गजरौला में गरम चाय
गजरौला. नाम जाना-पहचाना था. 1992 के आसपास शहर के किसी कॉन्वेंट में दो इसाई ननों के साथ बलात्कार हुआ था. पहली बार तब सुना था इस शहर का नाम. बलात्कार-पीडिता ननें जब नजदीकी थाने में रपट दर्ज करवाने गयी थीं तब पुलिस वालों ने उनके साथ कोई बढिया सलूक नहीं किया था. जगह-जगह धरने-प्रदर्शन हुए थे उस कांड के विरोध में. मेरे ख़याल से 15 साल पहले हुई उस घटना से बजरंगियों की बड़ी हिम्मतअफ़ज़ाई हुई थी. ऐसी कि बाद के सालों में इसाई मिशनरियों के खिलाफ़ हिंसा का एक दौर ही शुरू हो गया था. ननों को ख़ास निशाना बनाया जाने लगा. मध्यप्रदेश, राजस्थान, गुजरात तथा उड़ीसा में मिशनरियों के खिलाफ़ ऐसी हिंसा की गिनती की जाए तो फ़ेहरिस्त लंबी हो जाएगी. गजरौला चौधरी महेन्द्र सिंह टिकैत वाले भारतीय किसान युनियन की गतिविधियों का केंद्र भी रहा है.
तो मित्रों, पीछे एक बार कहीं सुनसान जगह पर सड़क किनारे लघुशंका निबटान के लिए चंद मिनटों के यात्रा-विराम के बाद यह हमारा अगला पड़ाव था. तलब चाय की जगी थी और शायद हमारे पेट ने भूख की दस्तक भी दे दी थी. गजरौला के किसी पंजाबी होटल में उसी सिलसिले में रुकना हुआ था. हल्का-फुल्का हो लेने के बाद ख़ुद-ब-ख़ुद हमारे क़दम बरामदे में सजे प्लास्टिक की मेज़ और कुर्सियों की तरफ़ चल पड़े थे.
रामप्रकाशजी और मैं होटल के जिम्मेदार जैसे लग रहे किसी सरदारजी के पास पहुंचे. पूछा, ‘क्या-क्या है नाश्ते में?’ शायद नया जाना उसने हमें. थे भी हम. कहा, ‘आप बैठ जाओ, वहीं चला जाएगा लड़का’. मेज़ की तरफ़ आते हुए रामप्रकाशजी ने एक कुर्सी बग़ल से अपनी ओर खींच ली. ज़रूरत थी. हम कुल छह जने थे और कुर्सी केवल चार. हालांकि बाद में एक कुर्सी और सरकायी गयी अपनी तरफ़, पर संजय भाई ने विनम्रतापूर्वक बैठने से इंकार कर दिया.
इक्के-दुक्के अपवादों को छोड़कर, मैंने हमेशा ये नोट किया है कि महिलाएं हमेशा अपना पर्श अपने साथ रखती हैं. और जिन्हें वो पर्श कहती हैं, उसमें पुरुषों के दर्जन भर पर्श रख देने के बाद भी शायद कुछ जगह और खाली रह जाए. मधुजी ने अपना पर्श कंधे से उतारकर अपनी गोद में या फिर कुर्सी के पीछे रख दिया था. विधिजी का वैसा ही पर्श बग़ल की कुर्सी पर था. साथ में एक थैला और था. बिल्कुल वैसा ही जैसा मेरी मां बाज़ार जाते हुए अपने कंधे पर टांग लेती हैं, और पिताजी जब मुज़फ़्फ़रपुर से गांव जाते हैं तब उसमें लुंगी, अंगोछे और गंजी (बनियान) के अलावा मां द्वारा दिया गया रात के भोजन का डिब्बा भी रख लेते हैं.
बैरा आकर नाश्ते के आयटम बता चुका था. हमारी टोली ने आयटमों की लिस्ट सुन लेने के बाद लगभग संवेत स्वर में कहा था, ‘चाय ले आओ, छह चाय’. मधुजी ने कहा, ‘भइया, एक चाय बिल्कुल कड़क. पत्ती ज़्यादा डालना’. मैंने उस ऑर्डर में थोड़ा सुधार किया, ‘छह नहीं, पांच’. और अपनी टोलीवालों को बताया, ‘मैं नहीं पीता चाय’. बग़ल में मधुजी बैठी थीं. अचरच से पूछा, ‘राकेशजी आप चाय नहीं पीते हैं? कॉफ़ी मंगा लेते हैं हम आपके लिए.’ मुझसे ‘कॉफ़ी भी नहीं पीता’ सुनने के बाद तो उनके चेहरे पर हैरत आती ही रही. ऑर्डर वाला निहायत ज़रूरी काम होते ही विधिजी ने वही थैला खोला जो मेरे लिए रहस्य था. महिलाएं दो और पर्श तीन! गुडडे बिस्कुट के रूप में रहस्य का पर्दा थोड़ा सरका. प्रदीपजी के हाथों घुमता हुआ वो पैकेट मेरी तरफ़ भी आया. दो निकाला, आगे सरका दिया. विधिजी ने कोई दूसरा डिब्बा निकाला. बिस्कुट का ही था. अब विधिजी ने रोल किए फ़ायल निकालकर रखना शुरू कर दिया मेज़ पर. पराठे निकलने लगे उनमें से. मेज पर जब खुले फ़ॉयल पर पराठे रखे जाने लगे तो उसमें से भाप निकल रहे थे. गर्म ही थे. विधिजी की इंतजामिया की दाद देता हूं.
अब बिस्कुट नहीं हाथों में पराठे थे. मुंह कतराई में व्यस्त हो गये. चंद सेकेण्ड पहले मुहं से आ रही कर्र ... कर्र ... ध्वनि की जगह अब चपड़-चपड़ के स्वर आने लगे. मधुजी ने अंचार की फ़रमाइश की. बार-बार गर्दन मोड़कर, लमाड़ कर कभी प्रदीपजी, तो कभी रामप्रकाशजी तो कभी मैं उस फ़रमाइश को आगे पहुंचाता रहा. पर शायद यहां आप भी हमसे सहमत होंगे कि बहुत सारी चीज़ों को सुनकर आप अगर छोटी-से-छोटी चीज़ का ऑर्डर प्लेस करते हैं तो आपका नंबर बाद में आता है. और अगर उपर से किसी एक्सट्रा आयटम की फ़रमाइश जिसकी क़ीमत अकसर न मांगी जाती हो, तो समझिए कि एहसान टाइप सोचकर ही दुकानदार पूरी करता है. अंचार देकर बैरे ने जल्दी ही एहसान कर दिया. चाय अब भी आनी थी. जब आयी तो मधुजी ने यह कहकर कि कड़क नहीं है, वापस ले जाओ और पत्ती और डालकर लाओ – वापस कर दिया. नतीजा हुआ कि मधुजी को चाय तब मिली जब बाक़ी लोगों की चाय गिलास की पेंदी छूने लगी थी. उधर विधिजी एक के बाद एक फ़ॉयल में लिपटे पराठे निकालती रहीं. होटल वाले ने तो यही सोचा होगा न कि अगर पराठे लेकर लोग ऐसे ही आते रहे तो वह तो केवल अंचार की सप्लाई और चाय ही बेच पाएगा. मेरे ख़याल कम-से-कम इतना तो ज़रूर सोचा होगा उसने.
गीले अंचार के साथ पराठे का भोग और चाय से पर्याप्त गरमाहट ले लेने के बाद हमने अपने आप को गाड़ी में डाल दिया. संजय भाई के पैर और हाथ एक्सलेटर और स्टीयरिंग पर टिक चुके थे. गाड़ी अगले पड़ाव की तरफ़ चल पड़ी. संजय भाई ने डैशबोर्ड से लगे सीडी प्लेयर का कोई बटन दबा दिया था. ‘प्यार करने वाले कभी डरते नहीं, जो डरते हैं वो प्यार करते नहीं ...’.
क्रमश: