकरण तथा कंप्युनटर की उपलब्ध ता में अवरोध से तो हम वाकिफ़ हैं ही.
सारांश यहाँ आगे पढ़ें के आगे यहाँ
हासिल तो सब होगा
ReplyDeleteपर समय लगेगा
अभी और भी।
यह तो शुरूआत है
बात है
चाहे बेबात ही सही।
बढिया...ज्ञान से परिपूर्ण...शोधपरक लेख ...
ReplyDeleteबाकी की कड़ियों की प्रतीक्षा रहेगी
हिन्दी चिट्ठाकारी पर विस्तृत और शोधपूर्ण आलेख अच्छा लगा .. दूसरे भाग का भी इंतजार रहेगा !!
ReplyDeleteअच्छा लग रहा है इसे पढ़ना। जिन ब्लागों का जिक्र किया है उनके लिंक लगा दें तो और उपयोगी हो जायेगा यह लेख।
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