बीते 26 अप्रैल को तिमारपुर में प्रगतिशील युवा संगठन के सदस्यों ने भगत सिंह और बाबा साहब डॉ. भीमराव अंबेडकर की स्मृति में एक सांस्कृतिक कार्यक्रम का आयोजन किया. पेश है उस कार्यक्रम में नन्हे-मुन्ने बच्चों द्वारा गाया गया यह भोजपुरी गींत. मेरे ख़याल से साउंड की क्वालिटी ऐसी है कि थोड़ा ध्यान लगाकर सुनने से बात समझ में आ जाती है. बहुत दिनों बाद भोजपुरी सुन रहा था. पालथी मारकर बैठा था, बच्चों के गायन ने जांघ पर हथेलियों की थपकियों के लिए मजबूर कर दिया. आप भी आनंद लें.
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30.4.09
26.4.09
पहला मतदान दस बरस की उम्र में
84 की ही बात है. सच्चिदा बाबू वाले स्कूल में किसी बात की छुट्टी थी. लिहाज़ा हम (सुधांशु और मैं) धमदाहा में थे. चुनावी गहमागहमी ज़ोरों पर थी. तब फुफाजी जीवित थे. पढ़ा-लिखा परिवार होने के कारण उनकी कद्र थी. सीपीआई से लेकर कांग्रेस तक, सभी दलों के प्रत्याशी ज़रूर उनके दरवाज़े पर आते थे. उसी क्रम में एक दिन माधुरी सिन्हा के दर्शन का योग बना. श्रीमती सिन्हा तब वहां की सांसद थीं और चुनाव में कांग्रेस (इ) की उम्मीदवार भी. फुफाजी के कहने पर भाग कर अंगना से स्टील वाली कप में रखी चाय को स्टील वाली ट्रे पर लाने में गजब की खु़शी हुई थी. जल्दी-जल्दी चाय ले कर पहुंचने के चक्कर में लगभग आधी चाय छलक कर ट्रे में हिलकोरे मारने लगी थी. कुल जमा ये कि फुफाजी के दरवाज़े पर प्रत्याशियों का आना-जाना लगा रहता था. फुफाजी सबसे प्यार से मिलते थे और अपनी ओर से निश्चिंत होने का भरोसा दिलाते थे.
तो लोकसभा के लिए होने वाले आम चुनाव से पहले वाली शाम को चुनाव संपन्न कराने वाले कर्मियों का दल आया. मेरे फुफेरे भाइयों व उनके चचेरे भाइयों ने उनके ठहरने और खाने-पीने का ठीक-ठाक इंतजाम करा दिया. अब उन मछुआरे का नाम याद नहीं जो फुफाजी के घर के पास ही रहते थे और रात-विरात मौक़ा पड़ने पर मछली लेकर हाजिर हो जाते थे. तो उस रात मछली-भात खाने के बाद पोलिंग पार्टी मंदिर के पास नंदकिशोर भइया वाले दालान में लेटने चले गए. बाद में भैया वगैरह उनसे अगले दिन के कार्यक्रम के बारे में बातचीत कर आए. हम बच्चों को उस गोष्ठी से महरूम रखा गया.
सुबह से ही आस-पास के टोले वाले मंदिर से थोड़ी दूर पर कोसी किनारे टाट-फट्टी वाले स्कूल पर कतारबद्ध जमा होने लगे थे. फुफाजी और उनके कुनबे में जो भी हम चार-छह बच्चे थे, उनमें 'भोट' देखने को लेकर बड़ा उत्साह था. पर भैया लोगों के डर से हम दूर से ही तमाशा देखने को मजबूर थे. पता नहीं, किधर से संजय भैया आए और बोले, 'हम त भोट गिरा के अइनि ह'. संजय भैया फुफाजी के सबसे छोटे भतीजा थे और हमसे तीन-चार साल बड़े थे. हमारे लिए उनका भोट गिरा कर आना किसी किला फतह करने से कम नहीं था. हम सारे बच्चे हिम्मत जुटा कर चल पड़े बूथ की तरफ़. भैया लोग और पोलिंग पार्टी दोनों कमरे में व्यस्त थे. एक-दो भैया लाइन-वाइन ठीक करा रहे थे. और कुछ स्कूल के तथाकथित गेट के बाहर बन्दूक लेकर निगरानी कर रहे थे. हमारी हिम्मत, हम तीनों-चारों अवरोधों को पार करते हुए पहुंच गए अंदर बूथ पर. बड़का भैया देखे और चिल्लाए, 'वाह रे भोटर सS! भागS ताड़S कि ना तोहनिं.' मैं ज़ोर-ज़ोर से रोने लगा और रोते-रोते वोट डलवा देने की विनती करने लगा. हमारी गिरगिराहट से पसीज कर भइया ने मुझे प्रेजाइडिंग ऑफिसर से एक बैलेट पेपर दिलवा दिया. जब तक हम बैलेट को हाथ में लेकर खु़श होते तब तक उन्होंने मुहर थमाते हुए कागज पर छपे 'हाथ' के निशान पर मेरा हाथ पकड़ कर ठप्पा दिलवा दिया. मेरे उंगली में रोशनाई लगाने की मांग को भी वे मान गए. बग़ल में बैठे किसी साहब में ने मेरी उंगली पर निशान लगा दिया. बड़ा मज़ा आया था. महज़ दस बरस का था तब. आज भी उस वाक़ये को याद करके रोमांचित हो उठता हूं.
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तो लोकसभा के लिए होने वाले आम चुनाव से पहले वाली शाम को चुनाव संपन्न कराने वाले कर्मियों का दल आया. मेरे फुफेरे भाइयों व उनके चचेरे भाइयों ने उनके ठहरने और खाने-पीने का ठीक-ठाक इंतजाम करा दिया. अब उन मछुआरे का नाम याद नहीं जो फुफाजी के घर के पास ही रहते थे और रात-विरात मौक़ा पड़ने पर मछली लेकर हाजिर हो जाते थे. तो उस रात मछली-भात खाने के बाद पोलिंग पार्टी मंदिर के पास नंदकिशोर भइया वाले दालान में लेटने चले गए. बाद में भैया वगैरह उनसे अगले दिन के कार्यक्रम के बारे में बातचीत कर आए. हम बच्चों को उस गोष्ठी से महरूम रखा गया.
सुबह से ही आस-पास के टोले वाले मंदिर से थोड़ी दूर पर कोसी किनारे टाट-फट्टी वाले स्कूल पर कतारबद्ध जमा होने लगे थे. फुफाजी और उनके कुनबे में जो भी हम चार-छह बच्चे थे, उनमें 'भोट' देखने को लेकर बड़ा उत्साह था. पर भैया लोगों के डर से हम दूर से ही तमाशा देखने को मजबूर थे. पता नहीं, किधर से संजय भैया आए और बोले, 'हम त भोट गिरा के अइनि ह'. संजय भैया फुफाजी के सबसे छोटे भतीजा थे और हमसे तीन-चार साल बड़े थे. हमारे लिए उनका भोट गिरा कर आना किसी किला फतह करने से कम नहीं था. हम सारे बच्चे हिम्मत जुटा कर चल पड़े बूथ की तरफ़. भैया लोग और पोलिंग पार्टी दोनों कमरे में व्यस्त थे. एक-दो भैया लाइन-वाइन ठीक करा रहे थे. और कुछ स्कूल के तथाकथित गेट के बाहर बन्दूक लेकर निगरानी कर रहे थे. हमारी हिम्मत, हम तीनों-चारों अवरोधों को पार करते हुए पहुंच गए अंदर बूथ पर. बड़का भैया देखे और चिल्लाए, 'वाह रे भोटर सS! भागS ताड़S कि ना तोहनिं.' मैं ज़ोर-ज़ोर से रोने लगा और रोते-रोते वोट डलवा देने की विनती करने लगा. हमारी गिरगिराहट से पसीज कर भइया ने मुझे प्रेजाइडिंग ऑफिसर से एक बैलेट पेपर दिलवा दिया. जब तक हम बैलेट को हाथ में लेकर खु़श होते तब तक उन्होंने मुहर थमाते हुए कागज पर छपे 'हाथ' के निशान पर मेरा हाथ पकड़ कर ठप्पा दिलवा दिया. मेरे उंगली में रोशनाई लगाने की मांग को भी वे मान गए. बग़ल में बैठे किसी साहब में ने मेरी उंगली पर निशान लगा दिया. बड़ा मज़ा आया था. महज़ दस बरस का था तब. आज भी उस वाक़ये को याद करके रोमांचित हो उठता हूं.
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20.4.09
इ कौन-सी डिमोक्रेसी है सरजी
सिर्फ़ प्रोमो ही देख पाया था. पूरी बातचीत तो बीते इतवार को दस बजे रात को आना था रजत शर्मा वाली 'आपकी अदालत में'. पर जितना देख सका, उससे ज़ाहिर हो गया कि जगदीश टाइटलर को गहरा ठेस लगा है. उनकी आंखों में पानी आ गया था. सुबक भी रहे थे. सुबकते हुए उन्होंने सिखों के साथ 84 में हुई ज़्यादती के लिए माफ़ी भी मांगी थी. बात आगे बढ़ाने से पहले यह साफ़ कर देना अच्छा रहेगा कि मेरी मंशा जगदीश टाइटलर को दोषी या दोषमुक्ती का प्रमाणपत्र देना कदापि नहीं है. मुझे नहीं मालूम कि टाइटलर साब कितने दोषी हैं और कितने नहीं. कितने सरदारों का कत्ल उन्होंने किया और कितनों को ऐसा करने को उकसाया, कितने घर उन्होंने ख़ुद फूंके और कितने फुंकवाए... बस मैं तो अपनी स्मृतियों को खंघालते हुए कुछ दृश्यों के ज़रिए अपनी समझ साझा करने की कोशिश भर करूंगा.
उन दिनों मैं उत्तर बिहार के पूर्णियां शहर में एक आश्रमनुमा स्कूल में पढ़ता था, जो उस स्कूल के तत्कालीन प्रधानाध्यापक सच्चिदा बाबू के स्कूल के नाम से जाना जाता था. सच्चिदा बाबू ने अपनी सेवानिवृति के बाद अपने ही अहाते में कुछ कमरे बनवाकर उसे स्कूल सा शक्ल दे दिया था और उनके परिचितों और शिष्यों के बच्चे वहां ज्ञानार्जन करते थे. ज़्यादातर बच्चे रहते भी वहीं थे. यानी हॉस्टल में. हमारे सच्चिदा बाबू सत्याग्रह वगैह में गांधी के साथ रहे थे और कई बार बापू के किस्से सुनाते-सुनाते वे फफक पड़ते थे. माने पक्के कांग्रेसी थे. गप-शप (हमारी पढाई-लिखाई इसी शैली में होती थी) के दौरान कई बार वे इंदिराजी की बहादुरी के किस्से भी सुना डालते थे. लिहाज़ा अक्टूबर 1984 की ही किसी दोपहरी में जब रंगभूमि मैदान में इंदिराजी की जनसभी हुई, तो वे हम बच्चों को भी उनका भाषण सुनाने ले गए. याद है उस दिन इस्त्री वाली हाफ़ पैंट और कमीज़ बहुत दिनों बाद धारण किए थे बच्चों ने. मेरे जैसे कुछ बच्चों ने चानी पर कड़ुआ तेल भी थोप लिया था. बस, चप्पल फटफटाते बच्चे लाइन-बाज़ार के आस पास से पैदल ही पहुंच गए थे रंगभूमि मैदान. याद नहीं है क्या-क्या बोला था इंदिराजी ने, केवल उनके आधे सफे़द और आधे काल बाल ही याद हैं.
शायद छठ की छुट्टी से लौटे थे धमदाहा से. मेरी फुआ का कामत था वहां. हॉस्टल आने पर पता चला कि इंदिराजी को उनके अंगरक्षकों ने गोली मार दी. हॉस्टल में सन्नाटा पसरा था. हेडमास्टर साहब सच्चिदा बाबू बार-बार गमछा से आंखे पोछते रहते थे. हमारी पढ़ाई-लिखाई भी बाधित हो गयी थी. पता नहीं अचानक कहां से पंजाबियों (सरदारों) पर आफत आ पड़ी. फारबिसगंज मोड़ से कचहरी के रास्ते में एक 'पंजाब टेंट हाउस' था, रातोंरात उसने बोर्ड पर 'भारत टेंट हाउस' लिखवा लिया. हमारे स्कूल के क़रीब ही तत्कालीन पूर्णिया शहर के गिने-चुने खू़बसूरत घरों में से एक सरदार मंगल सिंह के घर पर ताबड़तोड़ बमबारी कर दी थी किसी ने. सरदार साहब के परिवार की औरतें बदहवास रोती जा रही थीं. अच्छी तरह याद है तब तमाम ग़ैरसरदार न केवल तमाशा देख रहे थे बल्कि सरदारों के खिलाफ़ अफ़वाहों की खेती कर रहे थे. रोज़ नए-नए अफ़वाह! बचपन के आंकलन के मुताबिक तब शहर के ट्रांसपोर्ट व्यवसाय में सरदार ही सबसे आगे थे. शायद वो दिलवाड़ा सिंह थे 'ऐतियाना' वाले, और एक और सिख बस व्यवसायी थे. हमारे स्कूल में ही किसी बच्चे ने कहा था कि दिलवाड़ा सिंह ने अपने अहाते में 50 आतंकवादियों को छुपा रखा है, उनके पास रडार-वडार सब कुछ है. वे लोग डीएम और एसपी को उड़ाने वाले हैं ... महीनों ऐसी अफ़वाहें उड़ती रही थीं.उन्हीं दिनों दिसंबर-जनवरी या फरवरी में राजीव गांधी की जनसभा होने वाली थी, अफवाह सुनी, 'फलां सरदार ने अपने छत पर ही मशीनगन सेट कर लिया है, अपने घर से ही भाषण वाले मंच पर राजीव गांधी को टीक देगा.उसके बाद का राजनीतिक घटनाक्रम याद दिलाना मेरे ख़याल से ज़रूरी नहीं है.
एक-आध बातें जो ज़हन में आ रही हैं वो ये कि तब कांग्रेस के लोग इस क़दर भावुक हो गए थे कि वे सही-ग़लत का निर्णय न कर सके. आम लोगों में इंदिरा गांधी की हत्या को लेकर रोष था जिसका नाजायज फायदा दंगाइयों ने उठाया. हिन्दु कट्टरपंथियों ने कांग्रेस के कुछ लफुओं को आगे करके अपने मन माफिक काम किया जिसका प्रमाण तत्काल बाद वाले चुनाव में कांग्रेस का समर्थन करके उन्होंने दिया. तब के कई कांग्रेसी आज संघ के विभिन्न मंचों और संगठनों के मार्फ़त अपना काम कर रहे हैं. कुछेक विधायक, सांसद और मंत्री भी बनने में कामयाब रहे. मेरे ख़याल से पूर्णिया की तत्कालीन सांसद माधुरी सिंहा के सुपुत्र पप्पू सिंह ने भी उत्तरार्द्ध में शायद ऐसा ही कुछ किया.
अपनी बात समेटते हुए मैं बस यही कहना चाहूंगा कि दंगाइयों का एक तबक़ा चुनाव से बाहर कर दिया जाए और दूसरा प्रधानमंत्री बनने और बनवाने के लिए अखाड़े में ताल ठोकता रहे. मेरे खयाल से नेचुरल जस्टिस इसे तो नहीं ही कहा जा सकता. इ कौन-सी डिमोक्रेसी है सरजी.
उन दिनों मैं उत्तर बिहार के पूर्णियां शहर में एक आश्रमनुमा स्कूल में पढ़ता था, जो उस स्कूल के तत्कालीन प्रधानाध्यापक सच्चिदा बाबू के स्कूल के नाम से जाना जाता था. सच्चिदा बाबू ने अपनी सेवानिवृति के बाद अपने ही अहाते में कुछ कमरे बनवाकर उसे स्कूल सा शक्ल दे दिया था और उनके परिचितों और शिष्यों के बच्चे वहां ज्ञानार्जन करते थे. ज़्यादातर बच्चे रहते भी वहीं थे. यानी हॉस्टल में. हमारे सच्चिदा बाबू सत्याग्रह वगैह में गांधी के साथ रहे थे और कई बार बापू के किस्से सुनाते-सुनाते वे फफक पड़ते थे. माने पक्के कांग्रेसी थे. गप-शप (हमारी पढाई-लिखाई इसी शैली में होती थी) के दौरान कई बार वे इंदिराजी की बहादुरी के किस्से भी सुना डालते थे. लिहाज़ा अक्टूबर 1984 की ही किसी दोपहरी में जब रंगभूमि मैदान में इंदिराजी की जनसभी हुई, तो वे हम बच्चों को भी उनका भाषण सुनाने ले गए. याद है उस दिन इस्त्री वाली हाफ़ पैंट और कमीज़ बहुत दिनों बाद धारण किए थे बच्चों ने. मेरे जैसे कुछ बच्चों ने चानी पर कड़ुआ तेल भी थोप लिया था. बस, चप्पल फटफटाते बच्चे लाइन-बाज़ार के आस पास से पैदल ही पहुंच गए थे रंगभूमि मैदान. याद नहीं है क्या-क्या बोला था इंदिराजी ने, केवल उनके आधे सफे़द और आधे काल बाल ही याद हैं.
शायद छठ की छुट्टी से लौटे थे धमदाहा से. मेरी फुआ का कामत था वहां. हॉस्टल आने पर पता चला कि इंदिराजी को उनके अंगरक्षकों ने गोली मार दी. हॉस्टल में सन्नाटा पसरा था. हेडमास्टर साहब सच्चिदा बाबू बार-बार गमछा से आंखे पोछते रहते थे. हमारी पढ़ाई-लिखाई भी बाधित हो गयी थी. पता नहीं अचानक कहां से पंजाबियों (सरदारों) पर आफत आ पड़ी. फारबिसगंज मोड़ से कचहरी के रास्ते में एक 'पंजाब टेंट हाउस' था, रातोंरात उसने बोर्ड पर 'भारत टेंट हाउस' लिखवा लिया. हमारे स्कूल के क़रीब ही तत्कालीन पूर्णिया शहर के गिने-चुने खू़बसूरत घरों में से एक सरदार मंगल सिंह के घर पर ताबड़तोड़ बमबारी कर दी थी किसी ने. सरदार साहब के परिवार की औरतें बदहवास रोती जा रही थीं. अच्छी तरह याद है तब तमाम ग़ैरसरदार न केवल तमाशा देख रहे थे बल्कि सरदारों के खिलाफ़ अफ़वाहों की खेती कर रहे थे. रोज़ नए-नए अफ़वाह! बचपन के आंकलन के मुताबिक तब शहर के ट्रांसपोर्ट व्यवसाय में सरदार ही सबसे आगे थे. शायद वो दिलवाड़ा सिंह थे 'ऐतियाना' वाले, और एक और सिख बस व्यवसायी थे. हमारे स्कूल में ही किसी बच्चे ने कहा था कि दिलवाड़ा सिंह ने अपने अहाते में 50 आतंकवादियों को छुपा रखा है, उनके पास रडार-वडार सब कुछ है. वे लोग डीएम और एसपी को उड़ाने वाले हैं ... महीनों ऐसी अफ़वाहें उड़ती रही थीं.उन्हीं दिनों दिसंबर-जनवरी या फरवरी में राजीव गांधी की जनसभा होने वाली थी, अफवाह सुनी, 'फलां सरदार ने अपने छत पर ही मशीनगन सेट कर लिया है, अपने घर से ही भाषण वाले मंच पर राजीव गांधी को टीक देगा.उसके बाद का राजनीतिक घटनाक्रम याद दिलाना मेरे ख़याल से ज़रूरी नहीं है.
एक-आध बातें जो ज़हन में आ रही हैं वो ये कि तब कांग्रेस के लोग इस क़दर भावुक हो गए थे कि वे सही-ग़लत का निर्णय न कर सके. आम लोगों में इंदिरा गांधी की हत्या को लेकर रोष था जिसका नाजायज फायदा दंगाइयों ने उठाया. हिन्दु कट्टरपंथियों ने कांग्रेस के कुछ लफुओं को आगे करके अपने मन माफिक काम किया जिसका प्रमाण तत्काल बाद वाले चुनाव में कांग्रेस का समर्थन करके उन्होंने दिया. तब के कई कांग्रेसी आज संघ के विभिन्न मंचों और संगठनों के मार्फ़त अपना काम कर रहे हैं. कुछेक विधायक, सांसद और मंत्री भी बनने में कामयाब रहे. मेरे ख़याल से पूर्णिया की तत्कालीन सांसद माधुरी सिंहा के सुपुत्र पप्पू सिंह ने भी उत्तरार्द्ध में शायद ऐसा ही कुछ किया.
अपनी बात समेटते हुए मैं बस यही कहना चाहूंगा कि दंगाइयों का एक तबक़ा चुनाव से बाहर कर दिया जाए और दूसरा प्रधानमंत्री बनने और बनवाने के लिए अखाड़े में ताल ठोकता रहे. मेरे खयाल से नेचुरल जस्टिस इसे तो नहीं ही कहा जा सकता. इ कौन-सी डिमोक्रेसी है सरजी.
16.4.09
पीत चट्टी प्रहारक केसरिया कार्यकर्ता
जाते-जाते पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति श्रीमान् बुश महोदय मुंतज़र अल ज़ैदी के जूतों से बच निकले. दुनिया को समझते देर न लगी कि ज़ैदी ने ये तोहफ़ा क्यों दिया बुश को! विगत दिसंबर से अब तक दुनिया भर में कई नेताओं पर जूते उछाले गए. मज़े की बात ये कि पिछले आठ-दस दिनों में जितने जूते भारतीय नेताओं पर उछाले गए उतने कभी और दुनिया के किसी अन्य हिस्से में न उछाले गए.
पिछले हफ़्ते जागरणी जर्नलिस्ट जरनैल सिंह ने चितंबरम जैसे धाकड़ नेता पर जूते उछाले. चिदंबरम सर को किसी प्रकार की चोट नहीं आयी और उन्होंने गांधी की राह पर चलते हुए जरनैल को माफ़ कर दिया. पर दिल्ली के दो दिग्गज आज भी रह-रह कर जरनैली जूते की चोट को सहलाने लगते हैं. बेचारों का राजनीतिक जायक़ा ख़राब हो चुका है. न जाने कब तक इन्हें राजनीतिक पनाह की बाट जोहनी पड़ जाए. 1984 में इंदिरा अम्मा की हत्या के बाद राजधानी में सिख विरोधी दंगे भड़काने के आरोपी इन दोनों कांग्रेसी नेताओं की टिकटें न कटतीं तो ख़ुद कांग्रेस को चुनाव परिणाम से प्राप्त होने वाली कुल सीटों में दो और का इज़फ़ा तय माना जा रहा था. यानी संभव है कि जरनैल के जूते का असर भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस पर पड़ जाए.
दिल्ली से चले जरनैली जूते चंद रोज़ बाद कुरुक्षेत्र पहुंचे. अबकी ये सख़्त सोल वाले मास्टरी थे और इसकी जद में आए देश के जाने-माने उद्योगपति, शौकिया पोलो खिलाड़ी और निवर्तमान कांग्रेसी सांसद नवीन जिंदल साहब. जिंदल साहब वही हैं जो दिल्ली हाई कोर्ट से आदेश प्राप्त करने के बाद हमेशा अपनी जेब पर तिरंगा टांगे रहते हैं. पर ये जूते नियत डेस्टिनेशन से पहले ही गुरुत्वाकर्षण के नियमों के चंगूल में फंस कर चंद क़दम की दूरी पर वापस धरती को ही कुछ चोट पहुंचा गए. उसके बाद स्थानीय लोगों (कुछ लोगों के मुताबिक़ कांग्रेसी कार्यकर्ताओं) ने सरकार से क्षुब्ध सेवानिवृत्त उस मास्साब पर न्यूटन के तीसरे नियम का पालन करते हुए तब तक लात-घुसों की बारीश करते रहे जब तक कि पुलिस न आ गयी. शाम को टेलीविज़न पर ख़्ाबर देखते हुए ज्ञात हुआ कि जिंदल साहब ने मास्साब का लिहाज़ करते हुए उन पर कोई मुक़दमा दायर नहीं करवाया है, हां पुलिस अपनी कार्रवाई करने के लिए आज़ाद है जो कि होकर रहेगी.
कल पता चला कि बीते कुछ दिनों में कुछ हज़ार किलोमीटर का सफ़र तय करके कुछ जूते मध्यप्रदेश की सीमा में प्रवेश कर गए हैं. पता ये भी चला कि कुछ ने तो अपनी शक्ल भी बदल ली है. प्रधानमंत्री बनने के लिए उतावले माननीय लालकृष्ण आडवाणी जी पर जो चरण पादूका कल कटनी में उछाली गयी थी दरअसल टेलीविज़न स्क्रीन पर देखने से वो दादाजी के ज़माने की पीत चट्टी प्रतीत हो रही थी. लकड़ी के सोल पर रबर की पट्टी लगी इस प्रकार की चट्टी को जानकार धार्मिक दृष्टि से बेहद शुद्ध और पवित्र मानते हुए खड़ाउं की श्रेणी में रखते हैं. 'पंडिताई' की शुरुआत में रंगरुटिए को चट्टी पहनने की ही सलाह दी जाती है क्योंकि सीधे पैर की उंगलियों में खड़ाउं का अंकुसा फंसाने भर की कोशिश से ही पैर के चोटिल हो जाने का ख़तरा बना रहता है. बचपन में ऐसी चट्टियों पर हम खेल-कूद कर घर लौटने के बाद पैर धोया करते थे.
कल समाचारों से ज्ञात हुआ कि भारत के पूर्व गृहमंत्री, एक समय यहीं के उपप्रधानमंत्री, निवर्तमान लोकसभा में विपक्ष के नेता और आज प्रधानमंत्री बनने के लिए अधीर व व्याकुल वृद्ध माननीय लालकृष्ण पर उस पीत-चट्टी का प्रहारक उनकी ही पार्टी का कार्यकर्ता था (हालांकि भारत के दो बड़े राजनीतिक दलों में परिस्थितियों व पारिवारिक पृष्ठभूमियों के हिसाब के कुछ नौजवानों के लिए कार्यकर्तागिरी करना आवश्यक नहीं रह गया है. उदाहरण के लिए सिंधिया व गांधी परिवार से संबद्ध राजनीतिपसंद लोग) वैसे जब पुलिस उसके कमर में हाथ डाल कर ले जा रही थी उस वक़्त उसने अपने गले पर पीतांबरी अंगवस्त्र (या कहिए कि थोड़ा गाढ़ापन लिए) धारण किया हुआ था.
यहां उद्देश्य उपर्युक्त वर्णित जूतेबाज़ी के चारों उदाहरणों से कुछ सबक निकालना है. मुंतजर के जूते अमेरिका के हाथों इराक की हुई बर्बादी के विरोध में थे, जरनैल के जूते 84 के दंगा-पीडितों के साथ हो रही नाइंसाफ़ी की मुखालफ़त कर रहे, मास्साब के जूते हरियाणा सरकार के प्रति उनके आक्रोष का प्रतिविंबन कर रहे थे. यहां तक तो बात समझ आ रही है, पर कटनी में आडवाणीजी पर चट्टी का प्रहारक तो संघ संप्रदाय का ही हिस्सा था. उस भले आदमी ने ऐसा क्यों किया?
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पिछले हफ़्ते जागरणी जर्नलिस्ट जरनैल सिंह ने चितंबरम जैसे धाकड़ नेता पर जूते उछाले. चिदंबरम सर को किसी प्रकार की चोट नहीं आयी और उन्होंने गांधी की राह पर चलते हुए जरनैल को माफ़ कर दिया. पर दिल्ली के दो दिग्गज आज भी रह-रह कर जरनैली जूते की चोट को सहलाने लगते हैं. बेचारों का राजनीतिक जायक़ा ख़राब हो चुका है. न जाने कब तक इन्हें राजनीतिक पनाह की बाट जोहनी पड़ जाए. 1984 में इंदिरा अम्मा की हत्या के बाद राजधानी में सिख विरोधी दंगे भड़काने के आरोपी इन दोनों कांग्रेसी नेताओं की टिकटें न कटतीं तो ख़ुद कांग्रेस को चुनाव परिणाम से प्राप्त होने वाली कुल सीटों में दो और का इज़फ़ा तय माना जा रहा था. यानी संभव है कि जरनैल के जूते का असर भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस पर पड़ जाए.
दिल्ली से चले जरनैली जूते चंद रोज़ बाद कुरुक्षेत्र पहुंचे. अबकी ये सख़्त सोल वाले मास्टरी थे और इसकी जद में आए देश के जाने-माने उद्योगपति, शौकिया पोलो खिलाड़ी और निवर्तमान कांग्रेसी सांसद नवीन जिंदल साहब. जिंदल साहब वही हैं जो दिल्ली हाई कोर्ट से आदेश प्राप्त करने के बाद हमेशा अपनी जेब पर तिरंगा टांगे रहते हैं. पर ये जूते नियत डेस्टिनेशन से पहले ही गुरुत्वाकर्षण के नियमों के चंगूल में फंस कर चंद क़दम की दूरी पर वापस धरती को ही कुछ चोट पहुंचा गए. उसके बाद स्थानीय लोगों (कुछ लोगों के मुताबिक़ कांग्रेसी कार्यकर्ताओं) ने सरकार से क्षुब्ध सेवानिवृत्त उस मास्साब पर न्यूटन के तीसरे नियम का पालन करते हुए तब तक लात-घुसों की बारीश करते रहे जब तक कि पुलिस न आ गयी. शाम को टेलीविज़न पर ख़्ाबर देखते हुए ज्ञात हुआ कि जिंदल साहब ने मास्साब का लिहाज़ करते हुए उन पर कोई मुक़दमा दायर नहीं करवाया है, हां पुलिस अपनी कार्रवाई करने के लिए आज़ाद है जो कि होकर रहेगी.
कल पता चला कि बीते कुछ दिनों में कुछ हज़ार किलोमीटर का सफ़र तय करके कुछ जूते मध्यप्रदेश की सीमा में प्रवेश कर गए हैं. पता ये भी चला कि कुछ ने तो अपनी शक्ल भी बदल ली है. प्रधानमंत्री बनने के लिए उतावले माननीय लालकृष्ण आडवाणी जी पर जो चरण पादूका कल कटनी में उछाली गयी थी दरअसल टेलीविज़न स्क्रीन पर देखने से वो दादाजी के ज़माने की पीत चट्टी प्रतीत हो रही थी. लकड़ी के सोल पर रबर की पट्टी लगी इस प्रकार की चट्टी को जानकार धार्मिक दृष्टि से बेहद शुद्ध और पवित्र मानते हुए खड़ाउं की श्रेणी में रखते हैं. 'पंडिताई' की शुरुआत में रंगरुटिए को चट्टी पहनने की ही सलाह दी जाती है क्योंकि सीधे पैर की उंगलियों में खड़ाउं का अंकुसा फंसाने भर की कोशिश से ही पैर के चोटिल हो जाने का ख़तरा बना रहता है. बचपन में ऐसी चट्टियों पर हम खेल-कूद कर घर लौटने के बाद पैर धोया करते थे.
कल समाचारों से ज्ञात हुआ कि भारत के पूर्व गृहमंत्री, एक समय यहीं के उपप्रधानमंत्री, निवर्तमान लोकसभा में विपक्ष के नेता और आज प्रधानमंत्री बनने के लिए अधीर व व्याकुल वृद्ध माननीय लालकृष्ण पर उस पीत-चट्टी का प्रहारक उनकी ही पार्टी का कार्यकर्ता था (हालांकि भारत के दो बड़े राजनीतिक दलों में परिस्थितियों व पारिवारिक पृष्ठभूमियों के हिसाब के कुछ नौजवानों के लिए कार्यकर्तागिरी करना आवश्यक नहीं रह गया है. उदाहरण के लिए सिंधिया व गांधी परिवार से संबद्ध राजनीतिपसंद लोग) वैसे जब पुलिस उसके कमर में हाथ डाल कर ले जा रही थी उस वक़्त उसने अपने गले पर पीतांबरी अंगवस्त्र (या कहिए कि थोड़ा गाढ़ापन लिए) धारण किया हुआ था.
यहां उद्देश्य उपर्युक्त वर्णित जूतेबाज़ी के चारों उदाहरणों से कुछ सबक निकालना है. मुंतजर के जूते अमेरिका के हाथों इराक की हुई बर्बादी के विरोध में थे, जरनैल के जूते 84 के दंगा-पीडितों के साथ हो रही नाइंसाफ़ी की मुखालफ़त कर रहे, मास्साब के जूते हरियाणा सरकार के प्रति उनके आक्रोष का प्रतिविंबन कर रहे थे. यहां तक तो बात समझ आ रही है, पर कटनी में आडवाणीजी पर चट्टी का प्रहारक तो संघ संप्रदाय का ही हिस्सा था. उस भले आदमी ने ऐसा क्यों किया?
मेरी शंकाएं इस प्रकार निम्न हैं :
- आडवाणीजी उन्हें पसंद न हों,
- आडवाणीजी के क्रियाकलाप उन्हें पसंद न हों,
- आडवाणीजी ने कभी कोई ऐसा अपराध किया हो जिसका दंड वे भरी सभा में देना चाह रहे हों,
- आडवाणीजी ने कभी किसी तरह उनका अपमान किया हो, जिसका बदला लेने का वे मौक़ा तलाश रहे हों,
- आडवाणीजी के मन में कोई खोट हो,
- आडवाणीजी की कथनी और करनी में नाबर्दाश्तग़ी की हद तक उन्होंने फ़र्क़ महसूस किया हो,
- आडवाणीजी से संरक्षणप्राप्त नेताओं से उन्हें चीढ हो,
- आडवाणीजी ने उनसे कभी कोई कोई वायद किया हो और बाद में मुकर गए हों,
- आडवाणीजी के हस्तक्षेप से उनको कभी मिलने वाला चुनावी टिकट कट गया हो,
- आडवाणीजी का पाकिस्तान में जिन्ना के मज़ार पर कशीदा पढ़ना उन्हें चुभ गया हो,
- आडवाणीजी का राम के नाम परा वोट मांग कर राम का घर आज तक न बनवा पाना उन्हें सालता रहा हो,
- निवर्तमान संसद में आडवाणीजी का सार्थक हस्तक्षेप न देख कर क्रोध आ गया हो,
- आडवाणीजी की लिडरई में भाजपा द्वारा जबरन हिन्दुत्व का ठेका हथिया लेने पर हज़ारों हिन्दुओं की तरह उनकी आस्था पर भी चोट पहुंची हो,
- आडवाणीजी की लिडरई में 1992 में बाबरी मस्जिद का विध्वंस उन्हें नागवार गुज़रा हो,
- आडवाणीजी का वाजपेईजी के कैबिनेट पर दूसरे नंबर पर होने के बावजूद उड़ीसा में ग्राहम स्टेंस और उनके दो बच्चों को बजरंगियों द्वारा जिंदा जला देने पर भी आडवाणीजी का चुप्पी साधे रखना उन्हें याद आ गया हो,
- आडवाणीजी के गृहमंत्री रहते देश के विभिन्न हिस्सों में ननों के साथ हुए बलात्कार को उन्होंने धर्म के खांचे में बांटकर देखने के बजाय स्त्री जाति और मानवता पर हमला मान लिया हो,
- आडवाणीजी की भागीदारी वाली सरकार के दिनों में गुजरात में वहां की सरकार के नेतृत्व में मुसलमानों के नरसंहार का दृश्य उन्हें याद आ गया हो,
- आडवाणीजी की भागीदारी वाली सरकार के दौर में झज्जर में गोहत्या का आरोप लगाकर दलितों की मार देने की घटना एक बार फिर उनके ज़हन को झकझोर गयी हो,
- आडवाणीजी की भागीदारी वाली सरकार के दिनों में ग़रीबों पर हुए अत्याचार के नमूने उनके नज़र में नाच गए हों,
- आडवाणीजी द्वारा भारतीय संविधान की अक्षुण्ण्ता बनाए की सौगंध खाने के बाद अपने देश का नाम हिन्दुस्थान उच्चारित करना उन्हें बिल्कुल नागवार गुज़रा हो,
- आडवाणीजी द्वारा हाल में वरूण गांधी वाले प्रकरण में वरूण को निर्दोष करार दिये जाने से वे क्षुब्ध हों,
- आडवाणीजी द्वारा अचानक बीच चुनाव में काले धन की बात करके असली मुद्दे से जनता को बरगलाना उन्हें न भाया हो क्योंकि पिछले पांच साल जब वे विपक्ष के नेता थे तब उन्होंने एक बार भी इस मसले का संसद के किसी सदन में न ख़ुद उठाया और न ही किसी से उठवाया,
- आडवाणीजी के उस विज़न से उन्हें दिक़्क़त हो जिससे भारत में तानाशाही को बल मिलता हो.
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2.4.09
जब से मेरी आंख खुली है : रवि नागर
रवि नागर जाने-माने समकालीन गीतकार हैं. रचना, गाना, बजाना, झुमाना, सराबोर कर देना: रवि भाई की ख़ासियत है. रहते लखनउ में हैं पर देश का शायद ही कोई हिस्सा बचता हो जहां इनके चाहने वाले न बसते हों. शुरुआत इप्टा के दिनों में ही मुक्तिबोध, कबीर, खुसरो आदि से लगाव हुआ. ऐसा कि उनको गाने लगे. शास्त्रीय संगीत में महारत भी शायद आपने उन्हीं दिनों में हासिल कर ली थी. लखनउ में रहने की वज़ह से काफ़ी कुछ तो विरासत में ही पा गए थे. आजकल जनांदोलनों, साहित्य व लोक संस्कृतियों से उभरी-पगी रचनाओं का शास्त्रीय संगीत के साथ बड़ा दिलचस्प फ़्यूजन कर रहे हैं. पेश है अपने मित्रों के लिए उनका ये गीत जो उन्होंने अपने इलाहाबादी मित्र और बड़े भाई यश मालवीय के घर पर बड़े ही अनौपचारिक माहौल में गाया था.
सफ़र द्वार 14 अप्रैल को बाबा साहब डॉ. भीमराव अंबेडकर जयंती के अवसर पर आयोजित 'अभिव्यक्ति' में इस बार दिल्ली में मित्रों को रवि नागर के गायन का लुत्फ़ उठाने का मौक़ा मिलेगा. विस्तृत जानकारी बाद में पोस्ट कर दी जाएगी. फिलहाल आनंद लें.
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सफ़र द्वार 14 अप्रैल को बाबा साहब डॉ. भीमराव अंबेडकर जयंती के अवसर पर आयोजित 'अभिव्यक्ति' में इस बार दिल्ली में मित्रों को रवि नागर के गायन का लुत्फ़ उठाने का मौक़ा मिलेगा. विस्तृत जानकारी बाद में पोस्ट कर दी जाएगी. फिलहाल आनंद लें.
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