8.1.09

सामाजिक संघर्षों को संबल प्रदान करते ब्लॉग

'मीडियास्कैन' टीम के कहने पर अख़बार के जनवरी अंक के लिए ब्लॉग और सामाजिक सरोकारों पर एक लेख मैंने लिखा था. संभवत: स्थानाभाव के चलते अख़बार में लेख अधूरा छप पाया. हां, ज़रा ध्यान से संपादकीय कैंची चली होती तो कम-से-कम लेख का मूल तर्क पाठकों तक जा पाता. बहरहाल, संपादन के सांस्थानिक महत्त्व का आदर करते हुए 'मीडियास्कैन' में छपे 'सामाजिक संघर्षों को सबलता' का असली प्रारूप यहां पेश कर रहा हूं.

मान लेने में कोई हिचक नहीं होनी चाहिए कि ब्लॉग की ने तमाम किस्मों की अभिव्यलक्तियों को प्रबल और मुखर बनाया है. व्यक्तिगत तौर पर लोग ब्लॉगबाज़ी कर रहे हैं, जो लिखना है, जैसे लिखना है - लिख रहे हैं. अपने ब्लॉग पर लिख रहे हैं, मित्रों के ब्लॉग के लिख रहे हैं, सामुदायिक ब्लॉगों पर लिख रहे हैं. कई दफ़े ये लेखन असरदार साबित हो रहे हैं. निचोड़, कि ब्लॉगिंग हिट है.
सामाजिक सरोकारों, आंदोलनों या संघर्षों की रोशनी में ब्लॉग की हैसियत की पड़ताल से पहले एक बात साफ़ हो जानी चाहिए. अकसर सुनने में आता है कि ‘जी, मैं तो स्वांत: सुखाय लिखता हूं’ या ये कि ‘फलां तो लिखता ही अपने लिए है’. मेरी इससे असहमति है. लिखते होंगे दिल को ख़ुश करने के लिए, पर ब्लॉग पर प्रकाशित हो जाने के बाद उस लिखे हुए के साथ लेखक और प्रकाशक के अलावा पाठक भी जुड़ जाता है. यह पाठक पर निर्भर करता है कि वह अब उस लिखे पर सहमति-असहमति, ख़ुशी-नाख़ुशी, तारीफ़ या खिंचाई में से, जो चाहे करे. ऐसा तो हो नहीं सकता कि किसी सामग्री को पढ़ने के बाद उस पर किसी की कोई राय बने ही न. मेरी इस दलील का गरज इतना भर है कि किसी प्रकार की अभिव्य क्ति के सार्वजनिक हो जाने के बाद उसका एक सामाजिक असर होता है. हर ब्लॉगलिखी किसी न किसी सामाजिक पहलू, प्रक्रिया, प्रवृत्ति, परिस्थिति या परिघटना पर उंगली रख रही होती है, उकेर रही होती है, उकसा रही होती है, या फिर उलझा या सुलझा रही होती है.
उपर वाले तर्क से यह साफ़ हो जाता है ब्लॉगगिरी अभिव्यक्ति के माध्य म से आगे बढ़ कर सामाजिक सरोकारों, संघर्षों और संस्थाहओं को संबल प्रदान करने का औज़ार भी बन चुका है. रोज़ नहीं तो कम-से-कम हफ़्ते में कोई न कोई मुद्दा आधारित ब्लॉग जनम रहा है. कहीं दलितमुक्ति पर लिखा जा रहा है तो कहीं महिलामुक्ति पर, कोई सूचना के अधिकार पर जानकारी बांट रहा है तो कोई पर्यावरण को लेकर चिंतित है, कोई कला और संस्कृगति जगत की हलचल से रू-ब-रू करा रहा है तो कहीं सरकार की जनविरोधी विकास नीतियों का प्रतिरोध दर्ज हो रहा है, कहीं राजनीति मसला है तो कहीं भ्रष्टारचार, कोई अपनी सामाजिक प्रतिबद्धताओं व गतिविधियों को साझा कर रहा है तो कोई ख़ालिस विचार-प्रचार में लीन है. अरज ये कि जितने नाम उतने रंग और जितने रंग उतने ढंग.
मिसाल के तौर पर सफ़र की स्वयंकबूली देखिए, ‘एक ऐसी यात्रा जिसमें बेहतर समाज के निमार्ण और संघर्ष की कोशिशें जारी हैं ...’. सरसरी निगाह डालने पर पता चलता है कि शिक्षा, क़ानून, मीडिया और संस्कृति को लेकर सफ़र न केवल प्रतिबद्ध है बल्कि यत्र-तत्र प्रयोगात्मक कार्यक्रम भी चला रहा है. इसकी दायीं पट्टी पर त्वरित क़ानूनी सलाह के लिए हेल्पलाइन नं. +91 9899 870597 भी है. ख़ुद को आम आदमी का हथियार .... बताता सूचना का अधिकार संबंधित क़ानून, इसके इस्तेमाल और असर से जुड़े लेख, संस्मारण, रपट, इत्यादि का एक बड़ा जखीरा है. इसकी बायीं पट्टी पर आरटीआई हेल्पसलाइन नंबर 09718100180 दर्ज है. जमघट सड़कों पर भटकते बच्चों के एक अनूठे समूह के रचनात्मक कारनामों का सिलसिलेवार ब्यौरा पेश करता है. मैं जमघट को शुरुआत से जानता हूं और यह कह सकता हूं कि ब्लॉग ने जमघट को सहयोगियों व शुभचिंतकों का एक बड़ा दायरा दिया है.
वक़्त हो तो एक मर्तबा यमुना जीए अभियान पर हो आइए. यहां आपको दिल्ली में यमुना के साथ लगातार बढ़ते दुर्व्यवहार पर अख़बारी रपटों, सरकार के साथ किए जा रहे संवादों, लेखों, इत्या़दि के ज़रिए ज़ाहिर की जाने वाली चिंताएं मिलेंगी. पर्यावरण के मसले पर गहन-चिंतन में लीन दिल्ली ग्रीन पर निगाह डालें, पता चलेगा कि हिन्दीं में लिखा-पढ़ी करने वालों ने शहरीकरण के मौज़ूदा तौर-तरीक़ों व उसके समानंतर उभर रहे पर्यावरणीय जोखिमों पर किस तरह चुप्पी साध रखी हैं.
समता इंडिया दलित प्रश्नों व ख़बरों से जुड़े ब्लॉगों का एक बेहद प्रभावी मंच है. दलित मसले पर देश में क्या कुछ घटित हो रहा है, यहां से आपको मालूम हो जाएगा और विदेशी हलचलों की कडि़यां मिल जाएंगी. स्वरच्छकार डिग्निटी पर आपको सफ़ाईकर्मियों व सिर पर मैला ढोने वालों के मानवाधिकार के सवालों पर विद्याभूषण रावतजी के लेखों और उनके द्वारा सं‍कलित सामग्रियों का एक बड़ा भंडार मिलेगा. ज़रा इस आत्मरपरिचय पर ग़ौर कीजिए, ‘धूल तब तक स्तुत्य है जब तक पैरों तले दबी है ... उडने लगे ... आँधी बन जाए ... तो आँख की किरकिरी है ..चोखेर बाली है’. जी हां, अत्यल्प समय में चोखेर बाली स्त्री-साहित्य पर बहस-मुबाहिसों के सायबरी केंद्र के रूप में स्थापित हो चुकी है.
छत्तीसगढ़ में सरकार द्वारा आंतरिक आंतकवाद से निबटने के नाम पर ज़मीनी स्तर पर सक्रिय मानवाधिकार कार्यकर्ताओं के
साथ की जा रही अमानवीय कार्रवाइयों के विरोध में नागरिकों व संगठनों का एक सामूहिक प्रयास है कैंपेन फ़ॉर पीस ऐंड जस्टिस इन छत्तीसगढ़. इस पर सलवा-जुड़म समेत तमाम सरकारी कार्यक्रमों व जनविरोधी क़ानूनों के बारे में पर्याप्त जानकारी संग्रहित है. आनि सिक्किम रंचा उस रोते हुए सिक्किम की दर्दनाक कहानी बयां करता है जहां पांच सौ से भी ज्यादा दिनों से स्थानीय लोग तीस्ता नदी को बांधने के सरकारी फ़ैसले के विरोध में अनशन पर बैठे हैं. यह नाता-रिश्ता, गांव-समाज और आजीविका के स्रोतों के तबाह होने की कारूणिक कहानियों और उसके खिलाफ़ एकजुट प्रतिरोध का हरपल अपडेटेड दस्तावेज़ है. काफिला अंग्रेजी में सक्रिय एक विशिष्ट किस्म का ब्लॉग है. आज की दुनिया के ज्वलंत प्रश्नों, मसलों और विचारों पर चिंतन-मनन करने वालों की एक टीम विचारोत्तेजक लेख, विवरण, संस्मरण, इत्यादि के मार्फ़त नियमित रूप से इसे संवर्द्धित करती रहती है, और जमकर बहसें होती हैं.

सामाजिक सरोकारों को लेकर कई बार आनन-फ़ानन में भी कुछ ब्लॉंग्स अस्तित्व में आते हैं और अपना छाप छोड़ जाते हैं. पिछले सालों में आए सुनामी, भूकंप और हालिया बाढ़ के बाद ऐसे कई ब्लॉगों का जन्म हुआ. इनमें से कुछ असरदार भी रहे. मिसाल के तौर पर दिल्ली स्कूल ऑफ़ सोशल वर्क द्वारा आरंभ किए गया बिहार फ़्लड रिलीफ़ बाढ़ग्रस्त इलाक़ों में तबाही की मंज़रबयानी और वहां चलाए जा रहे राहत और पुनर्वास कार्यों का एक अक्षुण्ण दस्ता़वेज़ बन चुका है. दास्तानगोई किस्सागोई की लुप्तमप्राय हो चुकी परंपरा को पुनर्जीवित करने का एक अनूठा प्रयास है.
खालिस विचार प्रचार और अपने एजेंडे को आगे बढ़ाने की जमात में जनवादी लेखक संघ और हितचिंतक जैसे ब्लॉगों का नाम शामिल है. पहले वाला जनवादी लेखन का सायबरी अभिलेखागार तैयार कर रहा है और बाद वाला ख़ुद को कट्टर दक्षिणपंथी विचारों के मार्फ़त राष्ट्रखवाद एवं लोकतंत्र की रक्षा में समर्पित बताता है.
यहां यह ग़ौरतलब है कि सामाजिक सरोकारों पर जितने ब्लॉग अंग्रेज़ी में दिखते हैं उतने हिन्दी में नहीं. सामाजिक संघर्षों, आंदोलनों या संस्थाओं के द्वारा चलाए जा रहे ब्लॉगों की कुछ सी‍माएं भी हैं. मसलन, कई तो महीनों बाद अपडेट होते हैं, कईयों की पक्षधरता इतनी कट्टर होती है कि वे विवेकशीलता और तर्कपरकता से कोसों दूर चलते नज़र आते हैं. मैं एक बार फिर अपने शुरुआती दलीलों की ओर लौटना चाहता हूं. वो ये कि ख़ुद को किसी मुद्दा विशेष पर समर्पित होने का दावा करने वाला ब्लॉग ही उस मसले को नहीं उठा रहा होता है, कभी-कभी व्यक्तिगत ब्लॉगों पर छप रहे लोगों के अनुभवों से भी उस मसले को बल मिल रहा होता है और संघर्ष की ज़मीन तैयार हो रही होती है. ऐसे तमाम ब्लॉग मेरे लिए बेहद महत्त्वपूर्ण हैं.
ज़रूरी तकनीकि और शब्दावली की अनुपस्थिति में इंटरनेट पर हिंदी आज भी सपना ही होता. और इस लिहाज़ से कुछ लोगों के काम संस्थाओं पर भी भारी पड़ते हैं. रविशंकर श्रीवास्वर उर्फ़ रवि रतलामी और देवाशीष चक्रवर्ती उन गिने-चुने लोगों में से हैं जिन्होंने इंटरनेट पर हिंदी के लिए आवश्यक तकनीकि और भाषाई विकास में ऐतिहासित भूमिका अदा की और आज भी कर रहे हैं. हिन्दी के ब्लॉगल खिलाडि़यों को जब कोई परेशानी होती है तब रवि रतलामी का हिन्दी‍ ब्लॉग उनको राहत प्रदान करता है, जबकि देवाशीष के नुक्ताचीनी पर नए-नए तकनीकि संबंधी पर्याप्त जानकारी होती है और निरंतर तो ठीक-ठाक ब्लॉगज़ीन बन चुका है.
सा‍माजिक सरोकारों की रोशनी में ब्लॉग पर चर्चा करते पर मोहल्ला को नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता है और न ही हिन्दयुग्म को. वृहत्तर सामाजिक हित के मसलों पर चर्चा और उतनी ही तीखी टिप्पणियां मोहल्ला पर ही संभव है. जबकि हिन्दमयुग्म ने ख़ुद को इंटरनेट पर हिन्दी की रफ़्तार बढ़ाने के लिए प्रशिक्षण से लेकर साहित्य-सृजन के अद्भुत मंच के रूप में स्थापित किया है.

5 comments:

  1. हाँ, मैं पूरी तरह आपसे सहमत हूँ और बतौर 'मीडियास्कैन' ke इस अंक के संपादन का भार उठाने के कारण इसके लिए माफी चाहता हूँ

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  2. राकेशजी, हितचिन्‍तक का जिक्र करने के लिए आपके प्रति हार्दिक आभार। हितचिन्‍तक के बारे में आपने लिखा है कि ख़ुद को कट्टर दक्षिणपंथी विचारों के मार्फ़त राष्ट्रवाद एवं लोकतंत्र की रक्षा में समर्पित बताता है. यह अधूरा सच है। मैं अपने को दक्षिणपंथी नहीं मानता हूं।

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  3. संपादक की कैंची चाहे जैसी भी चल गयी हो लेकिन अंतर्जाल पर मूल पाठ पेश करके आपने बहुत सही किया है। स्कैन की प्रति में संभवतः वो विचार उभरकर नहीं आने पाए हैं जो आप कहना चाह रहे हैं। सरजी, कोई गल नहीं कैंची से कटे की मकम्मती अगर कीबोर्ड से हो जाए तो बेजा क्या है।

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  4. गि‍रीन्‍द्र आपकी विनम्रता का कायल तो पहले भी था अब और ज़्यादा हो गया हूं. मैं समझ सकता हूं कि किन मुश्किलातों का सामना करना पड़ा होगा आपको इसका संपादन करते वक्त.
    संजीवजी, सबसे पहले आपको साल 2009 की हार्दिक शुभकामनाएं! आप न मानते हों ख़ुद को दक्षिणपंथी, पर आपके विचार और लेख और पक्षधरता को जितना मैं समझ पाया हूं उसके हिसाब से मैं आपको घोर दक्षिणपंथी मानता हूं. कम-से-कम इतना स्‍पेस तो आप देंगे ही कि मैं अपनी राय बेझिझक व्‍यक्त कर सकूं. आप यहां आए, आपका बहुत-बहुत शु‍क्रिया. आते रहिएगा.

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  5. पत्रिका के अक्षर छोटे हैं, पढ नहीं पाया....कुछ करें.
    इस लेखक से शत-प्रतिशत सहमत.विभिन्न ब्लागों की जानकारी उपयोगी है, धन्यवाद...उम्मेद साधक

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