29.11.07

हलद्वानी यात्रा: चौथी किस्त

गजरौला में गरम चाय

गजरौला. नाम जाना-पहचाना था. 1992 के आसपास शहर के किसी कॉन्वेंट में दो इसाई ननों के साथ बलात्कार हुआ था. पहली बार तब सुना था इस शहर का नाम. बलात्कार-पीडिता ननें जब नजदीकी थाने में रपट दर्ज करवाने गयी थीं तब पुलिस वालों ने उनके साथ कोई बढिया सलूक नहीं किया था. जगह-जगह धरने-प्रदर्शन हुए थे उस कांड के विरोध में. मेरे ख़याल से 15 साल पहले हुई उस घटना से बजरंगियों की बड़ी हिम्मतअफ़ज़ाई हुई थी. ऐसी कि बाद के सालों में इसाई मिशनरियों के खिलाफ़ हिंसा का एक दौर ही शुरू हो गया था. ननों को ख़ास निशाना बनाया जाने लगा. मध्‍यप्रदेश, राजस्थान, गुजरात तथा उड़ीसा में मिशनरियों के खिलाफ़ ऐसी हिंसा की गिनती की जाए तो फ़ेहरिस्त लंबी हो जाएगी. गजरौला चौधरी महेन्द्र सिंह टिकैत वाले भारतीय किसान युनियन की गतिविधियों का केंद्र भी रहा है.

तो मित्रों, पीछे एक बार कहीं सुनसान जगह पर सड़क किनारे लघुशंका निबटान के लिए चंद मिनटों के यात्रा-विराम के बाद यह हमारा अगला पड़ाव था. तलब चाय की जगी थी और शायद हमारे पेट ने भूख की दस्तक भी दे दी थी. गजरौला के किसी पंजाबी होटल में उसी सिलसिले में रुकना हुआ था. हल्का-फुल्का हो लेने के बाद ख़ुद-ब-ख़ुद हमारे क़दम बरामदे में सजे प्लास्टिक की मेज़ और कुर्सियों की तरफ़ चल पड़े थे.

रामप्रकाशजी और मैं होटल के जिम्मेदार जैसे लग रहे किसी सरदारजी के पास पहुंचे. पूछा, क्या-क्या है नाश्‍ते में?’ शायद नया जाना उसने हमें. थे भी हम. कहा, आप बैठ जाओ, वहीं चला जाएगा लड़का. मेज़ की तरफ़ आते हुए रामप्रकाशजी ने एक कुर्सी बग़ल से अपनी ओर खींच ली. ज़रूरत थी. हम कुल छह जने थे और कुर्सी केवल चार. हालांकि बाद में एक कुर्सी और सरकायी गयी अपनी तरफ़, पर संजय भाई ने विनम्रतापूर्वक बैठने से इंकार कर दिया.

इक्के-दुक्के अपवादों को छोड़कर, मैंने हमेशा ये नोट किया है कि महिलाएं हमेशा अपना पर्श अपने साथ रखती हैं. और जिन्हें वो पर्श कहती हैं, उसमें पुरुषों के दर्जन भर पर्श रख देने के बाद भी शायद कुछ जगह और खाली रह जाए. मधुजी ने अपना पर्श कंधे से उतारकर अपनी गोद में या फिर कुर्सी के पीछे रख दिया था. विधिजी का वैसा ही पर्श बग़ल की कुर्सी पर था. साथ में एक थैला और था. बिल्कुल वैसा ही जैसा मेरी मां बाज़ार जाते हुए अपने कंधे पर टांग लेती हैं, और पिताजी जब मुज़फ़्फ़रपुर से गांव जाते हैं तब उसमें लुंगी, अंगोछे और गंजी (बनियान) के अलावा मां द्वारा दिया गया रात के भोजन का डिब्बा भी रख लेते हैं.

बैरा आकर नाश्‍ते के आयटम बता चुका था. हमारी टोली ने आयटमों की लिस्ट सुन लेने के बाद लगभग संवेत स्वर में कहा था, चाय ले आओ, छह चाय. मधुजी ने कहा, भइया, एक चाय बिल्कुल कड़क. पत्ती ज़्यादा डालना. मैंने उस ऑर्डर में थोड़ा सुधार किया, छह नहीं, पांच. और अपनी टोलीवालों को बताया, मैं नहीं पीता चाय. बग़ल में मधुजी बैठी थीं. अचरच से पूछा, राकेशजी आप चाय नहीं पीते हैं? कॉफ़ी मंगा लेते हैं हम आपके लिए. मुझसे कॉफ़ी भी नहीं पीता सुनने के बाद तो उनके चेहरे पर हैरत आती ही रही. ऑर्डर वाला निहायत ज़रूरी काम होते ही विधिजी ने वही थैला खोला जो मेरे लिए रहस्य था. महिलाएं दो और पर्श तीन! गुडडे बिस्कुट के रूप में रहस्य का पर्दा थोड़ा सरका. प्रदीपजी के हाथों घुमता हुआ वो पैकेट मेरी तरफ़ भी आया. दो निकाला, आगे सरका दिया. विधिजी ने कोई दूसरा डिब्बा निकाला. बिस्कुट का ही था. अब विधिजी ने रोल किए फ़ायल निकालकर रखना शुरू कर दिया मेज़ पर. पराठे निकलने लगे उनमें से. मेज पर जब खुले फ़ॉयल पर पराठे रखे जाने लगे तो उसमें से भाप निकल रहे थे. गर्म ही थे. विधिजी की इंतजामिया की दाद देता हूं.

अब बिस्कुट नहीं हाथों में पराठे थे. मुंह कतराई में व्यस्त हो गये. चंद सेकेण्‍ड पहले मुहं से आ रही कर्र ... कर्र ... ध्‍वनि की जगह अब चपड़-चपड़ के स्वर आने लगे. मधुजी ने अंचार की फ़रमाइश की. बार-बार गर्दन मोड़कर, लमाड़ कर कभी प्रदीपजी, तो कभी रामप्रकाशजी तो कभी मैं उस फ़रमाइश को आगे पहुंचाता रहा. पर शायद यहां आप भी हमसे सहमत होंगे कि बहुत सारी चीज़ों को सुनकर आप अगर छोटी-से-छोटी चीज़ का ऑर्डर प्लेस करते हैं तो आपका नंबर बाद में आता है. और अगर उपर से किसी एक्सट्रा आयटम की फ़रमाइश जिसकी क़ीमत अकसर न मांगी जाती हो, तो समझिए कि एहसान टाइप सोचकर ही दुकानदार पूरी करता है. अंचार देकर बैरे ने जल्दी ही एहसान कर दिया. चाय अब भी आनी थी. जब आयी तो मधुजी ने यह कहकर कि कड़क नहीं है, वापस ले जाओ और पत्ती और डालकर लाओ वापस कर दिया. नतीजा हुआ कि मधुजी को चाय तब मिली जब बाक़ी लोगों की चाय गिलास की पेंदी छूने लगी थी. उधर विधिजी एक के बाद एक फ़ॉयल में लिपटे पराठे निकालती रहीं. होटल वाले ने तो यही सोचा होगा न कि अगर पराठे लेकर लोग ऐसे ही आते रहे तो वह तो केवल अंचार की सप्लाई और चाय ही बेच पाएगा. मेरे ख़याल कम-से-कम इतना तो ज़रूर सोचा होगा उसने.

गीले अंचार के साथ पराठे का भोग और चाय से पर्याप्त गरमाहट ले लेने के बाद हमने अपने आप को गाड़ी में डाल दिया. संजय भाई के पैर और हाथ एक्‍सलेटर और स्टीयरिंग पर टिक चुके थे. गाड़ी अगले पड़ाव की तरफ़ चल पड़ी. संजय भाई ने डैशबोर्ड से लगे सीडी प्लेयर का कोई बटन दबा दिया था. प्यार करने वाले कभी डरते नहीं, जो डरते हैं वो प्‍यार करते नहीं ....

क्रमश:

हलद्वानी यात्रा: चौथी किस्त

गजरौला में गरम चाय

गजरौला. नाम जाना-पहचाना था. 1992 के आसपास शहर के किसी कॉन्वेंट में दो इसाई ननों के साथ बलात्कार हुआ था. पहली बार तब सुना था इस शहर का नाम. बलात्कार-पीडिता ननें जब नजदीकी थाने में रपट दर्ज करवाने गयी थीं तब पुलिस वालों ने उनके साथ कोई बढिया सलूक नहीं किया था. जगह-जगह धरने-प्रदर्शन हुए थे उस कांड के विरोध में. मेरे ख़याल से 15 साल पहले हुई उस घटना से बजरंगियों की बड़ी हिम्मतअफ़ज़ाई हुई थी. ऐसी कि बाद के सालों में इसाई मिशनरियों के खिलाफ़ हिंसा का एक दौर ही शुरू हो गया था. ननों को ख़ास निशाना बनाया जाने लगा. मध्‍यप्रदेश, राजस्थान, गुजरात तथा उड़ीसा में मिशनरियों के खिलाफ़ ऐसी हिंसा की गिनती की जाए तो फ़ेहरिस्त लंबी हो जाएगी. गजरौला चौधरी महेन्द्र सिंह टिकैत वाले भारतीय किसान युनियन की गतिविधियों का केंद्र भी रहा है.

तो मित्रों, पीछे एक बार कहीं सुनसान जगह पर सड़क किनारे लघुशंका निबटान के लिए चंद मिनटों के यात्रा-विराम के बाद यह हमारा अगला पड़ाव था. तलब चाय की जगी थी और शायद हमारे पेट ने भूख की दस्तक भी दे दी थी. गजरौला के किसी पंजाबी होटल में उसी सिलसिले में रुकना हुआ था. हल्का-फुल्का हो लेने के बाद ख़ुद-ब-ख़ुद हमारे क़दम बरामदे में सजे प्लास्टिक की मेज़ और कुर्सियों की तरफ़ चल पड़े थे.

रामप्रकाशजी और मैं होटल के जिम्मेदार जैसे लग रहे किसी सरदारजी के पास पहुंचे. पूछा, क्या-क्या है नाश्‍ते में?’ शायद नया जाना उसने हमें. थे भी हम. कहा, आप बैठ जाओ, वहीं चला जाएगा लड़का. मेज़ की तरफ़ आते हुए रामप्रकाशजी ने एक कुर्सी बग़ल से अपनी ओर खींच ली. ज़रूरत थी. हम कुल छह जने थे और कुर्सी केवल चार. हालांकि बाद में एक कुर्सी और सरकायी गयी अपनी तरफ़, पर संजय भाई ने विनम्रतापूर्वक बैठने से इंकार कर दिया.

इक्के-दुक्के अपवादों को छोड़कर, मैंने हमेशा ये नोट किया है कि महिलाएं हमेशा अपना पर्श अपने साथ रखती हैं. और जिन्हें वो पर्श कहती हैं, उसमें पुरुषों के दर्जन भर पर्श रख देने के बाद भी शायद कुछ जगह और खाली रह जाए. मधुजी ने अपना पर्श कंधे से उतारकर अपनी गोद में या फिर कुर्सी के पीछे रख दिया था. विधिजी का वैसा ही पर्श बग़ल की कुर्सी पर था. साथ में एक थैला और था. बिल्कुल वैसा ही जैसा मेरी मां बाज़ार जाते हुए अपने कंधे पर टांग लेती हैं, और पिताजी जब मुज़फ़्फ़रपुर से गांव जाते हैं तब उसमें लुंगी, अंगोछे और गंजी (बनियान) के अलावा मां द्वारा दिया गया रात के भोजन का डिब्बा भी रख लेते हैं.

बैरा आकर नाश्‍ते के आयटम बता चुका था. हमारी टोली ने आयटमों की लिस्ट सुन लेने के बाद लगभग संवेत स्वर में कहा था, चाय ले आओ, छह चाय. मधुजी ने कहा, भइया, एक चाय बिल्कुल कड़क. पत्ती ज़्यादा डालना. मैंने उस ऑर्डर में थोड़ा सुधार किया, छह नहीं, पांच. और अपनी टोलीवालों को बताया, मैं नहीं पीता चाय. बग़ल में मधुजी बैठी थीं. अचरच से पूछा, राकेशजी आप चाय नहीं पीते हैं? कॉफ़ी मंगा लेते हैं हम आपके लिए. मुझसे कॉफ़ी भी नहीं पीता सुनने के बाद तो उनके चेहरे पर हैरत आती ही रही. ऑर्डर वाला निहायत ज़रूरी काम होते ही विधिजी ने वही थैला खोला जो मेरे लिए रहस्य था. महिलाएं दो और पर्श तीन! गुडडे बिस्कुट के रूप में रहस्य का पर्दा थोड़ा सरका. प्रदीपजी के हाथों घुमता हुआ वो पैकेट मेरी तरफ़ भी आया. दो निकाला, आगे सरका दिया. विधिजी ने कोई दूसरा डिब्बा निकाला. बिस्कुट का ही था. अब विधिजी ने रोल किए फ़ायल निकालकर रखना शुरू कर दिया मेज़ पर. पराठे निकलने लगे उनमें से. मेज पर जब खुले फ़ॉयल पर पराठे रखे जाने लगे तो उसमें से भाप निकल रहे थे. गर्म ही थे. विधिजी की इंतजामिया की दाद देता हूं.

अब बिस्कुट नहीं हाथों में पराठे थे. मुंह कतराई में व्यस्त हो गये. चंद सेकेण्‍ड पहले मुहं से आ रही कर्र ... कर्र ... ध्‍वनि की जगह अब चपड़-चपड़ के स्वर आने लगे. मधुजी ने अंचार की फ़रमाइश की. बार-बार गर्दन मोड़कर, लमाड़ कर कभी प्रदीपजी, तो कभी रामप्रकाशजी तो कभी मैं उस फ़रमाइश को आगे पहुंचाता रहा. पर शायद यहां आप भी हमसे सहमत होंगे कि बहुत सारी चीज़ों को सुनकर आप अगर छोटी-से-छोटी चीज़ का ऑर्डर प्लेस करते हैं तो आपका नंबर बाद में आता है. और अगर उपर से किसी एक्सट्रा आयटम की फ़रमाइश जिसकी क़ीमत अकसर न मांगी जाती हो, तो समझिए कि एहसान टाइप सोचकर ही दुकानदार पूरी करता है. अंचार देकर बैरे ने जल्दी ही एहसान कर दिया. चाय अब भी आनी थी. जब आयी तो मधुजी ने यह कहकर कि कड़क नहीं है, वापस ले जाओ और पत्ती और डालकर लाओ वापस कर दिया. नतीजा हुआ कि मधुजी को चाय तब मिली जब बाक़ी लोगों की चाय गिलास की पेंदी छूने लगी थी. उधर विधिजी एक के बाद एक फ़ॉयल में लिपटे पराठे निकालती रहीं. होटल वाले ने तो यही सोचा होगा न कि अगर पराठे लेकर लोग ऐसे ही आते रहे तो वह तो केवल अंचार की सप्लाई और चाय ही बेच पाएगा. मेरे ख़याल कम-से-कम इतना तो ज़रूर सोचा होगा उसने.

गीले अंचार के साथ पराठे का भोग और चाय से पर्याप्त गरमाहट ले लेने के बाद हमने अपने आप को गाड़ी में डाल दिया. संजय भाई के पैर और हाथ एक्‍सलेटर और स्टीयरिंग पर टिक चुके थे. गाड़ी अगले पड़ाव की तरफ़ चल पड़ी. संजय भाई ने डैशबोर्ड से लगे सीडी प्लेयर का कोई बटन दबा दिया था. प्यार करने वाले कभी डरते नहीं, जो डरते हैं वो प्‍यार करते नहीं ....

क्रमश:

28.11.07

हलद्वानी यात्रा: तीसरी किस्त

धीरे चलाएं गाड़ी, झटका लगता है

गाड़ी पता नहीं कौन-सी थी. शायद लग्ज़री में गिनती होती है उसकी. पर सच कहूं तो पुराने एम्बेस्डर में पीछे बैठने में जो आनंद है वो इस लग्ज़री गाड़ी में नहीं थी. हो सकता है गाडि़यों के मेरे उथले तजुर्बे के कारण मेरे आनंद में कमी रह गयी हो. किसी ज़माने में पिताजी के पास एक महिन्द्रा जीप हुआ करती थी. याद है एक बार वे गर्मी की छुट्टियों में दीदी, माई, राजा, शंभु भैया और मुझे बिठाकर मुज़फ़्फ़रपुर ले गए थे शॉपिंग कराने. बड़ा आनंद आया था. उसके बाद तो छोटे वाहनों पर सवारी करने का मौक़ा बहुत दिनों तक नहीं मिला. दसवीं की परीक्षा के बाद दो-एक बारात में ज़रूर जीप पर लदना पड़ा. लंबे समय तक फ़ोर व्हीलर टाइप से कोई ख़ास संबंध नहीं रहा. साल भर पहले शीतल को 38 साल से दिल्ली विश्‍वविद्यालय को अपनी सेवा दे रहे पिता के सौजन्य से एक वेगन आर का स्वामित्व मिला. सम‍झिए कि बंदे का फ़ोर-व्हीलर सेंस थोड़ा-थोड़ा डेवेलप होने लगा. तो कह रहा था कि हलद्वानी ले जानी वाली गाड़ी लग्ज़री श्रेणी की होने की बावजूद उतना आनंद नहीं दे पा रही थी जितना शीतल की वेगनआर या हमारी कॉलोनी की गेट पर वाले टैक्‍सी स्टैंड की पीली और हरी पट्टी वाली काली एम्बेस्‍डर देती है. उत्तर प्रदेश में प्रवेश पर जब सिंचाई विभाग, उत्तरप्रदेश सरकार वालों की ओर से स्वागत हुआ गाजियाबाद के क़रीब तब तक दो या तीन मर्तबा टांगों को इधर-उधर कर चुका था. प्रदीपजी ने शायद मेरी स्थिति भांपते हुए कहा भी था कि सीट आरामदायक़ नहीं है. रह-रह कर पैरों और पीठ की हरकतें होती रही. देसी लहज़े में कहें तो हम कछमछाते रहे. उधर लगभग 2 घंटे से लगातार बातचीत के कारण शायद हमारे मुंह थकने लगे थे. हालांकि प्रदीपजी और रामप्रकाशजी रह-रह कर शुरू हो जाते थे. कॉलेज और कॉलेज की समस्याएं उनकी बातचीत की धूरी थी. जैसे ही वृहद दायरे से उनका संपर्क टूटता, वे आपस में जुड़ जाते. पीछे बैठी मधु और विधिजी भी आपस में बातचीत करती थीं. पर लगातार नहीं और अंदाज़ फुसफुसाहट वाला. जानने के लिए कि क्या खिचड़ी पक रही है उनके बीच, कानों को ‘परेड सावधान, दोनों के दोनों केवल पीछे सुनो’ का कमांड देना पड़ता था. मुझे यह क़बूलने में कोई गुरेज़ नहीं है कि मेरे दोनों के दोनों कान एक साथ कई दिशाओं की हरकतों को सुनते हैं या यों कहें कि कई दफ़े सूंधते है. जी के अलावा मेरे शरीर का सबसे ग़ैर-अनुशासित और उद्दंड अंग मुए ये कान ही हैं. ऐसे चतुर-सुजान हैं कि आंख को भी कई बार अपनी गतिविधि में शामिल कर लेते हैं. और जब दोनों हाइपर ऐक्टिव हो जाएं तो समझिए कि बंदा बुरा फंसने वाला है. पर हलद्वानी जाते वक़्त ऐसा कुछ नहीं हुआ. ‘कानी-कार्रवाई’ के अनुसार उनकी बातचीत का बड़ा हिस्सा पिछले दिन उनके कॉलेज-गेट के नजदीक हुआ हादसा था. हुआ ये कि कॉलेज की दो छात्राएं गेट के पास सड़क पर चल रही थीं. पीछे से एक स्कूटर सवार आया और उनके बीच से निकाल ले गया, जिससे लड़कियां दूर जाकर गिरीं. जब तक संभल पातीं उससे पहले ही पीछे से आती ब्लू लाइन ने एक को रौंद दिया. तत्काल मौत हो गयी. बी ए ऑनर्स (सोशल वर्क) फ़र्स्ट इयर की छात्रा थी. उस हादसे के बाद कॉलेज की छात्राएं उग्र हो गयीं. सड़क जाम और तमाम तरह की गतिविधियां शुरू हो गयीं. मधुजी के मुताबिक़ ‘मुझे चिंता ये हो रही थी कि बच्चे समय से अपने-अपने घर चले जाएं. क्योंकि पुलिसवाले बच्चों को ही उल्टा डांट रहे थे.’ मधुजी और विधिजी इस चक्कर में 19 नवंबर को देर शाम तक कॉलेज में रूकी रहीं. बहुत थक गयी थीं. और आज हमारे साथ चल रही थीं उत्तराखंड मुक्त विश्‍वविद्यालय के बुलावे पर ‘पत्रकारिता और जनसंचार’ का पाठ्यक्रम तय करने. तीन बजे भोर में ही उठ गयी थीं. मेरे पैरों और पीठ की हरकतें तो होती ही रहीं. रामप्रकाशजी पीछे मुड़-मुड़ कर बतियाते रहे. इस बीच पीछे-से आवाज़ आयी, ‘बोलिए, धीरे चलाएं गाड़ी. झटका लगता है.’ ये व्यथा विधिजी की थी. 110-120 किलोमीटर की रफ़्तार से जब गाड़ी चल रही हो, और वो भी हेमामालिनी की गाल पर, अचानक ओमपुरी वाली पर आते ही अनुभव तो बदल ही जाएगा. तत्काल ब्रेक लगाया गया तो झटके भी लगेंगे. एक-आध बार तो मेरी आंतें भी हिल गयी थीं. हेमामालिनी की गाल का संदर्भ स्पष्ट कर देना मुनासिब लग रहा है नहीं तो दुनिया को जो सोचना होगा वो तो सोचेगी ही, बीवी अलग से सफ़ाई मांगेगी. ग़रज ये कि मुख्‍यमंत्री बनते ही 1989-90 में लालू प्रसाद यादव ने बिहार की सड़कों को हेमामालिनी की गाल जैसी चिकनी बना देने का वायदा किया था. उनके शासन के दो-एक बरस गुज़र जाने के बाद विरोधियों ने आरोप लगाना शुरू किया कि कहां हे‍मा‍मालिनी का गाल बना रहे थे प्रदेश की सड़कों को, ओमपुरी वाला बना कर छोड़ दी. हलद्वानी के रास्ते में ज़्यादातर सड़कें ये एहसास करा रही थीं कि अगर लालूजी वादाखिलाफ़ी नहीं करते तो शायद वहां भी ऐसी सड़कें होतीं.
क्रमश:

25.11.07

हलद्वानी यात्रा: दूसरी किस्त

उंची-उंची इरामतें, लंबी-चौड़ी सड़कें, चींटियों की तरह ससरती ट्रैफिक, हरदम वक़्त से जीने की पनाह मांगते मशीननुमा जीवन, ज़रूरत के मुताबिक़ हंसते और रोते चेहरों वाले मास्क के साथ गिरगिटिया पल जब तमाम स्वाभा‍विकताओं को चाट जाने पर आमादा होती हैं, महानगर से दूर किसी भी तरफ़ निकल पड़ने से बड़ा सुकून मिलता है. तब तो और भी जब यात्रा अपनों के साथ हो रही हो. अपनो यानी विचार और दृष्टि जहां अपनापा वाला हो.

रामप्रकाशजी सबसे पुराने परिचित हैं. उन्होंने जाते वक़्त याद दिलाया कि एक बार हिन्दु कॉलेज में मैं उनकी क्लास में वोट मांगने गया था. तब उन्होंने मेरे विचार सुने और उन्हें लगा कि बन्‍दे में दम है. मैं 1996 और 1999 में दिल्‍ली विश्‍वविद्यालय छात्र संघ के सचिव और अध्‍यक्ष का प्रत्याशी रहा हूं. रामप्रकाशजी ने जिस घटना का उल्‍लेख किया, शायद वो 1999 की हो. क्योंकि तब पैनल के नेतृत्व की जिम्मेदारी थी. बहरहाल, बात ये कि रामप्रकाशजी को कम से कम 1999 से तो ज़रूर जानता होउंगा. पर दोस्ती बनी क़रीब 2-3 साल पहले. सराय आए थे अपने किसी मित्र के साथ. पता चला पहले भी मिलते रहे हैं हम. बुनियाद पड़ गयी दोस्ती की. मुलाक़ात-दर-मुलाक़ात गहरी होती गयी. प्रदीपजी से दोस्ती भी लगभग इतनी ही पुरानी है. याद नहीं आ रहा कि पहले से जान-पहचान थी कि नहीं. हालांकि छात्र-जीवन में दोनों की कर्मस्थली एक ही रही है: दिल्ली विश्‍वविद्यालय, ख़ासकर आर्ट् फ़ैकल्टी. सफ़र शुरू होने के बाद बातचीत ज़्यादा होने लग है. मधुजी से पहली मुलाक़ात इसी साल शुरुआत में हुई थी. मीडिया पर उनके कॉलेज (अदिति महाविद्यालय) में कोई वर्कशॉप थी. मैं उसमें कुछ बोलने के लिए बुलाया गया था. दोस्तों को लगता है बन्‍दा धेले से ज़्यादा गुणी और ज्ञानी है. जहां-तहां नाम धुसेड़वा देते हैं. बन्‍दा ज्ञान का छिड़काव कर आता है! अदिति कॉलेज में पिछली मर्तबा जब गया था तब मधुजी पहली मर्तबा मिली थीं. दूसरी मर्तबा तो हम सहयात्री ही बने. ज़्यादा ही विनम्र हैं. पर समय रहते थोड़ी-बहुत चुटकी ले लेती हैं. अच्छा लगा हमसफ़र बनना. विधिजी से कुल दो मुलाक़ातें दर्ज हैं अपने पास. दोनों ही नवम्बर 2007 की. पहली 4 को दिल्ली विश्‍वविद्यालय में मीडिया लेखन वर्कशॉप के दूसरे दिन. दूसरे में तो हम साथ चल ही रहे थे. सबसे नयी जान-पहचान विधिजी से ही है. टॉ‍फ़ी, चिप्स, बिस्कुट जैसे ललचाउ सामानों का उनके पास ठीक-ठाक स्‍टॉक होता है. किलकारी को नहीं बताउंगा.

पर चारों ही मित्रों में बहुत सारी समानताएं दिखीं. सारी नहीं बताउंगा. एक जान लीजिए. सब के सब स्व से उपर उठकर सोचते हैं. कुछ करना चाहते हैं. अब ये भी नहीं कि कोई चैरिटीनुमा काम! अपने आसपास के प्रति सोचते हैं और हालात की बेहतरी के लिए कुछ-कुछ करते रहते हैं. तो अपने जैसे लोगों का एक संक्षिप्त परिचय ज़रूरी लग रहा था. इससे फ़ायदा ये होगा कि अगली मर्तबा हमारे इस दायरे में शायद कुछ और लोग आएं.

दिल्ली छूटी तो बातचीत के विषय भी बदल गए. कुछ देर के लिए कर्नाटक हमारी बातचीत का केन्द्र बन गया. दक्षिण में दक्षिणपंथियों की ओर से येदुयेरप्पा नामक विधायक मुख्‍यमंत्री का शपथ तो तीन-चार पहले ले लिया था. तस्वीर भी छपी थी अख़बार में, जिसमें नए-नए कपड़ों में सजे-धजे उनके रिश्‍तेदार और रिश्‍तेदारों के छोटे-छोटे बच्चे बड़े चहक रहे थे. पर जब एग्रीमेंट के मुताबिक़ जनता दल सेकुलर की बारी आयी विधानसभा में मुख्‍यमंत्री के प्रति विश्‍वास व्यक्त करने की, वोटों के द्वारा, तब सेकुलरों ने पलटी मार दी. बहुत से लोगों ने बहुत कुछ बोला. देश भर में बोला, टेलीविज़न पर बोला, टेलीविज़न तो बोलता ही रहा. सबसे ज़्यादा कर्नाटक के पालिटिशियन्स ने बोला, उसमें भी संघ द्वारा पैदा किए गए भाजपा के छोटे-बड़े नेताओं ने. किसी ने कहा, पीठ में छूरा भोंक दिया देवेगौड़ा ने, तो किसी ने कहा ठीक हुआ नहीं तो कर्नाटक दक्षिण भारत में संघियों की पहली ऑफिसियल प्रयोगशाला के पथ पर अग्रसर हो जाता. हम कैसे चुप रहते! पर हमने बोला कम, हंसी हमें ज़्यादा आयी. हम ज़्यादा हंसे. रामप्रकाशजी के पास वन लाइनर्स का खजाना है. बढिया गढते हैं. कोई बात आयी नहीं, उनका वन लाइनर आ जाता है. वैसे हमने ज़बानी तौर पर उनके इस योगदान का शुक्रिया उसी वक़्त अदा कर दिया था जब हमने उनको उनके घर के पास छोड़ा था. मधुजी ने साफ़ शब्दों में कहा था, थैंकयू रामप्रकाशजी. आपने हमारा बड़ा इंटरटेनमेंट किया. तो हमारे रामप्रकाशजी ने एक से बढकर एक वनलाइनर्स दागी कर्नाटक, संघ और देवेगौड़ाजी पर. ख़ूबसूरत और मारक.

क्रमश:

हलद्वानी यात्रा: पहली किस्त

साढ़े पांच बजे भोर में स्नान ...


34 की दहलीज़ पर हूं. याद नहीं पिछली बार साढे पांच भोर में कब नहाया था. नहाया भी होउंगा तो पिताजी ने कोई दंड दिया होगा या फिर छठ के भोरवा अरघ की धार्मिक महत्ता के दवाब में.

सोमार को ही डॉ. अम्‍बेडकर कॉलेज वाले प्रदीपजी ने चेता दिया था, कि साढे पांच बजे गाड़ी तिमारपुर में आपकी कॉलोनी के बाहर जूस वाली दुकान पर खड़ी हो जाएगी. आप तैयार रहिएगा. मतलब साफ़ था अल्‍लसुबह दिव्‍य निपटान समेत तमाम निपटानोपरान्‍त मुझे बताए गए समय पर जूस की दुकान पर हाजिर हो जाना था. पहले भी एक आध मौक़ों पर मैं बता चुका हूं कि जो वक़्त मेरे जूस की दुकान पर पहुंच जाने के लिए मुक़र्रर किया गया था उस वक़्त पर आज तक इक्के-दुक्के मौक़ों पर जबरिया जगने के अलावा तो सोना ही मुझे प्यारा लगता है. मित्रवत आदेश कहिए या उससे भी ज़्यादा हमारे असाइमेंट की मांग, कोई और चारा नहीं था. उठ गया 5.20 पर. पानी गर्म करने का ब्यौंत करके निपटने चला गया. उसके बाद ब्रश से जल्दी-जल्दी दांतों की रगड़ाई. और फिर नहाया. इस बीच प्रदीपजी का दोबारा फ़ोन आ गया गाड़ी मदर डेयरी पर खड़ी है. हम वहीं हैं. पहला फ़ोन मेरे जगने के एक-आध मिनट बाद ही आ चुका था. ख़ैर मैंने प्रदीपजी को तसल्ली दिलाते हुए कहा, बस नहा लिया, आ रहा हूं दो मिनट में. झटपट बैग में एक जोड़ी कपड़े ठूंसा. और स्वेटर कंधे पर रखते हुए बीवी को जगाया, दरवाज़ा बंद कर लो, निकल पड़ा तेज़ कदमों से.

निर्धारित जगह से कुछ क़दम आगे गाड़ी खड़ी थी. प्रदीपजी चहलक़दमी कर रहे थे. पिछली सीट पर मधुजी और विधिजी बैठी थी. मैं सलाम-नमस्ते टाइप की औपचारिकताओं को निपटाते हुए बीच वाली सीट यानी ड्राइवर सीट के पीछे वाले पर बाएं से बैठ गया. प्रदीपजी पहले से ही दाएं जमे थे. गाड़ी चल पड़ी. प्रदीपजी ने जेब से फ़ोन निकाल लिया, हां रामप्रकाशजी ... तिमारपुर से गाड़ी निकल पड़ी है. मैक्सिमम 15 मिनट में गांधीनगर पहुंच जाएगी. मेरी निगाह स्टीयरिंग के नीचे वाहन की गति की सूचना देने वाले गोले पर पड़ी. 120 से उपर-नीचे होते कांटे को देखकर मन ही मन प्रदीपजी की बात को सुधारा, इस रफ़्तार से चली तो दस मिनट भी ज़्यादा होगा पहुंचने के लिए.

प्रदीपजी कुछ-कुछ बताते रहे हलद्वानी-यात्रा के प्रयोजन के बारे में. इससे पहले उन्होंने फ़ोन पर ही एक-दो बार अतिसंक्षिप्त जानकारी दी कि उत्तराखंड ओपन युनिवर्सिटी में मीडिया कोर्स शुरू होने वाला है और उसी से मुताल्लिक किसी मीटिंग के लिए हमें कभी वहां जाना भी पड़ सकता है. तो प्रदीपजी बता रहे थे कि एक खाका तो बना लिया है उन्होंने रामप्रकाशजी के साथ मिल कर. ये भी बताया उन्होंने कि विश्‍वविद्यालय कितना लाचार है, उसकी न इसी है न एसी. बड़ा झंझट है. बहुत दिनों से वाइस चांसलर कह रहे हैं इस काम को निपटा लेने के लिए ताकि जल्दी से जल्दी पाठ्यक्रम चालू हो सके.

अब हम गांधीनगर मार्केट पहुंच चुके थे. किसी ज़माने में गांधीनगर रेडिमेंट गारमेंट्स के मामले में एशिया का नम्‍बर वन बाज़ार माना जाता था. रूमाल से लेकर बड़े-बड़े जैकेट तक, डिज़ाइन, आकार-प्रकार, क़ीमत, इत्यादि संबंधी वैविध्‍य से परिपूर्ण. दिलचस्प ये कि ख़ूब ही सस्ता! पहली दफ़ा इसी सस्ते के चक्कर में गया था 1993 में. मुझ जैसे एक-दो पीस के ख़रीदारों के लिए सस्ता अर्थहीन निकला. दुसरी बार शायद 1996 में गया था. पिंकी मुज़फ़्फ़रपुर से आ रही थी. माताजी ने किसी को कहकर रेल में उसकी सीट के नीचे आम का एक कार्टन रखवा दिया था और पिंकी से कहा था कि राजू ले लेगा स्टेशन से. पर पिंकी के बिदा हो जाने के बाद माताजी ने मुझसे संपर्क करने की बहुत कोशिशें कीं. असफल रहीं. तीन-चार दिनों बाद जब मैंने उनसे संपर्क किया तब उन्होंने मुझे एक नंबर दिया और बताया आम भेज दिया है. दिल्ली विश्‍वविद्यालय में अपने महान क्रांतिकारी कामों के चक्कर में दो दिन तक संपर्क भी नहीं कर पाया. तीसरे दिन जब नंबर मिलाया तब पता चला आम गांधीनगर पहुंच चुका है. दूसरी तरफ़ से सज्जन ने गली और मकान नंबर बताया और कहा कि 4 बजे के बाद मैं बताए गए पते पहुंच जाउं. लोहे के पुल से यमुना पार करके पहुंचा. पिंकी के नाना जो मुज़फ़्फ़रपुर में हमारे पड़ोस में शादी से पहले तक रहने वाली लड़की टिंकु और उससे छोटी-बड़ी चार-पांच और बहनों के भी नाना हैं, जिनके अपने शहर में रहते एक-आध दीदार मैं कर चुका हूं, वहां मिल गए. पिंकी उसी के साथ आयी थी. पिंकी का पति जो अब उसे छोड़ी चुका है, तब किसी नर्सिंग होम में कम्‍पाउंडरी करता था. वो भी मिला. किसी बच्चे ने अंदर के कमरे से एक कार्टन को घसीटता मेरे सामने पेश किया. कार्टन के निचले हिस्से में आम के बह जाने की वजह से कुछ सीलन आ गयी थी. उस फ़कीरी के दौर में सत्तर रुपए लिए थे ऑटो वाले ने नेहरु विहार तक आम समेत मुझे पहुंचाने के. दबा कर खाया था पीएसयू के साथियों ने. बेहिसाब खा लेने की वजह से कमलेशजी का तो पेट ही ख़राब हो गया था.

गांधीनगर तीसरी बार रामप्रकाशजी को लेने गए दल का सदस्य बनकर पहुंचा था 20 नवम्बर की सुबह. प्रदीपजी बार-बार फ़ोन मिला रहे थे, पर मिल नहीं रह था. मैं गाड़ी से उतरकर बिजली और टेलीफ़ोन के खंभों पर टंगे बैनर्स निहारने लगा था. एक बैनर किसी बंगाली पाशा तांत्रिक का था. सफ़ेद कपड़े पर छपे अक्षर मिर्गी से शर्तिया मुक्ति का दावा कर रहे थे. बायीं ओर दुकानों के फ़र्श को देखकर लग रहा था जैसे वहां गोश्‍त और मछलियां बिकती हैं. रामप्रकाशजी से पूछुंगा. कुछेक मिनट बाद प्रदीपजी की उनसे बात हो गयी. उन्होंने बताया था कि गाड़ी मोड़कर उपर वाली सड़क पर ले आयी जाए, वे सीधे वहीं पहुंचेंगे. दुसरे ही मिनट गाड़ी बताये स्थान पर जा लगाई संजय भाई ने. रामप्रकाशजी सफ़ेद चेक वाली कमीज़ और शायद जिंस की पैंट पहने दायें हाथ में अटैची थामे चले आ रहे थे. उन्होंने हमसे (प्रदीपजी और राकेश से) आत्मीय हाथमिलाई और पिछली सीट बैठी मित्रों मधुजी और विधिजी से दुआ-सलाम की. संजय भाई ने उनकी अटैची को पिछली सीट के पीछे अन्य सामानों के साथ टिकाया. प्रदीपजी ने इशारा करते हुए कहा, रामप्रकाशजी आप आगे बैठें और हमारा नेतृत्व करें.

संजय भाई स्टीयरिंग थाम चुके थे. हम पुश्‍ता पार कर रहे थे. सड़क पर गाडियों की संख्‍या बढ़ने लगी थी. हमारी बातचीत में दिल्ली शहर की सड़क की बढ़ती ट्रैफिक, कॉमन वेल्‍थ गेम और इसके साथ दिल्ली को ख़ूब सुंदर बनाने की अभिजात क़वायद, अक्षरधाम, इंद्रप्रस्थ पार्क ... जैसे सार्वजनिक मसले आते-जाते रहे. किसी सड़क पर आकर संजय भाई ने पूछा, किधर से निकलना है?’ रामप्रकाशजी और प्रदीपजी ने कोई संतोषजनक जवाब देकर संजय को रास्ता बताया. गाड़ी दिल्ली पार कर चुकी थी.

क्रमश:

19.11.07

इतवार के इतवार चेन-लॉक मरम्मत करते हैं विशाल भाई


मैं बाकलनी में दरी पर बैठे अख़बार चाट रहा था. इतवार को मैं बड़ी तबीयत से अखबार चाटता हूं, बाक़ी दिनों में तो जैसे-तैसे नज़र भर मार लेने का भी समय निकालना पड़ता है. दसवीं के इम्तहान के दौरान पिताजी ने पुरज़ोर कोशिश की कि बेटा चार बजे भोर में उठकर पढ़ ले, रिवाइज़ कर ले. बेटा सोता ही था बारह-एक बजे, तो भोर में उठ कैसे जाता! पिटाई-उटाई होती रही पर बेटे ने अपना नियम-भंग नहीं किया. जैसे-जैसे उम्र बढ़ती गयी, सोने-जगने के समय में देरी बढ़ती गयी. पिता जिस आदत को सुधार नहीं पाए, बेटी ने काफ़ी हद तक सुधार दिया उसे.

ग़रज ये कि अब सात-साढ़े बजे तक उठ जाना पड़ता है. कुल जमा तीन जने हैं परिवार में. 31 महीने की बिटिया, 30 साल की बीवी और चौंतीस की दहलीज़ पर क़दम रखने वाला मैं. नगरी लहज़े में कहें तो तीनों कामकाजी हैं. बीवी कचहरी जाती है. सात बजे से ही उनके फ़ोन की घंटी बजने लगती है. कभी किसी क्लायंट का फ़ोन तो कभी किसी का. साथ में रसोई में गैस पर सब्ज़ी-रोटी का नितांत ज़रूरी काम (इमानदारी से बता रहा हूं कि अब ये काम लगभग पूरी तरह से उन्हीं के जिम्मे है. कभी-कभार एक्सपेरिमेंटल रोल ही रह गया है मेरा, या यूं कहें कि मैंने पल्ला झाड़ लिया है.) और साथ में शांतिजी को बीच-बीच में यह निर्देश कि बर्तन में चिकनाई या साबुन रह न जाए. उधर किलकारी मैडम आठ बजे के आसपास आंख खोलते ही बेड-मिल्क की फ़रामइश रखती हैं. मैं अगर रसोई की तरफ़ चल भी पडूं तो उन्हें बड़ी दिक़्क़त हो जाती है, चालू हो जाती हैं अपना ताल-पैंतरा लेकर. इसलिए सुबह-सुबह तो उनसे डर के ही रहना पड़ता है. दूध ख़त्म करते ही बोलती हैं, कारी (किलकारी) को तैयार कर दो. देर हो रही है. आफिस जाएगी कारी. जल्दी तैयार कर दो न पापा. (पापा की जगह मम्मी संबोधन भी हो सकता है). दरअसल किलकारी मैडम क्रैश जाती हैं पर बताती ऑफिस ही हैं. और मैं तो हूं ही कामकाजी. इसलिए तीन-तीन कामकाजियों के रहते बाक़ी दिनों में दफ़्तर पहुंचने की जल्दबाज़ी में अख़बार की सुर्खियों से ही संतोष करना पड़ता है.

31 महीने पहले तक चादर तान कर लम्बी सोया करता था. बस दफ़्तर पहुंचने से 15 मिनट पहले उठकर फटाफट तैयार हो जाता था. वर्किंग डेज़ में अख़बार से तब भी सुर्खियों भर का ही रिश्‍ता था. इतवार तो ख़ैर अपना रहा है हमेशा से. किलकारी के आने के बाद अब इतवार को भी एक ही अख़बार लिया जाता है. हां, तो कल जब मैं अख़बार चाट रहा था तो बीवीजी बोलीं, देखो, किलकारी नहीं मान रही है. ये जिप ठीक कर रहे हैं इसके जैकेट की और मैडम बार-बार छीन ले रही हैं जैकेट इनके हाथ से ... मैंने बालकनी में बैठे-बैठे ही समझाने वाले अंदाज़ में कहा, दे दो किलकारी. आपका जैकेट ठीक हो जाएगा. नहीं मानी. फिर मैं अन्दर कमरे में गया और पुचकार-पोल्हा कर जैकेट दे दिया चेन की मरम्मत करने वाले भैया को. और बग़ल में बैठकर देखने लगा.

अरे, वो भैया तो बिल्कुल नहीं थे. नीली पैंट और काई रंग की जरसी पहने उस भैया की उम्र तेरह-चौदह साल से ज़्यादा नहीं होगी. मासूमियत कम थी उनके चेहरे पर ग़ज़ब की शालीनता थी. अपना नाम विशाल बताया भैया ने. यह भी बताया कि उसने यह काम अपने बड़े भाई से सिखा है. तीन भाइयों में सबसे छोटा है विशाल. जिस भाई ने उसे ये हुनर सिखाया, अब वह जिंस के कारख़ाने में काम करता है. सबसे बड़े भाई भी जिंस सिलाई का ही काम करते हैं. पिताजी फेरी पर साड़ी बेचते हैं. मां घर में रहती हैं. विशाल भाई की एक बहन है जो सेकेंड इयर की विद्यार्थी हैं, मामा के घर पर रहकर ही पढ़ाई कर रही हैं. विशाल का पुश्‍तैनी घर और ननिहाल एटा जिले में है. एटा मैनपुरी के पास है. मैनपुरी उत्तरप्रदेश के पूर्व मुख्‍यमंत्री मुलायम सिंह जी का चुनाव-क्षेत्र है. मौक़ा पड़ने पर विशाल भई गांव भी जाते हैं. कल ही तो आया हूं भैया दुज पर बहन से मिलकर.

मैंने पूछ लिया कि चेन-मरम्मती से कितनी आमदनी हो जाती है? ठस्स-सा जवाब मिला डेढ सौ, दौ सौ, ढाई सौ भी हो जाता है. फिर अपने-आप उन्होंने बताया कि ये काम वो केवल संडे को ही करते हैं. बाक़ी दिनों में स्कूल जाते हैं. राजकीय सर्वोदय विद्यालय नाम है उनके स्कूल का. भजनपुरा के उस स्कूल में विशाल आठवीं दर्जे के विद्यार्थी हैं. बीवीजी ने विशाल से पूछा, भैया कहां-कहां जाते हो चेन मरम्मत करने?’ विशाल भाई का जवाब आया, खाली तिमारपुर में करते हैं. तिमारपुर में ही अपनी रिहाइश भी है. दो साल से इतवार के इतवार विकास भाई ये काम कर रहे हैं. सोमार से शनीचर तक जिस बैग में किताब-कॉपियां लेकर वे स्कूल जाते हैं, इतवार को उसमें स्टील के दो लंच बॉक्स, और एक पिलाशनुमा कोई उपकरण होता है. और कुछ रखते होंगे वो तो मुझे नहीं मालूम. ये दो डिब्बे तो दिख गए थे मुझे. एक में ख़राब लॉक (लॉक माने जिसे पकड़ कर हम उपर-नीचे सरकाते हैं) और दूसरे में अच्छा लॉक रखते हैं. किलकारी के चेन का लॉक ठीक करने में उन्हें 4 मिनट लगे होंगे. पूछने पर उन्होंने बताया कि 5 मिनट से ज़्यादा शायद ही कभी ख़र्च होता है एक लॉक की मरम्मती में.

इतवार को जो भी कमाते हैं विशाल भाई उसमें से पचास-साठ रुपए रखकर बाक़ी घरवालों को दे देते हैं. इसी पचास-साठ से उनके कॉपी-कलम-किताब का ख़र्च निकल जाता है. आम तौर पर अपनी पढ़ाई-लिखाई के लिए वे घरवालों से पैसा नहीं लेते हैं. जब ज़्यादा पैसों की ज़रूरत होती है तब ही वे बड़े भाइयों या पिता से पैसे की बातचीत करते हैं.

विशाल भाई भविष्य में मोबाइल फ़ोन का कारीगर बनना चाहते हैं. लोगों से सुना है उन्होंने कि मोबाइल रिपेयरिंग के काम में अच्छा पैसा बन जाता है.

12.11.07

दसटकिया चोरी

पहले गांव में ख़ूब फेरीवाले आया करते थे. एक लंबा सांवला-सा आदमी जिसकी उम्र 30-35 के आसपास रही होगी, हर दूसरे दिन साइकिल के कैरियर पर बरफ (आइसक्रीम) का वक्सा लादे आता था. टोले में घुसते ही किसी खंभे या दीवार के सहारे वह अपनी साइकिल टिकाकर डमरू बजाना शुरू कर देता था. डमरू की आवाज़ सुनते ही बच्चे जमा होने लगते थे, और बरफ़ मांगने लगते थे. फिर वो बरफवाला कहता, जा न, घरे से पइसा ले आब. बच्चे अपने-अपने घर की तरफ़ दौड़ पड़ते थे. अब कोई अपनी दादी की साड़ी पकड़े तो कोई अपनी मां की पल्लू खींचते, तो कोई बड़ी बहन की उंगली पकड़े बरफवाले के पास आता था.

मैं अकसर ऐसे मौक़ों पर अपनी मां से पैसे मांगा करता था. मां अगर कुछ बहाना बनाती, जो कि वो अकसर बनाती थीं तो मैं उन्हें बहुत तंग करने लगता था. ज़मीन पर लोट कर हाथ-पांव पटकने से लेकर ज़ोर-ज़ोर से चीखने तक का नाटक करता था. आखिरकार मां को बिस्तर के नीचे से निकालकरं चवन्नी देनी पड़ती थी, और मैं सिसकता, आंसू पोछता हुआ सीधे बरफवाले के पास पहुंचता था. आम वाला बरफ या फिर बेल वाला मुझे बहुत पसंद था. मैं इन दोनों में से ही कोई लेता था. बरफवाले के पास दस पैसे से लेकर आठ आने तक का बरफ होता था. आठ आने में दूध वाला मिलता था.

एक बार की बात है. मैं किसी छुट्टी में हॉस्टल से घर आया था. एक सुबह मुझे मां के तकिये के नीचे दस रुपए का एक नोट दिख गया. मैंने उसे उठा लिया और अपने पैजामे के नाड़े में छुपा लिया. सोचा, अब जब आएगा बरफवाला तो ख़ूब बरफ खाउंगा. पर कुछ देर में ही मां ने किसी काम से त‍किया पलटा. नोट न देखकर वो गुस्सा हो गयीं. उन्होंने मुझसे पूछा. मैंने साफ़ इंकार कर दिया. उसके बाद यह कहते हुए कि घर में और कोई आया ही नहीं तो ले कौन जाएगा रुपया, उन्होंने मेरी पिटाई करनी शुरू कर दी. मैं ज़ोर-ज़ोर से रोने लगा. मेरी चीख सुनकर ईया (अपनी दादी को मैं और मेरे चचेरे भाई लोग ईया ही कहते थे) आ गयीं. ईया ने मां को धक्का-सा दिया, दो-चार गालियां दीं और मुझे गोद में उठा लिया. मुझे पुचकारते हुए वो मां को गालियां पढ़े जा रही थीं. उन्होंने मां से कहा, ख़ुद कहीं रखकर भूल गयी है और बच्चे पर आरोप मढ़ रही है. मैं भीतर-भीतर ख़ुश और दुखी दोनों हो रहा था. ख़ुश इसलिए कि तत्काल दादी ने बचा लिया और दुख इसलिए कि मेरी वजह से मां को दादी ने ख़ूब गालियां दी.

ख़ैर, दादी मुझे गोद में लेकर आंगन से बाहर निकल गयीं. कुछ देर बाद जब मैं बाहर से आया तो मां ने नहलाने के लिए मेरे कपड़े उतारने शुरू कर दिए. कमीज़ खोल दी, बनियान उतार दी. जब वो मेरा पाजामा उतारने लगी तो मैं सहम गया. जैसे ही उन्होंने नाड़ा खींचा, दस रुपए का वो नोट ज़मीन पर गिरा. मैं रोने लगा और फिर कभी दुबारे ऐसा न करने की बात ख़ुद ही बोल गया. मां नहलाते हुए मुझे समझाते रहीं. आज उस घटना के लगभग 25 साल हो चुके हैं. जब भी याद आता है तो दादी द्वारा बचाए जाने से लेकर मां द्वारा समझाए जाने तक, एक-एक बात और घटना याद करके मैं यह सोचने लगता हूं कि यदि मैं तब दसटकिया चोरी नहीं किया होता तो शायद आज बड़ा चोर होता.

8.11.07

बिदुरजी नहीं रहे

परसो रात माताजी से फ़ोन पर बातचीत हुई. हालचाल के शुरूआती आदान-प्रदान के बाद उन्होंने बताया कि उनके पैर में एक गांठ बन गयी है, मेरी छोटी मामीजी के साथ वो पटना में किसी डॉक्टर दिखवाकर आयीं हैं. एक महीने बाद फिर बुलाया है.


जानकर राहत मिली. पिताजी के बारे में पूछने पर पता चला कि आजकल गांव में धान की कटाई और तैयारी का काम चल रहा है. उन्होंने ये भी बताया कि खेतों में अब भी पानी है. समय लगेगा और शायद अगले फसल के लिए दिक़्क़त होगी. फ़ोन रखते-रखते माताजी ने बताया कि चनेसर का (चन्देश्वर काका) नहीं रहे, और फिर एकदम से ख़ामोश हो गयीं.


चनेसर का, मेरे लिए चनेसर बाबा हमेशा एक रहस्य रहे. उनकी उम्र मेरे ख़याल से अस्सी के आसपास रही होगी. हो सकता है ज़्यादा भी. छुटपन की स्मृति कहती है कि मैंने सबसे पहले उन्हें ही साइकिल चलाते देखा था. वही मेरे लिए सबसे पहले साइकिल-सवार थे. मेरे गांव में किसानों के घर और बथान/डेरा/घेर में कम से कम से दो किलोमीटर की दूरी थी, कुछ का बथान तो तीन किलोमीटर से भी ज़्यादा दूर था. जैसे हिटलर साहब का. हिटलर साहब, असली नाम तपेश्वर सिंह, रिश्ते में मेरे बाबा लगते थे. कुछ साल पहले वो भी गुज़र गए. एक बार कभी अपनी ज़वानी के दिनों में वे गांव के सरपंच चुने गए थे. उस ज़माने में ग्राम कचहरी का बड़ा रूतबा था. बात-बात में लोगों को न्याय मिलता था. तपेश्वर बाबा के उस त्वरित न्याय-प्रणाली के कारण ही गांव के कुछ लोगों ने उनको हिटलर के खिताब से नवाज़ दिया था, जो आगे चलकर उनके नाम को एक किस्म से स्थानापन्न ही कर दिया. तो हिटलर साहब की हालत तो ऐसी थी कि उनके परिवार में डेरा पर रहने की ड्यटी बांट-सी दी गयी थी कि कौन किस समय डेरा पर जाएगा.


असल में डेरा और घर का एक बेहद जीवन्त और असरदार संबंध हुआ करता था उस ज़माने में. खेती-बाड़ी का सारा काम डेरे के आसपास हुआ करता था, क्योंकि ज़्यादातर खेत-पथार उधर ही थे. माल-मवेशी भी डेरे पर ही. पर कटाई-पिटाई, दौनी-ओसाई के बाद तैयार अनाज घर पहुंचा दिए जाते थे. अब अनाज पर परिवार की बुजुर्ग महिलाओं का स्वामित्व होता था. स्वामित्व इसलिए कि असली मिल्कियत तो डेरा पर बैठे मर्दों की होती थी. डेरा और उसके आसपास खेती संबंधी काम के बाद बन/मज़दूरी के लिए कामगार को एक पर्ची दे दी जाती थी, जो आमतौर पर मेरे परिवार में चाचा देते थे, जिस पर लिखा होता था बन की संख्‍या और बदले में दिए जाने वाले अनाज का वज़न, जैसे तीन बन, 3x3, कुल 9 किलो अनाज. अब उस पर्ची को दादी किसी बच्चे से या फिर आंगन में मेरी मां से पढ़वाती थी और फिर उस कामगार की मज़दूरी तौली जाती थी. अनाज तौलने का काम आम तौर पर वो मज़दूर करता था जिसे मज़दूरी लेनी होती थी.


हम बच्चे तब बेढ़ी/ठेक में कूदने के लिए बेचैन रहते थे. बेढ़ी/ठेक बांस के पतले-पतले फट्ठे से बुना गया एक बड़ा-सा घेरा होता था, जिस पर मिट्टी और गोबर का लेप होता था और उपर छतरीनुमा एक छप्पड़ भी. ईंटों से जुड़ी नींव पर रखे इस घेरे में सामने की तरफ़ एक छोटी सी खिड़की होती थी. कई-कई क्विंटल अनाज उस ठेक में आ जाते थे. जब घर की कोठियों में अनाज समाप्त हो जाता था तब दादी किसी बड़े आदमी से खिड़की का ताला खुलवा देती थी और आसपास चक्कर लगा रहे किसी बच्चे को उसके अंदर घुसकर अनाज निकालने के लिए कहती थीं. बहुत मज़ा आता था अनाज के उस कमरे में. बहुत मजा! तो ये घर और डेरे के संबंध और उन संबंधों के चलने-चलाने के बहुतेरे तरीक़ों में से एक की बानगी थी. कमोबेश हर खेतीहर परिवार में ये होता था.


हर किसान परिवार का कोई न कोई पुरुष रात को डेरे पर ज़रूर रहता था. शायद यह एक अनकहा नियम ही था. अगली सुबह वही आदमी दूध, सब्जी, जलावन, फल इत्यादि लेकर गांव (गांव में घर को गांव ही संबोधित करते हैं लोग आज भी) पहुंचता था. कुछ मामलों में ढुलाई का यह काम चरवाहा भी करता था. चरवाहे अमुमन डेरे के आसपास के दलित परिवारों के बच्चे होते थे. इक्के-दुक्के बच्चियां भी चरवाही का काम करती थीं. हमारे परिवार के लिए ये काम मेरी याद्दाश्त में चिकरना (कैलाश राम), और नथुनिया यानी नथुनी राम ने किया. ये चरवाहे सिर पर बड़ी-सी टोकरी में दूध का डोल और थोड़ी-बहुत सब्ज़ी लेकर हवेली (किसानों के घर को जन-मज़दूर हवेली कहा करते थे) पहुंचते थे. टोकरी उतारने के बाद चरवाहे हाथ-मुंह धोकर आते थे और साथ में केले का पत्ता भी लाते थे, जिस पर आम तौर पर रात की बची-खुची रोटी और सब्ज़ी रख दी जाती थी. बहुत कम ही परिवार थे जो ताज़ा खाना खिलाते थे चरवाहे को. मेरी चचेरी दादी तो अकसर बासी भोजन ही चरवाहे के पत्ते पर रख देती थीं. इक्के-दुक्के परिवारों में आज भी यही प्रैक्टिस जारी है. मैं जब भी ऐसा देखता हूं, बड़ी पीड़ा होती है मुझे, गुस्सा भी आता है. कभी-कभी लगता है नादानी में कितने अपराधों का हिस्सा रहा हूं मैं!


हां तो मैंने जिस साइकिल सवार को सबसे पहले जाना, वे 20-22 बरस पहले भी मुझे ज़्यादा उम्र के लगते थे. तब उनके घर में उनके अलावा उनकी एक बहन जो शादी के कुछ सालों बाद अपने ससुराल से वापस आ गयीं और फिर कभी लौटी ही नहीं, पिछले कुछ सालों से उनकी मानसिक स्थिति भी ख़राब रहने लगी है, रहती थीं, सफ़ेद बालों वाली उनकी मां और बेहद सुन्दर और शांत स्वभाव की उनकी पत्नी रहती थीं. उनकी पत्नी जिनको हमलोग फुआजी पुकारते हैं, उम्र में चनेसर बाबा से आधी या आधी से थोड़ी कम थीं. चनेसर बाबा के छोटे भाई केदार बाबा जो बड़काकाना, हज़ारीबाग में सीसीएल में फ़ौरमैन थे, वहीं परिवार समेत रहते थे. उनको रिटायर हुए भी 6-7 बरस हो गए होंगे, अब भी बड़का काना में ही रहते हैं. घर-परिवार के बड़े-बूढ़ों से सुना है कि चनेसर बाबा के परिवार में खेत-पथार कम था. वे ज़्यादा पढे-लिखे भी नहीं थे. केदार बाबा लगनशील और मेहनती थे. आज भी बड़े कर्मठ लगते हैं मुझे. मुज़फ़्फ़रपुर से आईटीआई का कोर्स कर लिया था किसी तरह, जिसकी वजह से उन्हें तब झारखंड के जंगल में नौकरी मिल गयी थी. वहां उन्होंने नौकरी के अलावा एक दुकान भी शुरू कर दी थी जिसको चलाने के लिए वे अपने रिश्‍तेदारों को साथ ले जाते थे या बुलवा लेते थे. बाद में चनेसर बाबा का बड़ा बेटा यानि केदार बाबा का बड़ा भतीजा बिट्टु जो मुझसे 4-5 साल छोटा होगा, दुकान चलाने के लिए बड़काकाना गया और वहीं रह गया. सुनते हैं अब वो दुकान बिट्टु की ही है.


नौकरी लगने के बाद केदार बाबा की शादी हो गयी. उनका ससुराल और मेरा ननिहाल एक ही गांव में है. मुज़फ़्फ़रपुर और दरभंगा जिले के सीमांत गांव पिपरा में. बचपन से सुनते आ रहा हूं कि अपनी शादी के कुछ सालों बाद केदार बाबा ने अपने ही ससुराल में बड़े भाई यानि चनेसर बाबा की शादी के लिए एक लड़की का इंतजाम किया. लड़की मेहनती थी, शायद ग़रीब थे मां-बाप. लगभग दो गुने उम्र के दुल्हे के साथ अपनी लड़की ब्याहने के लिए वे राजी हो गए. चनेसर बाबा को दो बेटे हैं. बिट्टू बड़काकाना में दुकानदारी करता है और छोटा जुगनू गांव में ही रहकर खेतीबाड़ी करता है और परिवार की देखभाल भी.


चनेसर बाबा बहुत मेहनती थे. जवानी के दिनों में कई हाथों का काम उनके दो हाथ करते थे और बहुतेरे पावों के काम में उनकी साइकिल के दो पहिए उनकी दोनों पैरों की मदद करते थे. खेती से जो भी धान, गेहूं, दलहन, तिलहन इत्यादि उपजता था, उनमें से अच्छे-अच्छे अनाज वे बड़का काना पहुंचा देते थे या फिर वहां के लिए बचा कर रखवा देते थे कि केदार के भेज दिअहु. कुछ साल पहले केदार बाबा ने डेरे पर ही घर बनवाया था. चनेसर बाबा परिवार समेत वहीं रहते थे.


हर गांव में होती है, या किसी-किसी गांव में नहीं होती होगी, मेरे गांव में एक ख़ास परंपरा है, चाल और चेहरे के अनुरूप कुछ लोगों को उपाधियां दी जाती थीं. हिटलर साहब तो थे ही बिदुरजी भी थे. हमारे चनेसर बाबा को बिदुरजी का खिताब मिला था. अबकी जाउंगा तो पता करूंगा किन विशेषताओं के कारण चनेसर बाबा बिदुरजी कहे जाते थे.बिदुरजी के नहीं रहने से डेरा पर रात बिताने की परंपरा को भारी नुक़सान हुआ है.